उत्तराखंड के चमोली जिले में ग्लेशियर टूटने के कारण मची भारी तबाही और जानमाल के नुकसान से भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि ऐसी हिमालय क्षेत्र में ऐसी भयंकर घटनाएं अब ज्यादा होने लगी हैं। क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और अपने साथ जल प्रलय भी ला रहे हैं।
‘साइंस द वायर’ में पिछले साल अगस्त में छपी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि ग्रीन हाउस गैसों के दुष्प्रभाव के कारण अगर पृथ्वी का तापमान यूं ही बढ़ता रहा तो सन 2100 तक यानी मात्र 80 साल में हिमालय के दो तिहाई ग्लेशियर पिघल जाएंगे। इतने ग्लेशियर यदि पिघलेंगे तो कैसी तबाही लाएंगे, यह सोचकर भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। और ग्लेशियरों का इस तरह पिघलना या टूटना न केवल जानमाल का विनाश लाएगा बल्कि दक्षिण एशिया के देशो के बीच नए राजनीतिक तनाव और सामाजिक आक्रोश का कारण भी बनेगा।
क्योंकि ग्लेशियरो के तेजी से टूटने पिघलने का अर्थ है हमारी बारहमासी नदियों में जल प्रवाह का धीरे- धीरे सूख जाना। हिमालय के ग्लेशियरों से एशिया के आठ देशों की आर्थिकी और सामाजिक व्यवस्था का भविष्य भी जुड़ा है। मैदानों में तुलनात्मक रूप से ज्यादा सुरक्षित और मनमौजी जिंदगी जी रहे लोगों को कम ही पता है कि पहाड़ या समुद्र किनारे रहने वालों का जीवन कितना कठिन और चुनौतीभरा होता है। मैदानी इलाके में रहने वालो के लिए यह सब अनोखा और रोमांटिक ज्यादा होता है। हिल स्टेशनों पर ‘स्नो फाल’ का मजा लूटते हुए सोशल मीडिया में तस्वीरें पोस्ट करना एक बात है और ग्लेशियरों के रौद्र रूप को झेलना दूसरी बात।
हममे से बहुतों को, जिन्होंने बर्फ की लादी से ज्यादा बर्फ कभी नही देखी, उन्हें नहीं पता कि ग्लेशियर होता क्या है, कैसे बनता है, कैसे रहता है और किस तरह कुपित होता है। दरअसल ग्लेशियर ऊंचे पहाड़ों पर सालों तक बर्फ जमा होते रहने के कारण बनते हैं। ग्लेशियर शब्द लैटिन भाषा के ग्लेशिया शब्द से बना है, जिसका अर्थ बर्फ होता है। ये तब बनते हैं, जब पहाड़ों पर बर्फबारी बहुत ज्यादा होती है और बर्फ पिघलने और बर्फ जमते जाने का अनुपात गड़बड़ा जाता है। यानी यह वो बर्फ होती है, जो पिघलने की बजाए आइस्क्रीम की तरह जमती ही चली जाती है।
इस निरंतर जमाव से निचली सतह पर ऊपरी सतहों का दबाव बढ़ता जाता है और वो दरककर टूट जाती है। ग्लेशियर दुनिया में मीठे पानी का सबसे बड़ा स्रोत और भंडार हैं। यदि सारे ग्लेशियर पिघल गए तो दुनिया में पीने के पानी का कैसा संकट और उसके लिए कैसी मारकाट मचेगी, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। हिमालय के इन ग्लेशियरों को ‘वाटर टाॅवर ऑफ एशिया’ भी कहा जाता है।
पहाड़ों पर जमने वाली बर्फ की इस मोटी और विशाल पर्त को आइस शीट कहते हैं। ये ग्लेशियर जब पिघलते हैं तो झील में तब्दील हो जाते हैं और जब टूटते हैं तो कयामत बन जाते हैं। ग्लेशियर दो तरह के होते हैं और ध्रुवीय और महाद्वीपीय। हिमालय के ग्लेशियर महाद्वीपीय हैं। दोनो में अंतर यह है कि ध्रुवीय ग्लेशियर बहुत धीमी गति से पिघलते हैं जब महाद्वीपीय ग्लेशियर अंधाधुंध मानवीय गतिविधियों और औद्योगीकरण के कारण होने वाला कार्बन उत्सर्जन की वजह तेजी से पिघल कर नदी और मलबे में तब्दील हो रहे हैं। दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा महाद्वीपीय ग्लेशियर सियाचिन में है।
