आज 23 वर्षों बाद आवश्यकता महसूस होती है कि विश्लेषण किया जाए कि टैक्टिकल वोटिंग वास्तव में कितनी प्रभावी और लाभदायक रही? सामूहिक रूप से इस अनुभव ने मुसलमानों के राजनीतिक सशक्तिकरण में क्या भूमिका निभाई? क्या साधारण मुस्लिम मतदाता मुस्लिम संगठनों एवं नुमाइंदों की टैक्टिकल वोटिंग की अपील में अब भी आकर्षण महसूस करते हैं? टेक्टिकल वोटिंग की चर्चा होते ही सबसे पहले इसके उद्देश्य की तरफ़ ध्यान जाता है. प्रश्न उठता है कि आख़िर 1991 में शुरू की गई टैक्टिकल वोटिंग का उद्देश्य क्या था. क्या यह आइडिया किस और के दिमाग़ की पैदावार था? क्या मुसलमानों का यह सामूहिक तौर पर सोचा-समझा मंसूबा था या उनकी दुखती रग पर हाथ रखकर किसी पार्टी, समूह या शख्स ने अपना उल्लू सीधा किया?
विकीपिडिया की परिभाषा के अनुसार, जब एक मतदाता अपनी पसंद से हटकर किसी न चाहने वाले नतीजे को टालने के लिए चुनाव के दौरान विभिन्न उम्मीदवारों में से किसी भी उम्मीदवार के हक़ में अपना मत देता है, तो उसे टैक्टिकल वोटिंग कहते हैं. आज़ादी के बाद टैक्टिकल वोटिंग की आवाज़ पहली बार 1991 के संसदीय चुनाव के दौरान सुनने को मिली और वह भी मुस्लिम समुदाय में. दरअसल, इससे पूर्व बाबरी मस्जिद मुद्दे पर भाजपा द्वारा समर्थन वापस लेने पर स्वर्गीय वी पी सिंह की नेतृत्व वाली नेशनल फ्रंट सरकार सिद्धांत की बुनियाद पर 7 नवंबर, 1990 को गिर गई थी. फिर जब 1991 के चुनाव हुए, तो उसमें भाजपा उम्मीदवारों को पराजित करने के लिए सेक्युलरिज्म का नारा देने वाली किसी भी राजनीतिक पार्टी के जीतने वाले उम्मीदवारों को सफल बनाने की अपील की गई. इसीलिए सेक्युलरिज्म का नारा देने वाली पार्टियों में से कई ने पीवी नरसिम्हाराव के नेतृत्व में अल्पसंख्यक सरकार का समर्थन कर दिया, जो 1996 तक सत्ता में रही.
इसके बाद 1996 में संसदीय चुनाव के समय मुस्लिम संगठनों एवं नुमाइंदों ने टैक्टिकल वोटिंग के लिए अपने-अपने तौर पर अपील की. यह वह समय था, जब 1992 में केंद्र में कांग्रेस एवं उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार थी और बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में भड़के सांप्रदायिक दंगे को लेकर दोनों पार्टियों के विरुद्ध वातावरण गर्म था. टेक्टिकल वोटिंग की अपील के फलस्वरूप सेक्युलरिज्म का नारा देने वाली दीगर पार्टियों के उम्मीदवार बड़ी संख्या में सफल हुए, लेकिन किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. ऐसे में भाजपा ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनाई, जो मात्र तेरह दिनों तक क़ायम रही. तत्पश्चात ग़ैर कांग्रेसी एवं ग़ैर भाजपा यूनाइटेड फ्रंट सरकार पहले एचडी देवगौड़ा और फिर इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व में अस्तित्व में आई. ये दोनों सरकारें कुल मिलाकर 2 वर्ष तक कायम रहीं.
1998 के संसदीय चुनाव के समय भी टेक्टिकल वोटिंग की अपीलें की गईं. मुसलमानों ने देश के विभिन्न संसदीय क्षेत्रों में भाजपा के उम्मीदवारों के विरुद्ध एवं सेक्युलरिज्म का नारा देने वाली पार्टियों के हक़ में वोट दिए, बावजूद इसके भाजपा, जो 1996 में अन्य पार्टियों का समर्थन पाने में असफल रही थी, वह इस बार नेशनल डेमोके्रटिक एलाएंस (एनडीए) के अंतर्गत विभिन्न पार्टियों का समर्थन पाने में सफल हो गई. 1999 में वाजपेयी सरकार एक वोट, वह भी सैफुद्दीन सा़ेज का, न मिलने के कारण गिर गई और फिर चुनाव हुए. तब भाजपा ने वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए के अंतर्गत फिर से सरकार बनाई, जो 2004 तक चली. 2004 के संसदीय चुनाव में भी टेक्टिकल वोटिंग का सुर बजता रहा. यह वह समय था, जब दो वर्ष पूर्व गुजरात में गोधरा कांड के बाद सांप्रदायिक दंगे हुए और लोग भाजपा, विशेषकर नरेंद्र मोदी से काफी नाराज थे. 2004 के चुनाव के बाद मनमोहन सिंह की यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलाएंस (यूपीए) सरकार सत्तासीन हुई. यही स्थिति 2009 में रही और मुसलमानों ने एक बार फिर टेक्टिकल वोटिंग की. इस बार मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार पुन: सत्ता में वापस आई.
