बड़ा क्षुब्ध करने वाला परिदृश्य है। पूरा देश ऑपरेशन ऑक्सीजन में जुटा हुआ है। मानो हम अपने ही प्राण बचाने में लगे है। मगर अफसोस कि यह काम भी प्राण पण से नहीं हो रहा। लोगों की टूटती सांसों के बीच भी राजनीति का खेला बेशरमी से जारी है तो इस गमगीन माहौल में आईपीएल में मारे जाने वाले हर चौके छक्के पर तालियां बजाने और इससे होने वाली कमाई को अपरिहार्य मानने वाली बीसीसीआई और उन खिलाडि़यों की भी बलिहारी, जिनमें से कई के नाते रिश्तेदार कोविड से जूझ रहे हैं। गजब दुस्साहस उन साधु-संतों का भी, जो अभी भी कुंभ का आखिरी स्नान करने के बाद ही वहां से हिलने वाले हैं। जबकि हरिद्वार में कोरोना संक्रमित तेजी से बढ़ रहे हैं। लानत देश के उन अमीरों पर भी जो ऑक्सीजन की किल्लत से घबराकर खुद को बचाने विदेश भाग गए हैं या भागने की फिराक में हैं।

उधर दुनिया के बाकी देश ‘विश्व शक्ति’ बनने का ख्वााब देखने वाले भारत की ‘हकीकत’ देखकर हैरान हैं तो चीन जैसे देश इसके मजे भी ले रहे हैं। यह सोच कर कि ये लोग हमसे क्या खाकर मुकाबला करेंगे। हालांकि और कई देशों ने मानवता के आधार पर भारत को ऑक्सीजन मुहैया कराना शुरू कर दिया है। ऑक्सीजन कंसंट्रेटर भी अमेरिका सहित कुछ देश दे रहे हैं। यहां कि खस्ताहाल पाकिस्तान तक ने हमारी बेहाली पर तरस खाकर मदद की पेशकश कर डाली है।
कोई इसे कितना ही झुठलाने की कोशिश करे लेकिन पूरी दुनिया में संदेश जा चुका है कि हम कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें करें लेकिन आड़े वक्त में अपने नागरिकों को पर्याप्त जीवनरूपी ऑक्सीजन और अस्पताल तक मुहैया करने की स्थिति में नहीं है। बीते बरस डोनाल्ड ट्रंप के राज में हम अमेरिका पर हंस रहे थे कि इतना प्रगत राष्ट्र होने के बाद भी उनका हेल्थ सिस्टम चरामरा गया है।

न्यूयाॅर्क जैसे शहरों में सड़कों और बगीचों पर लोगों का इलाज करना पड़ा रहा है। लेकिन अमेरिका ने उस बदहाली पर जल्द काबू पा लिया और कोरोना के अगले हमले से मुकाबले की भी तैयारी भी कर ली। चीन, जिसे सारी दुनिया ‘कोरोना का जनक’ मानती है, वहां वुहान में कोरोना से हुई बड़ी तादाद में मौतों के बाद मानो कोरोना ने मानो चीन छोड़कर बाकी देशों में डेरा जमा लिया है। चीन से कोरोना संक्रमण की खबरें नहीं के बराबर आ रही हैं ( हो सकता है छुपाई भी जा रही हों, जैसा कि अब हमारे यहां भी करने की कोशिश की जा रही है)।

दूसरा दृश्य वो है, जिसमें आज समूचा भारत हालात बिगड़ने के बाद ही सही, सिर्फ और सिर्फ ‘ऑपरेशन ऑक्सीजन ’ में जुटा हुआ है। हम अपनी ही सांसें बचाने में लगे हैं। इस बीच देश में कोरोना से मौतों का आंकड़ा रोजाना ढाई हजार को पार कर चुका है, इनमें से कितने लोग केवल ऑक्सीजन वक्त पर न मिल सकने के कारण मरे हैं, इसका अलग से आंकड़ा नहीं है। लेकिन यह संख्या कम से कम आधी तो होगी ही। अच्छी बात यह है कि देश के तमाम बड़े प्लांटों ने युद्ध स्तर पर ऑक्सीजन बनाना शुरू कर दिया है। वायु सेना खाली टैंकरों को तुरंत प्लांट तक पहुंचा रही है। रेलवे वैगनों पर टैंकर लाद कर गंतव्य तक पहुंचा रही है। कई टैंकर वालों ने ऑक्सीजन के स्वैच्छिक सेवाएं देने की पहल की है। सामाजिक संस्थाएं और लोग अपने स्तर भी ज्यादा से ज्यादा ऑक्सीजन सिलेंडर मुहैया कराने की कोशिश कर रहे हैं। ‘ ऑक्सीजन फर्स्ट’ के आधार पर विदेशों से आयात में छूट और उसे करमुक्त भी कर दिया गया है। फायर फाइटिंग जारी है। कुछ राज्यों ने राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के बाद भी ऑक्सीजन के मामले में परस्पर सहयोग शुरू कर दिया है।

