आइए, आज तफसील से बात करते हैं कानपुर शहर के बर्रा क्षेत्र स्थित न्यू जागृति अस्पताल की. एक महिला मरीज का आरोप है कि अस्पताल के वार्ड ब्वॉय ने उनके साथ दुष्कर्म किया.
अस्पताल का आईसीयू वार्ड एक ऐसी जगह है, जहां मरीजों को सबसे ज्यादा देखभाल की जरूरत होती है. यहां मरीजों के परिजनों का भी अनावश्यक रूप से जाने की मनाही होती है. इसका मकसद होता है कि मरीज़ ज्यादा से ज्यादा आराम कर सके और उचित मेडिकल प्रोसिजर से गुज़र कर सामान्य स्थिति में आ सके. वहां ऐसी घिनौनी हरकत? आईसीयू वार्ड में हमेशा मरीज की तीमारदारी के लिए अस्पताल का एक स्टाफ मौजूद होता है. वार्ड में भी एक नर्स मौजूद रहती है. फिर सवाल ये है कि वहां पुरुष स्टाफ की एंट्री कैसे हुई? यदि पीड़िता की जुबानी जानें, तो देखिए क्या हुआ था उस रोज़:-
वार्ड ब्वॉय मेरे कपड़े बदलने आया था. मैंने जब आपत्ति की और कहा कि किसी महिला स्टाफ को भेजो तो वो मुझसे बदतमीजी पर उतर आया और गन्दी गन्दी बातें बोलने लगा. फिर उसने मुझे बेहोशी का इंजेक्शन लगा कर मेरे साथ ग़लत काम किया.
अब सिर्फ और सिर्फ एक सवाल मन में उठता है-ये कैसा अस्पताल है, जहां महिला मरीज़ के कपड़े बदलवाने की ड्यूटी एक पुरुष स्टाफ को सौंप दी जाती है? एक अकेली महिला मरीज के कमरे में एक पुरुष स्टाफ की एंट्री कैसे दी गई? इस पूरे प्रकरण में जितना वार्ड ब्वॉय दोषी है, उतने ही दोषी अस्पताल के मैनेजमेंट से सम्बंधित लोग भी हैं. नियमों में शिथिलता होने पर ही जुर्म पनपता है. ऐसे में सवाल उठता है कि अस्पताल में मरीजों की सुरक्षा से सम्बंधित नियमों पर प्रशासन ने ध्यान क्यों नहीं दिया?
लड़की के परिजनों ने बताया कि पुलिस ने एफआईआर लिखने से मना कर दिया. इतना ही नहीं, हॉस्पिटल मैनेजमेंट को बचाने के उद्देश्य से मामला ख़त्म करने के लिए भी दबाव बनाया गया.
अब सवाल ये उठता है कि जुर्म सहने के बाद इसके खिलाफ उठ खड़ा होना भी अपराध है क्या?
अगले दिन पब्लिक का गुस्सा फूटता है. भीड़ कई पुलिस कर्मियों के साथ मारपीट कर गंभीर रूप से घायल कर देती है. कह सकते हैं कि जब पुलिस अपना कर्तव्य नहीं निभा रही हो और उल्टा पीड़ित के परिजनों को ही सताने में लगी हो, तब आम जन के पास कोई उपाय बचता है? यहां भी पब्लिक ने कानून अपने हाथ ले लिया और पुलिस के साथ हाथापाई की. लेकिन इसमें एक गलत संदेश यह जाता है कि यदि सभी लोग कानून अपने हाथ में लेने लगेंगे और भीड़ अराजक बर्ताव करने लगी, तब यह देश और समाज के लिए खतरनाक संकेत है.
अब इस पूरे प्रकरण को समझते हुए जरूरत है गंभीर चिंतन की. चिंतन सामाजिक सुरक्षा और कानून व्यवस्था को लेकर. चिंतन नियमों की शिथिलता पर. चिंतन इंसान के गिरते नैतिक स्तर पर. साथ ही जरूरत है सरकार द्वारा अस्पतालों के लिए कड़े नियम लागू करने की. यदि कोई अस्पताल मरीज़ की सेहत और सुरक्षा से खिलवाड़ करे या अस्पताल नियमों का उल्लंघन करे तो तत्काल उसका लाइसेंस कैंसिल कर दिया जाए. अस्पताल खोले जाने की मंजूरी तभी मिले, जब वे सभी मानकों व प्रावधानों को पूरा करें. हालांकि यह कोई पहला मामला नहीं है, लेकिन हुआ क्या-
वही हो-हल्ला, दो-चार दिन का बवाल और फिर वही पहले की तरह सब कुछ सामान्य. किसी अस्पताल का लाइसेंस रद्द नहीं हुआ, कोई कार्रवाई नहीं हुई, यदि कार्रवाई हुई भी तो कोई आरोप साबित नहीं हुआ. ऐसे मामलों में पीड़ा झेलने के लिए सिर्फ पीड़ित या उसका परिवार बचता है, जो थक-हारकर केस वापस लेने को मजबूर होता है.
हम बड़ी विचित्र और गंभीर सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा बनते जा रहे हैं. हम तब तक किसी मुद्दे की गंभीरता को नहीं समझते जब तक वह हमसे जुड़ा नहीं हो. इंसान संवेदना खोता जा रहा है और धीरे-धीरे हिंसक भीड़ का हिस्सा बनता जा रहा है. यही वजह है कि समाज में अराजकता और अनैतिकता बढ़ रही है. हमें जरूरत है अपनी सुप्त पड़ी संवेदनाओं को जगाने की, ताकि हम दूसरों के दुःख तकलीफों को भी महसूस कर सकें.
न्यू जागृति अस्पताल की घटना भी मुश्किल से एक-दो दिन अखबारों की सुर्खियां बनी रहीं, लोगों ने आक्रोश दिखाया और फिर सब-कुछ ठंडे बस्ते में चला गया. किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा कि उस मरीज का क्या हुआ या इस मामले में पुलिस ने आगे क्या कार्रवाई की? हम बस तेज़ भागती हुई ज़िन्दगी का एक हिस्सा मात्र बनकर रह गए हैं. हमारी संवेदनाएं मर गई हैं. यदि हम चाहते हैं कि भविष्य में ये घटनाएं हमारे या हमारे परिवार के सदस्यों के साथ न घटे तो हमें सचेत होना पड़ेगा, हमको जागना पड़ेगा. उठिए, जागिए और झिंझोड़िए सरकार और कानून व्यवस्था को, ताकि इस तरह की घटनाएं दोबारा न हों.
(लेखिका समाजशास्त्र की प्रोफेसर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)