पूरी दुनिया में करीब 7 हजार ग्लेशियर हैं। जो पृथ्वी की 10 फीसदी सतह को आच्छादित किए हुए हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार पूरी दुनिया की आइस शीट को नापा जाए तो यह अनुमानत: 1 लाख 70 हजार घन किलोमीटर होगी। अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्तराखंड के चमोली जिले की ऋषिगंगा घाटी में नंदा देवी ग्लेशियर टूटने से धौली गंगा व अन्य नदियों में आई भीषण बाढ़ से भारी तबाही मच गई। इससे एनटीपीसी की 13.2 मेगावाट ऋषिगंगा और 480 मेगावाट की तपोवन विष्णुगढ़ पनबिजली परियोजनाएं लगभग तहस नहस हो गईं।
करीब दो सौ लोग लापता हैं और 18 के शव मिल चुके हैं। ये ग्लेशियर भी कैसे टूटा, बाढ़ क्यों आई, विशेषज्ञ अभी इस बारे में एक राय नहीं हैं। सात साल पहले केदारनाथ में भी बाढ़ के कारण आई प्रलय की वजह छौराबारी ग्लेशियर झील टूटने के कारण आई थी, यह खुलासा काफी समय बाद हो पाया था। यूं ग्लेशियरों का टूटना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। बर्फ की तहें मोटी होते-होते कई बार अपने ही भार से टूटने लगती हैं। लेकिन उनका तेजी से पिघलना केवल नैसर्गिक प्रक्रिया नहीं है। मानवीय गतिविधियों के कारण पूरी पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ रहा है, जिसका दुष्परिणाम हमेशा ठंडे और आत्मलीन पहाड़ों के हिमशिखरों पर भी पड़ रहा है। वरना अपनी गति से पिघलते रहने वाले ये ग्लेशियर ही गंगा और यमुना को अखंड जल स्रोतों के रूप में मां का दर्जा दिलाते हैं।जिस दिन ये ग्लेशियर ही नहीं रहेंगे तो इन पवित्र नदियों का आंचल भी सूख नहीं जाएगा?
यह सोचकर भी कंपकंपी आ सकती है। अडिग आस्था कहती है कि ऐसा कभी नहीं होगा। लेकिन इस आस्था में पलीता में हम ही लगा रहे हैं। ग्लेशियरों का अचानक पिघलना और झीलों में बदल जाना असामान्य बात नहीं है। हिमालय में यह सब घटता रहता है। लेकिन ग्लेशियर टूटकर नीचे गिरना और साथ में कंकड़ पत्थरों का भयानक मलबा साथ लेकर प्रलयंकारी ढंग से बहना मनुष्य को उसकी औकात बता देता है। ये ग्लेशियर भी छोटे मोटे पहाड़ ही होते हैं, जब टूटते हैं तो आग से भी ज्यादा खतरनाक बन जाते हैं। इसे ग्लेशियर का फटना भी कहते हैं।
दरअसल जो हो रहा है, उसका कारण और भुक्त भोगी भी मनुष्य ही है। क्योंकि भौतिक विकास की जिस अवधारणा पर हम बहुत तेजी से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, वह प्रकृति के खिलाफ भी है। हाइडल की सस्ती बिजली के चक्कर में इतनी ऊंचाई पर हम बिजली घर तो बना रहे हैं, लेकिन खुद प्रकृति इसे कितना सहन करेगी, इसकी चेतावनियों को भी जानबूझ कर अनदेखा कर रहे हैं।
यूं कहने को चमोली जिले की यह घटना भी प्राकृतिक आपदा है, लेकिन इसके पीछे मनुष्य भी एक कारण है। हम अपनी सुख सुविधाअों के िलए लगातार प्रकृति के निजाम से छेड़छाड़ कर रहे हैं। यह सोचे-समझे बगैर कि क्या इसका परिणाम क्या होगा। चूंकि विकास अब एक राजनीतिक नारा भी है, इसलिए मानवीय गतिनविधियों को एक वैधानिक आधार और ताकत भी मिल गई है।
मनुष्य का जीवन सुगम और सुखकर हो, इसमें किसी को आप त्ति नहीं हो सकती, लेकिन किस कीमत पर और अदूरदृष्टि अथवा दूरदृष्टि के साथ, यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है। हिंदी में बर्फ की नदी को हिम नद और ग्लेशियर को हिमानी कहते हैं। हालांकि हिमानी शब्द में रौद्र ग्लेशियर का कोमल और रोमांटिक भाव बोध ज्यादा है। चमोली की घटना का सबक यही है कि ग्लेशियर को ‘हिमानी’ न समझें, मनुष्य अपनी हरकतों से बाज आए, वरना तमाम ग्लेशियरों विनाशकारी हिमनदों में तब्दील होने में वक्त नहीं लगेगा। लेकिन क्या हम इस भीषण हादसे में छिपे संदेश को समझना चाहेंगे?
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल