विपक्षी एकता की राह में एक बड़ी बाधा प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी भी है. कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद दावेदार हैं, लेकिन जो अन्य विपक्षी दल हैं, उनके इरादे कुछ और हैं. दरअसल, विपक्ष में ऐसे कई नेता हैं, जो इस पद की महत्वाकांक्षा रखते हैं. इसलिए अभी तक किसी ने भी राहुल गांधी के नाम पर अपनी सहमति नहीं दिखाई है. जबकि इसके उलट दक्षिण भारत के दो नेताओं के चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडू ने तीसरे मोर्चे की बात कह दी हैं. हालांकि बंगलुरू में कांग्रेस-जनता दल (एस) सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में देश के लगभग सभी विपक्षी दलों के नेता स्टेज पर मौजूद थे, लेकिन उनकी मौजूदगी भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की ज़मानत नहीं दे सकती.

upकर्नाटक विधान सभा और देश के अन्य हिस्सों से आये हालिया उपचुनावों के नतीजों के बाद देश में विपक्षी एकता और गठबंधन की क़वायद तेज़ हो गई है. कर्नाटक में त्रिशंकु विधान सभा ने कांग्रेस और जनता दल (एस) को एक साथ आने पर मजबूर कर दिया, वहीं उत्तर प्रदेश के कैराना लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस-सपा-बसपा समर्थित राष्ट्रीय लोक दल की उम्मीदवार की जीत ने एक बार फिर यह साबित किया कि यदि यहां विपक्ष एक साथ मिलकर चुनाव लड़ता है, तो 2019 में भाजपा को एक बड़ी चुनौती दे सकता है. बहरहाल, इन चुनावी नतीजों के बाद देश में एक व्यापक विपक्षी गठबंधन बनाने की कवायद तेज़ हो गई है. आईए इस गठबंधन की संभावनाओं पर एक नज़र डालते हैं.

उत्तर प्रदेश: 2019 के आगे भी खेल है

सबसे पहले बात देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की, जहां लोकसभा की 80 सीटें हैं. पिछले लोक सभा चुनाव में भाजपा की भारी जीत में इस राज्य का बड़ा हाथ था. यहां उसे लोक सभा की 71 सीटें मिली थीं. वहीं विपक्ष केवल सात सीटों पर सिमट गया था. लेकिन जिस विपक्षी एकता की बात की जा रही है, उसके लिए ये आंकड़े कुछ और नतीजे पेश करते हैं. दरअसल, यहां भाजपा को कुल 42.30 प्रतिशत वोट मिले थे और उसके सहयोगी अपना दल को 1 प्रतिशत. वहीं सपा को 22.20 प्रतिशत, बसपा को 19.60 प्रतिशत और कांग्रेस को 7.50 प्रतिशत वोट मिले थे. यदि कांग्रेस-सपा-बसपा के वोटों को मिला लिया जाए तो ये 49.3 प्रतिशत हो जाता है. इस समीकरण को देखने के बाद बताने की को आवश्यकता नहीं है कि यदि यह गठबंधन हो जाता है तो उसके नतीजे क्या होंगे.

बहरहाल, राज्य में हर विपक्षी पार्टी की अपनी-अपनी मजबूरियां हैं, लेकिन सभी अपने पत्ते सावधानी से खोल रहे हैं. जहां एक तरह अखिलेश यादव ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि 2019 में बसपा के साथ महागठबंधन के लिए वो कुछ सीटों की कुर्बानी भी दे सकते हैं, वहीं दूसरी तरफ मायावती का बयान आया कि महागठबंधन उसी सूरत में होगा जब उन्हें पर्याप्त सीटें मिलेंगी. महागठबंधन की तीसरी कड़ी के रूप में मौजूद कांग्रेस और रालोद भी अधिक से अधिक सीटें हासिल करने की फिराक में हैं. लेकिन इस जोड़-तोड़ में पार्टियों की नजर केवल 2019 ही नहीं, बल्कि 2022 पर भी है.