1991 में भाजपा के विरुद्ध मुसलमानों में जो वातावरण बना और उसके फलस्वरूप टेक्टिकल वोटिंग का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह 2009 के संसदीय चुनाव तक चलता रहा और विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान भी आजमाया जाता रहा. आज 23 वर्षों बाद आवश्यकता महसूस होती है कि विश्लेषण किया जाए कि टेक्टिकल वोटिंग वास्तव में कितनी प्रभावी और लाभदायक रही? सामूहिक रूप से इस अनुभव ने मुसलमानों के राजनीतिक सशक्तिकरण में क्या भूमिका निभाई? क्या साधारण मुस्लिम मतदाता मुस्लिम संगठनों एवं नुमाइंदों की टेक्टिकल वोटिंग की अपील में अब भी आकर्षण महसूस करते हैं? टैक्टिकल वोटिंग की चर्चा होते ही सबसे पहले इसके उद्देश्य की तरफ़ ध्यान जाता है. प्रश्न उठता है कि आख़िर 1991 में शुरू की गई टैक्टिकल वोटिंग का उद्देश्य क्या था. क्या यह आइडिया किस और के दिमाग़ की पैदावार था? क्या मुसलमानों का यह सामूहिक तौर पर सोचा-समझा मंसूबा था या उनकी दुखती रग पर हाथ रखकर किसी पार्टी, समूह या शख्स ने अपना उल्लू
सीधा किया?
ज़ाहिर सी बात है कि राजीव गांधी के कार्यकाल में एक फरवरी, 1986 को बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के बाद देश का वातावरण सांप्रदायिक होने लगा था और उससे दिल्ली एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्र, विशेषकर मेरठ आदि बुरी तरह प्रभावित हुए थे. यह वही समय था, जब मई 1987 में हाशिमपुरा एवं मलियाना में पुलिस दस्ते रक्षक से भक्षक बन गए, जिसके फलस्वरूप मुरादनगर (उत्तर प्रदेश) में गंगनहर के किनारे हाशिमपुरा में 41 लोगों को गोलियों से भूनकर बहते हुए पानी में फेंक दिया गया था, जिनमें से 3-4 लोग गंभीर रूप से घायल तो हुए, लेकिन बच गए और दर्दनाक इतिहास के जीवित प्रभावित ही नहीं, बल्कि गवाह भी बन गए. उस समय चौथी दुनिया (हिंदी) ने मलियाना एवं हाशिमपुरा की घटनाओं का खुलासा किया था. इस संवाददाता ने भी मुरादनगर के घटनास्थल पर सड़क और झाड़ियों में खून के धब्बे देखे थे. स्थानीय पुलिस द्वारा वहां सड़क पर लगाए गए पीले रंग के क्रॉस चिन्ह को भी कैमरे में कैद कर लिया था, जिसे चौबीस घंटे बाद मिटा दिया गया था. हमने वहां 26 घंटे तक निकटवर्ती थाने के सामने स्थित पेशाबघर में छिपे रहे और फिर मुरादनगर के प्रसिद्ध चिकित्सक स्वर्गीय हकीम जाकिर हुसैन एवं उनके स्वर्गीय पुत्र हकीम खालिद हाशमी के सहयोग से पनाह लिए बदनसीब जुल्फिकार नासिर से मिलकर उनका इंटरव्यू भी लिया था. पूर्व केंद्रीय विधि राज्यमंत्री एवं पूर्व गवर्नर मुहम्मद यूनुस सलीम और पूर्व विधि मंत्री डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने हिंडन नदी में बहती लाशों के सामने खड़े होकर इसे सरकार प्रायोजित घटना कहा था.
