सोचा नहीं था कि कभी जीवनरूपी ऑक्सीजन पर भी लिखना पड़ेगा। तब भी नहीं, जब केमेस्ट्री में एच2ओ का फार्मूला याद करने पर पता चलता था कि जल में ऑक्सीजन का 1 ही अणु होता है और हाइड्रोजन के 2। जब कविताएं लिखनी शुरू कीं तब भी नहीं लगा कि ऑक्सीजन भी किसी मार्मिक कविता का विषय हो सकती है। तब भी इस पर ध्यान नहीं दिया, जब पत्रकारिता में सम-सामयिक विषयों पर अपनी कलम चलाने की कोशिश की। क्योंकि ऑक्सीजन तो प्राणवायु है, जो हर जगह मौजूद है। हवा में वो होती ही है और मुफ्त में मिलती है। जीव विज्ञान में पढ़ा कि जिसे हम सांस कहते हैं, उसमें ऑक्सीजन तो 21 प्रतिशत ही होती है, बाकी 78 प्रतिशत नाइट्रोजन होती है। लेकिन उसे कोई याद नहीं रखता, क्योंकि जीवन का स्पंदन ऑक्सीजन, नाइट्रोजन नहीं।
सेहत के कारण अस्पतालों से साबका पड़ा तो पता चला कि ऑक्सीजन मास्क प्राणदायी कवच है। ऑक्सीजन न मिले तो शरीर तड़पने लगता है। ऐसी असहाय बेचैनी दमे से पीडि़त अपने भाई में भी देखी। लेकिन जब भी जरूरत होती, ऑक्सीजन मिल जाती। लड़खड़ाती सांसें फिर चलने लगतीं। जीवन की अटकती घड़ी टिकटिक करने लगती।
लेकिन ऑक्सीजन को लेकर कोई ‘युद्ध कांड’ जैसा लेख भी लिखना पड़ेगा, कल्पना नहीं की थी। कल नासिक में जो हुआ, जो दमोह में हुआ, जो भोपाल और शहडोल में हुआ, जो लखनऊ में हो रहा है या अन्य दूसरे राज्यों में स्थिति है, वह ‘ऑक्सीजन के लिए युद्ध’ जैसी है। इनमें भी महाराष्ट्र के नासिक की घटना तो इस बात का संकेत है कि इस भीषण ऑक्सीजन संकट में हमे अभी और भी बहुत कुछ देखना है।
वहां के महानगरपालिका संचालित अस्पताल में आॅक्सीजन टैंक से अचानक ऑक्सीजन रिसने लगी। प्रबंधन ने फायर ब्रिगेड को बुलाया। वो आई भी। फायरमैनो ने आधे घंटे में रिसन को रोक भी दिया। लेकिन बाकी सब यह भूल गए कि कोई बैक अप न होने से रिसन के कारण गंभीर मरीजों को एक मिनट के लिए भी ऑक्सीजन की सप्लाई रूकने का मतलब मौत है। वही हुआ भी, जब तक टैंक की रिसन बंद हुई, तब तक 22 जानें रिस चुकी थीं। किसी के यह ध्यान में नहीं आया कि रिसन के कारण सांसों की सप्लाई बंद हुई तो उसका विकल्प क्या होगा? ऐसी स्थिति किसी भी अस्पताल में बन सकती है। उस स्थिति में वैकल्पिक व्यवस्था क्या है? राज्य सरकार ने इस हादसे की जांच की घोषणा की है। जांच रिपोर्ट भी आएगी। लेकिन जो 22 सांसें हमेशा के लिए रूक गईं, उनका जिम्मेदार कौन होगा, यह शायद हमे कभी पता नहीं चलेगा।
हालत यह है कि ऑक्सीजन की कमी के कारण अब कई गंभीर कोविड पेशंट वक्त से पहले ही अपनी सांसों का हिसाब ऊपर वाले को देने पर मजबूर हैं। मप्र के शहडोल और भोपाल में करीब दो दर्जन मरीज ऑक्सीजन खत्म हो जाने से बीच इलाज ही चल बसे। क्योंकि दवा की देरी तो कुछ देर झेली भी जा सकती है, सांसों की देरी तो पलभर भी नहीं चलती। सांस रूकी और खेल खत्म।हमने लूट के कई किस्से सुने और देखे हैं। कहते हैं जर, जमीन और जोरू की धुरी पर अपराध की दुनिया घूमती है। लेकिन इस देश में कभी ऑक्सीजन की लूट-खसोट भी होगी, यह तो भारतीय दंड विधान बनाने वालों ने भी नहीं सोचा होगा। पुलिस ऑक्सीजन की लूट पर कौन सी धारा लगाती है, पता नहीं, लेकिन इसे हत्या या हत्या के प्रयास से कदापि कम नहीं होना चाहिए। क्योंकि यह मनुष्य के साथ मानवता की भी हत्या है। उफ्, लोग अब ऑक्सीजन के सिलेंडर भी लूट ले जा रहे हैं। दमोह के सरकारी मेडिकल काॅलेज में यही देखने को मिला। क्योंकि लोगों का व्य वस्था पर से भरोसा उठ चुका है। एक ठो ऑक्सीजन सिलेंडर हासिल करने के लिए लोग पूरी ताकत झोंक रहे हैं, क्योंकि परिजन की सांस को आखिरी दम तक बचाना है। लखनऊ में लोग लाठी के दम पर ऑक्सीजन सिलेंडर हथियाते दिखे।