हालांकि कांग्रेस हर हाल में इस गठबंधन में शामिल होना चाहती है, लेकिन उसकी नज़र सपा से अधिक बसपा पर है. क्योंकि कांग्रेस को बसपा का साथ केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बल्कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी चाहिए. बसपा एक ऐसी पार्टी है, जिसका वोट देश के कई राज्यों में है. मिसाल के तौर पर यदि मध्य प्रदेश के चुनावी आंकड़ों पर नज़र डालें तो पता चलेगा कि यहां बसपा जबसे चुनाव लड़ रही है, उसका वोट 6 से 7 प्रतिशत के आसपास रहा है. यदि ये वोट कांग्रेस को मिल जाते हैं, तो ज़ाहिर है कि मध्य प्रदेश में पिछले 15 साल से सत्ता की बाट जोह रही कांग्रेस के लिए सत्ता तक पहुंचने का रास्ता आसान हो जाएगा और बसपा को भी अपना जनाधार बढ़ाने का मौक़ा मिल जाएगा.

लेकिन खेल सिर्फ इतना ही नहीं है. यह बात भाजपा को भी भलीभांति मालूम है कि यदि प्रदेश में महागठबंधन बना तो 2019 में उसकी राहें बहुत कठिन हो जाएंगी. लिहाज़ा, भाजपा इस खेल को बिगाड़ने की हर मुमकिन कोशिश करेगी. 21 मई से 27 मई 2018 के चौथी दुनिया के अंक में हमारे वरिष्ठ सहयोगी प्रभात रंजन दीन ने अपनी स्टोरी -सौदेबाजी से नहीं तो सीबीआई से मानेगी मायावती- में बताया है कि कैसे सौदेबाज़ी की तमाम कोशिशों के विफल हो जाने के बाद राज्य में भाजपा सरकार ने चीनी मिल घोटाले की जांच सीबीआई से शुरू करा दी है. बहरहाल, अभी चुनावी प्रक्रिया शुरू होने में 7-8 महीने बाक़ी हैं. राज्य में रोजाना बदलते घटनाक्रम में 8 महीने का समय एक लम्बा समय है और राज्य की सियासत अभी और भी करवटें ले सकती हैं.

मांझी के बाद कुशवाहा पर नज़र

आज देश में भाजपा के खिलाफ जिस महागठबंधन की बात चल रही है, उसका कामयाब प्रयोग सबसे पहले बिहार में हुआ था. दो राजनैतिक चिर-प्रतिद्वंदी नीतीश कुमार और लालू यादव एक साथ मिले थे और नरेन्द्र मोदी के विजय रथ को कामयाबी से रोका था. हालांकि, अब वो गठबंधन टूट चुका है और नीतीश सत्ताधारी एनडीए गठबंधन में शामिल हो चुके हैं. उनके एनडीए में जाने के बाद एक बार फिर राज्य में एनडीए के घटक दलों का आंतरिक संतुलन बिगड़ गया है. खास तौर पर लोक सभा चुनाव के मद्देनज़र, क्योंकि राज्य के 40 लोक सभा सीटों में से एनडीए के 31 संसद हैं और यदि भाजपा नीतीश को 10 से अधिक सीटें देती है तो उसे अपने या अपने सहयोगी दलों के कई वर्तमान सांसदों का पत्ता काटना पड़ेगा. इसलिए एनडीए की बेचैनी सबको नज़र आ रही है.

एनडीए की इस रस्साकशी में राजद अपना गठबंधन मज़बूत करने में लगी है. जीतनराम मांझी के बाद उसकी नज़र अब उपेन्द्र कुशवाहा पर है. बिहार में राजद विधायक दल के नेता और लालू यादव के  राजनैतिक उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव ने सार्वजनिक रूप से कुशवाहा से एनडीए छोड़ महागठबंधन में शामिल होने का निमंत्रण दे चुके हैं. फ़िलहाल कुशवाहा एनडीए में अपनी दबाव की राजनीति कर रहे हैं और अभी तक पिछले दरवाज़े का खेल खेल रहे हैं. वहीं एनडीए में नीतीश कुमार की वो हैसियत नहीं है, जो पहले थी. इसलिए वो अब अपनी शर्तों पर एनडीए से सीटों का तालमेल करने में समर्थ नहीं हैं. लेकिन उन्हें दबाव बनाने का एक मौक़ा मिल गया है, क्योंकि पटना के  राजनीतिक हलको में यह भी चर्चा गर्म है कि कांग्रेस नीतीश कुमार को महागठबंधन में वापस लाने की कोशिश में जुटी हुई है.