वास्तव में ऐसी विशेष परिस्थितियों में हिंदुत्ववादी ताकतें भी सक्रिय हो गईं एवं राम जन्मभूमि आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगा. इसी दौरान वी पी सिंह की नेशनल फ्रंट सरकार, जो भाजपा के बाहरी समर्थन पर कायम थी, उसके द्वारा समर्थन वापस लेने पर गिर गई. यह निश्चय ही बहुत नाजुक स्थिति थी, परंतु क्या ऐसे में 1991 के चुनाव के समय टैक्टिकल वोटिंग का निर्णय उचित था? नहीं, क्योंकि भाजपा को सत्ता में आने और प्रभाव डालने से रोकने के लिए यह जो रणनीति बनाई गई, इसका अब कोई लाभ होता दिखाई नहीं पड़ता. वास्तव में यह रणनीति स्वयं मुसलमानों की नहीं थी, बल्कि इसे उन पर कुछ राजनीतिक तत्वों द्वारा थोपा गया था. 1991 से लेकर अब तक जितने भी चुनाव हुए, उनमें भाजपा का कुल मिलाकर मत प्रतिशत बढ़ा और इस रणनीति के बावजूद उसने केंद्र में एनडीए के अंतर्गत छह वर्षों तक शासन किया. इस कटु सत्य को भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता कि मुस्लिम संगठन एवं विशिष्ट लोग टैक्टिकल वोटिंग का नारा लगाते और भाजपा उम्मीदवारों को पराजित करने के लिए सेक्युलरिज्म का नाम लेने वाली किसी भी पार्टी के उम्मीदवारों को सफल बनाने की अपील करते रहे, लेकिन उनका प्रभाव खुद घनी मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों, चाहे वे संसदीय हों या विधानसभाई, में कहीं भी नहीं पड़ा. वे इस मामले में बेबस थे कि उन क्षेत्रों में विभिन्न पार्टियों के मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतरने से रोक सकें, जिसके फलस्वरूप घनी मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों से भाजपा के उम्मीदवार क़ाबिले ज़िक्र संख्या में कामयाब हुए और यह सिलसिला अभी भी जारी है.
थिंक टैंक इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज़ (आईओएस) के अध्यक्ष एवं अर्थशास्त्री डॉ. मंजूर आलम कहते हैं कि भारतीय संविधान की रक्षा के लिए टैक्टिकल वोटिंग बहुत आवश्यक है, क्योंकि फासीवादी एवं सांप्रदायिक तत्वों के उभार के कारण राष्ट्र का भविष्य ख़तरे में पड़ गया है. अगर ऐसा नहीं किया जाता है, तो इन तत्वों का प्रभाव और अधिक बढ़ेगा. सेक्युलरिज्म का नाम लेने वाली पार्टियों के उम्मीदवारों को सफल बनाने का आइडिया जारी रहना चाहिए. घनी मुस्लिम आबादी वाले किसी क्षेत्र में एक साथ कई मुस्लिम उम्मीदवार खड़े होने को वह सेक्युलर वोट में विभाजन तो मानते हैं, मगर यह कैसे रुके, इसकी उनके पास कोई स्पष्ट योजना नहीं है. शायद यह विभाजन तभी रुक सकता है, जब मुस्लिम समुदाय के विभिन्न विचारों के लोग एवं संगठन विभिन्न पार्टियों के मुस्लिम उम्मीदवारों एवं स्वतंत्र मुस्लिम उम्मीदवारों के बजाय किसी एक मुस्लिम उम्मीदवार पर सहमत हो जाएं, जो इस समय संभव नहीं दिखाई पड़ता, क्योंकि अपनी उम्मीदवारी की वापसी का निर्णय कोई उम्मीदवार स्वयं नहीं कर सकता, वह तो अपनी पार्टी के निर्णय का पाबंद होता है. अन्य मुस्लिम संगठनों एवं लोगों का कमोबेश यही हाल है. सबके सब टेक्टिकल वोटिंग के जाल से बाहर निकलने की स्थिति में हरगिज़ नहीं हैं. शायद इसलिए, क्योंकि इनमें से अधिकतर की राजनीतिक पार्टियों में किसी न किसी से निकटता, वफ़ादारी, यहां तक कि कमिटमेंट भी है. ये देश भर में भाजपा और उसकी समर्थक पार्टियों को पराजित करने के नाम पर शेष तमाम पार्टियों को ऑब्लाइज करके अपने-अपने स्वार्थ साधते हैं. टैक्टिकल वोटिंग का असल निशाना तो शुरू में लालकृष्ण आडवाणी एवं भाजपा थे, लेकिन 2002 में गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद नरेंद्र मोदी और भाजपा हो गए. वाजपेयी के रहते आडवाणी तो प्रधानमंत्री नहीं बन सके, लेकिन इसमें मुसलमानों की टैक्टिकल वोटिंग की कोई भूमिका नहीं थी और अब मोदी के प्रधानमंत्री बनने या न बनने में भी कोई भूमिका नहीं होगी.