सरकार के भरोसे रहने के बजाए लोग खुद एक दूसरे की मदद कर इंसानियत की मशाल जलाएं हुए हैं। इन सबके बावजूद अभी भी रोजाना सैंकड़ों मरीज ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ रहे हैं। ज्यादातर अस्पतालों में अभी भी जरूरत से कम ऑक्सीजन पहुंच पा रही है। कई लोग तो परिजनों की गोद में ही अंतिम सांसें ले रहे हैं, क्योंकि उन्हें तमाम कोशिशों के बाद भी न बेड मिला, न वेंटीलेटर और न ही ऑक्सीजन । यह संख्या कम होने के बजाए लगातार बढ़ती ही जा रही है, क्योंकि सप्लाई की तुलना में डिमांड कई गुना ज्यादा है। यूं सरकार ने खुद हर ज़िले में ऑक्सीजन प्लांट लगाने का ऐलान कर ‍दिया है, लेकिन कब तो प्लांट लगेगा, कब उसमें ऑक्सीजन बनेगी, कब सप्लाई होकर अस्पताल पहुंचेगी। कब वह पेशंट को मिलेगी। ये सब आगे की प्लानिंग के हिसाब से ठीक है। हालांकि इस प्लानिंग में यह शामिल है कि नहीं कि अगर कोरोना की लहर उतार पर हुई तो ये ऑक्सीजन प्लांट कितनी मेडिकल ऑक्सीजन तैयार कर उसे कहां सप्लाई करेंगे।

जाहिर है कि ‘प्लान बी’ क्या है, कोई नहीं जानता। ऐसा न हो कि जैसे पिछली लहर धीमी पड़ने के बाद जिस तरह हमने कोविड अस्पतालों पर भी ताले डाल दिए और आज हालत क्या है, हम देख रहे हैं। तब भी काम आपाधापी में हुआ, अब भी वैसा ही कुछ हो रहा है। धन्य हैं वो लोग जो इस हाल में भी दूसरों को ‘पाॅजिटिव’ रहने की सलाह देकर आत्ममुग्ध हैं। जो कोरोना ‘पाॅजिटिव’ हैं, उनसे पूछें जरा ‘पाॅजिटिव’ होने का मतलब।

उधर‍ सियासत है कि राजनेताओं का चुनावी उत्साह कमजोर नहीं हो रहा। यूपी में कोरोना मुंह फाड़ रहा है, लेकिन वहां पंचायत चुनाव बेखटके जारी हैं। हैरानी की बात तो यह है कि जब कोरोना सबको लीलने के लिए तैयार बैठा है, तब भी उत्तर प्रदेश में पंचायत प्रधान और पंच का चुनाव जीतने के लिए एक दूसरे की जान लेने में संकोच नहीं कर रहे, मानों कुर्सी मिलने पर कोरोना डर जाएगा। वही हाल बंगाल में है। बंगाल में जिस तेजी से चुनावी कोरोना फैल रहा है, उसका खमियाजा इस राज्य को 2 मई के बाद भुगतना है, फिर चाहे सरकार भाजपा की बने या तृणमूल की।

लेकिन नेताओं को चिंता 2 मई के विजयोत्सव की है। वहां एक बड़े नेता ने चुनाव के दौरान कहा भी कि कोरोना-वोरोना बाद में देखेंगे, अभी तो 2 मई को चुनाव जीतना है। आशय ये कि लोग मरते हो तो मरें उनकी बला से। पर हमे वोट देकर और हमारा राजतिलक कर के मरें। महामारियों का क्या है, वो तो आती-जाती रहती हैं, लेकिन पांच साल के लिए मिलने वाली सत्ता उस कोरोना रूपी क्रूर काल से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

इस भीषण ऑक्सीजन संकट में भी , कोरोना से किसी कीमत पर न डरने वाले, नेता, साधु और ‍खेल प्रेमियों को छोड़ दें तो आज हर तीसरे घर में कोरोना का करूण क्रंदन सुनाई पड़ रहा है। एक सुनामी समुद्र में आती है, यह तो इंसानियत के सागर में आई निष्ठुर सुनामी है, जो किसी को नहीं बख्शठ रही। मौत इतनी जल्दी आपको अपने से छीन सकती है, यह अब आश्चर्य का नहीं, बेबसी का विषय है।

देश के असल हालात क्या हैं और क्या दिखाने की कोशिश हो रही है, इसको बेनकाब करने वाला केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन के राजनीतिक अर्थशास्त्री एवं पत्रकार पति परकला प्रभाकर का वह बेबाक लेख बहुत चर्चा में है, जिसमें उन्होंने साफ कहा है कि सरकार हर मोर्चे पर नाकाम रही है। कोरोना ने खुद की पीठ थपथपाने वाले हर ढोल की पोल खोल कर रख दी है। हालांकि परकला पहले भी मोदी सरकार की आलोचना कर चुके हैं। पिछली बार अपने पति के आरोपों के जवाब में सीतारमन ने सरकार की उपलब्धियों का चिट्ठा पेश किया था।

हो सकता है कि जेएनयू का पूर्व छात्र होने के कारण प्रभाकर को भी ‘देशद्रोही’ आदि ठहरा कर खारिज कर दिया जाए या फिर प्रभाकर की टिप्पणी पर निर्मला सीतारमन की ही कुर्सी आगे-पीछे छिन जाए (प्रभाकर एक जमाने में भाजपा की आंध्र इकाई के प्रवक्ता रह चुके हैं)। यह भी मुमकिन है कि प्रभाकर को सच बोलने पर किसी मामले में फंसाकर चुप कराने की कोशिश की जाए। प्रभाकर के लेख पर भाजपा की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। संभव है कि प्रभाकर के कथन की कोई राजनीतिक काट खोजी जा रही हो, लेकिन इससे सच नहीं बदलता। मजबूरी में ही सही इस बार मीडिया सच बोलने की कोशिश तो कर रहा है। इन सब हकीकतों के बाद भी जरूरत धैर्य रखने की है। सो धीरज रखें…।

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल

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