दरअसल, राज्य में राजद ने अपना पुराना दलित-मुस्लिम जनाधार लगभग सुरक्षित कर लिया है. मांझी के साथ आ जाने से महादलित वोट पर उसका दावा मज़बूत हो गया है. वहीं राज्य में बसपा का भी एक दलित वोट बैंक है, जिस पर राजद की नज़र है. गौरतलब है कि राजद द्वारा मायावती को राज्य सभा सीट का ऑफर करने का कारण भी वही वोट था. राजद फ़िलहाल इस गणित में जुटी हुई है कि यदि कुशवाहा जैसा नेता उसके गठबंधन में आ जाता है तो वह चुनावी वैतरणी आसानी से पार कर जाएगी. दरअसल उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भी अगले 7-8 महीने तक गठबंधन की राजनीति तेज़ रहेगी, लेकिन सबकी नज़रें कुशवाहा और नीतीश पर ही टिकी रहेंगी.

अन्य राज्यों में क्या होगा

जहां तक अन्य राज्यों का सम्बन्ध है तो तमिलनाडू में पिछला विधान सभा चुनाव कांग्रेस और डीएमके ने मिलकर लड़ा था. रजनीकांत और कमल हासन के राजनीति में आने के बाद और एआईएडीएमके की भाजपा से नजदीकियों को देखते हुए लगता है कि यह गठबंधन लोकसभा चुनाव में भी जारी रहेगा. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी बहुत मज़बूत हैं, इसलिए वो शायद ही राज्य में किसी गठबंधन का हिस्सा बने. लेकिन चुनाव बाद राजनीति में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है.

गठबन्धन को लेकर टीआरएस और टीडीपी ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं. महाराष्ट्र में पिछले विधान सभा चुनावों में एनसीपी और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था. लेकिन 2019 में इनका गठबंधन लगभग तय है. जहां तक भाजपा-शिव सेना का सवाल है, तो फ़िलहाल उनके रिश्ते ठीक नहीं हैं. लेकिन यदि कांग्रेस और एनसीपी का गठबंधन होता है तो भाजपा और शिव सेना को भी साथ आना पड़ सकता है.

प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी का पेंच 

विपक्षी एकता की राह में एक बड़ी बाधा प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी भी है. कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद दावेदार हैं, लेकिन जो अन्य विपक्षी दल हैं, उनके इरादे कुछ और हैं. दरअसल, विपक्ष में ऐसे कई नेता हैं, जो इस पद की महत्वाकांक्षा रखते हैं. इसलिए अभी तक किसी ने भी राहुल गांधी के नाम पर अपनी सहमति नहीं दिखाई है. जबकि इसके उलट दक्षिण भारत के दो नेताओं के चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडू ने तीसरे मोर्चे की बात कह दी हैं.

हालांकि बंगलौर में कांग्रेस-जनता दल (एस) सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में देश के लगभग सभी विपक्षी दलों के नेता स्टेज पर मौजूद थे, लेकिन उनकी मौजूदगी भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की ज़मानत नहीं दे सकती. मायावती, ममता बनर्जी, बीजू पटनायक जैसे कई नेता हैं, जिनकी अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं. दूसरी तरफ, राहुल गांधी खुद को मोदी को टक्कर देने वाले नेता के रूप में स्थापित नहीं कर पाए हैं. लिहाज़ा, यदि कोई विपक्षी गठबंधन बनता है तो बिना किसी को नेता घोषित किए हुए ही चुनाव लड़ेगा और चुनाव बाद भी गठबंधन की संभावनाएं बनी रहेंगी.

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