आज मुस्लिम समुदाय टूट-फूट का शिकार है. चौथी दुनिया उर्दू (17-23 फरवरी, 2014 के अंक) में मुस्लिम नेतृत्व: राष्ट्र प्रेम से प्रेरित, मगर टूट-फूट का शिकार शीर्षक से प्रकाशित विश्लेषण से इसे समझा जा सकता है. जाहिर है कि इस स्थिति में वे एकमत होकर कैसे कोई निर्णय ले सकते हैं? क्या यह उचित नहीं होता कि टैक्टिकल वोटिंग का नारा देने के बजाय मुस्लिम समुदाय अपने बुनियादी मुद्दों एवं एजेंडे पर गंभीर होता और फिर यह मांग करता कि जो पार्टी उसके एजेंडे पर जितना अधिक अमल करेगी, मुसलमानों का वोट सामूहिक रूप से उसी को जाएगा. यह अचंभे की बात है कि टैक्टिकल वोटिंग ने मुसलमानों को ठोस एजेंडे एवं बुनियादी मुद्दों के बजाय मात्र भाजपा उम्मीदवारों को पराजित करने के लक्ष्य पर केंद्रित कर दिया और उन्हें कोई सफलता भी हाथ नहीं लगी.
सच्चर समिति ने अपनी रिपोर्ट में चुनावी परिसीमन जनसंख्या के लिहाज़ से करने की सिफारिश की है, लेकिन विडंबना यह है कि आम तौर पर चुनाव पूर्व किसी क्षेत्र का परिसीमन करके उसे आरक्षित कर दिया जाता है और जनता को उस निर्णय की जानकारी बाद में अचानक मिलती है. 5 दिसंबर, 2013 को राष्ट्रीय चुनाव आयोग ने एक विज्ञप्ति द्वारा बताया कि उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड के अलग हो जाने के बाद से इन राज्यों के ढांचे में आवश्यक परिवर्तन नहीं किया जा सका था, जो अब किया जा रहा है. आयोग ने अपने प्रस्ताव में यह भी शामिल किया कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दिया जाए. ज़ाहिर है कि अगर 43 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या वाला सहारनपुर आरक्षित क्षेत्र बन जाता, तो उत्तर प्रदेश विधानसभा में मुसलमानों के लिए अपनी पसंद का एक और प्रतिनिधि भेजने का अवसर समाप्त हो जाता, लेकिन मुस्लिम संगठन ज़कात फाउंडेशन ऑफ इंडिया के परिसीमन विभाग द्वारा समय पर कार्रवाई से यह ख़तरा टल गया. संगठन के अध्यक्ष डॉ. सैयद ज़फ़र महमूद ने चौथी दुनिया को बताया कि उनके इस विभाग की पिटीशन के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त ने सहारनपुर का दौरा किया, जहां उन्हें बताया गया कि उत्तर प्रदेश में कौन-कौन से चुनाव क्षेत्र अनुसूचित जाति की जनसंख्या सबसे ज़्यादा होने के कारण आरक्षित किए जा सकते हैं, जबकि सहारनपुर में घनी मुस्लिम आबादी है. लोगों की दलील से चुनाव आयोग संतुष्ट हो गया और उसकी नई विज्ञप्ति में लिखा गया कि उसने सहारनपुर को आरक्षित करने का प्रस्ताव किया था, लेकिन इस संबंध में आईं आपत्तियों एवं दस्तावेजों की बुनियाद पर उसने अपना इरादा बदल दिया है. इस उचित समय पर हुई कार्रवाई से अंदाजा होता है कि अगर मुस्लिम संगठन एवं अन्य नेतृत्व परिसीमन से संबंधित मुद्दों पर ध्यान देते, तो यह भी मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ाने का एक प्रभावी क़दम होता. इसके अलावा कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान दिया जा सकता है, लेकिन दु:ख की बात यह है कि इन संगठनों एवं लोगों में से अधिकतर को इन सबसे कोई मतलब नहीं है. इनका तो मात्र यह शग़ल हो गया है कि किसी भी घटना या मुद्दे पर प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दें, इस नेक काम में एक-दूसरे से बाज़ी मार ले जाएं और फिर उर्दू समाचारपत्रों में इसे प्रकाशित कराने की कोशिश करें. वर्षों से यही हो रहा है. उर्दू समाचारपत्र किसी भाषा के शायद अकेले समाचारपत्र हैं, जिनमें ऐसी विज्ञप्तियां ज्यों की त्यों प्रकाशित हो जाती हैं. यदि मुस्लिम समुदाय को स्वयं का विकास और सशक्तिकरण करना है, तो उसे टैक्टिकल वोटिंग के इस खेल से बाहर निकल कर एक ध्येयपूर्ण समुदाय बनना और व्यवहारिक रूप से सक्रिय होना पड़ेगा, तभी मुस्लिम सांसदों की संख्या उनकी आबादी के अनुपात के अनुरूप हो पाएगी. स्मरण रहे कि 1952 से लेकर अब तक मुस्लिम सांसदों की सबसे अधिक संख्या 1980 में 49 से आगे नहीं बढ़ पाई है.
…और घटता गया मुसलमानों का असर
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