क्या पता कौन छीन ले जाए। लूट का यह अध्याय शायद पुलिस और न्याय व्यवस्था के लिए भी नया है। ऑक्सीजन सिलेंडरों की इस लूट ने रसोई गैस सिलेंडरों की चोरी और काला बाजारी को तो बहुत बौना बना दिया है। और तो और अब तो एक ही गणराज्य के राज्यों के बीच ‘ऑक्सीजन वाॅर’ सी छिड़ी हुई है। एक राज्य दूसरे की ऑक्सीजन रोक लेता है। दूसरे के टैंकर अपने घर में डलवा लेता है। जब्त ऑक्सीजन टैंकर छुड़वाने के लिए एक मुख्यमंत्री को जोर लगाना पड़ता है। यानी मेरे राज्य के लोगों की सांसें तेरे राज्य के लोगों की सांसों से ज्यादा कीमती हैं। लगता है पूरी इंसानियत ही आक्सीजनशून्य हो गई है।
फ्लैशबैक में चलें तो जीवन के 6 दशकों में कई संकट देखे। बचपन में राशन का संकट देखा था। प्रति व्यक्ति महज चार सौ ग्राम के हिसाब से मिलने वाली शकर के लिए राशन की लाइन में घंटों खड़ा रहना देखा था। लकड़ी के कोयले से रसोई गैस पर शिफ्टे होने के बाद सिलेंडर मिलने की परेशानी को भी खूब अनुभव किया था। एक अदद स्कूटर का नंबर लगाने के बाद पांच साल बाद उस स्कूटर की डिलीवरी की खुशी भी देखी थी। टेलीफोन ( लैंडलाइन) का नंबर लगाने के तीन साल बाद घर में फोन की घंटी पहली बार बजने का सुख भी महसूसा था।
लेकिन कभी आॅक्सीजन सिलेंडर के लिए भी जी-जान लगानी पड़ेगी, यह मंजर पहली बार देखा। इस ऑक्सीजन संकट को रचनाकार किस निगाह से देख रहे हैं ? कथा, कविता और चित्रों में यह समय किस रूप में दर्ज होगा पता नहीं, लेकिन अगर सौंदर्य बोध की दृष्टि से देखे तो ऑक्सीजन के सिलेंडर उतने खूबसूरत भी नहीं होते, जितने रसोई गैस के होते हैं। ऑक्सीजन गैस सिलेंडरों का रंग रूप देखकर आपको शायद ही कभी उन्हें उठाने का मन करे। लोहे के इन बेलनाकार सिलेंडरों पर कोई रंग-रोगन भी नहीं करता। वो कहीं भी पड़े रहते हैं। लेकिन उनमें और रसोई गैस सिलेंडर में बुनियादी फर्क होता है। एक में ऊर्जा तो दूसरे में प्राण बसते हैं।
फिर वही कड़वा सवाल कि आखिर टूटती सांसों को तत्काल ऑक्सीजन का सहारा देने की जि्म्मेदारी किसकी है? क्या हमे अपनी ऑक्सीजन का इंतजाम भी खुद ही करना है? और जब सब खुद ही करना है तो ये व्यवस्था?एं, ये तामझाम, ये लवाजमे किस लिए हैं? हालात जिस सतह तक जा पहुंचे हैं, उससे तो लगता है कि कल को हमे यह भी कहा जा सकता है कि चूंकि आपने इस देश में जन्म लिया है, इसलिए अपनी सांसों का हिसाब खुद रखें। अपना ऑक्सीजन सिलेंडर भी साथ लेकर चलें।
अगर आप ऑक्सीजन में आत्मनिर्भर न हुए तो अपनी या आपके परिजन की मौत के लिए आप ही जिम्मेदार होंगे। किस्सा खत्म। रही बात ऑक्सीजन के जुगाड़ की तो वो आ रही है। आके रहेगी। थोड़ी ठंड रखें। उसके आने तक जिनकी सांसें बाकी रहेंगी, उन्हें वह मिल ही जाएगी। लेकिन जिनके भाग में सांसों का ‘गिलोटिन’ होना लिखा है, उनके लिए सरकार और सिस्टम क्या कर सकता है? अलबत्ता टूट चुकी सांसों का रिएम्बर्समेंट अगर परलोक में हो सके तो जरूर कराएं, क्योंकि यहां तो ऑक्सीजन स्टाॅक रजिस्टर का ‘दि एंड’ हो चुका है….!
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल