कोरोना वायरस को आप लाख गाली दें कि उसने हम सब का जीना हराम कर दिया है, लेकिन एक बात की तारीफ करनी होगी कि कोरोना अमीरों के मुकाबले गरीबो के प्रति कुछ ज्यादा ‘रहमदिल’ है। यही नहीं अपने देश के जिन इलाकों में न साफ पानी है, न शुद्ध हवा है और न ही समुचित साफ सफाई है, वहां के बाशिंदे कोरोना से दो दो हाथ ज्यादा ताकत से कर पा रहे हैं, बजाए उन इलाकों के जहां सब ‘गुडी-गुडी’ है। विपरीत हालातों के कारण इन अभागों के शरीर में महामारी से लड़ने के लिए जरूरी प्रतिरोधक क्षमता ( इम्युनिटी) अमीर और तुलनात्मक रूप से बहुत पाॅश इलाकों में रहने वालो से कहीं ज्यादा है। और यह महज संयोग या ‘ईश्वरीय न्याय’नहीं है। यह भारत की शीर्ष वैज्ञानिक संस्था सीएसआईआर (सेंटर फॉर साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च) के वैज्ञानिको द्वारा किए गए ताजा शोध का निष्कर्ष है। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में बताया कि देश के गरीब और पिछड़े राज्य अपेक्षाकृत ज्यादा विकसित और सम्पन्न राज्यों के मुकाबले कोविड 19 से कम प्रभावित रहे हैं।
बहुतों को यह शोध चौंकाने वाला लग सकता है, क्योंकि अब तक हम यही मानते आए हैं कि साफ सफाई, गंदगी से दो हाथ दूरी, आरअो और मिनरल वाटर पीना, चकाचक रहना ही इस बात की गारंटी है कि कोरोना तो क्या, कोई-सी भी बीमारी आपके पास फटकने में दस बार सोचेगी। कुछ लोगों में बीमारी से बचाव का यह डर अथवा हाईजीन मेनिया इस कदर हावी हो जाता है कि वो बात-बेबात खुद को सेनिटाइज करते रहते हैं, साबुन से हाथ धोते रहते हैं। इस जुनून में खुद प्रकृति से मीलों दूर चले जाते हैं।
बहरहाल, सीएसआईआर के वैज्ञानिको ने जो अवलोकन दिए हैं, उसके पीछे कुछ ठोस कारण हैं। इस शोध के मुताबिक कम आमदनी वाले देशों और वर्गों में परजीवी एवं बैक्टीरियाजनित बीमारियों से लड़ने की क्षमता विकसित हो जाती है। उनके भीतर नैसर्गिक रूप से एक इम्यून सिस्टम तैयार हो जाता है, जो भविष्य में व्यक्ति को दूसरी बीमारियों से लड़ने के लिए तैयार करता है। विज्ञान की भाषा में इसे इम्यून हाइपोथिसिस ( प्रतिरोधक परिकल्पना ) कहते हैं। ये अपने आप में यह एक लंबी प्रक्रिया है, जो एक ‘प्रतिरोधक प्रशिक्षण ‘की तरह है।
शोध के मुताबिक भारत की ही बात करें तो देश के बिहार, झारखंड, केरल और असम जैसे अपेक्षाकृत गरीब और ज्यादा आबादी वाले राज्यों में कोरोना से मृत्यु दर कम रही है, जबकि देश की आर्थिक राजधानी और औद्योगिक दृष्टि सर्वाधिक विकसित राज्य महाराष्ट्र में कोविड 19 से मौतों और संक्रमितों की संख्या सबसे ज्यादा है। कुछ ऐसी ही स्थिति गुजरात और पंजाब की भी है। अगर साफ-सफाई की बात करें तो इस क्रम में बिहार का नंबर शायद सबसे नीचे लगेगा। क्योंकि इस साल के स्वच्छता सर्वेक्षण में सबसे गंदे शहरों की सूची में पटना का नाम सबसे ऊपर था और जो राजनीतिक आलोचना का कारण भी बना। लेकिन उसी बिहार में महाराष्ट्र के मुकाबले कोरोना मौतों और संक्रमितों की संख्या काफी कम है।
वैज्ञानिको ने इसे केस फेटेलिटी रेश्यो (सीएसआर) यानी केस मृत्यु अनुपात से समझाया। यानी आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े बिहार में कोरोना के कारण औसत मृत्यु दर मात्र 0.5 फीसदी है। यह देश में कोरोना से औसत मृत्यु दर 1.5 प्रतिशत का मात्र तीसरा हिस्सा है। जबकि महाराष्ट्र, गुजरात और पंजाब जैसे प्रगत राज्यों में मृत्यु दर 2 फीसदी या इससे अधिक रही है। वैज्ञानिकों के मुताबिक यह रिसर्च पानी की क्वालिटी, साफ-सफाई का स्तर और प्रति 10 लाख कोरोना पीड़ितों की मौत के आंकड़े के आधार पर की गई है। गौरतलब यह है कि यह शोध निष्कर्ष विश्व स्वास्थ्य संगठन की उस चेतावनी के ठीक विपरीत है, जिसमें भारत की स्वास्थ्य सेवाओं की आलोचना करते हुए कहा गया था कि हमारे यहां करोड़ों लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है, वो अस्वच्छ खाना खाते हैं, अशुद्ध हवा में सांस लेते हैं और बहुत ही तंग बस्तियों में रहते हैं। ये स्थितियां असंक्रामक रोगों जैसे ह्रदय रोग, श्वसन रोग, कैंसर और डाइबिटीज जैसी बीमारियों का कारण बनती है। इन रोगों से हर साल में 10 लाख से ज्यादा लोगों की अकाल मौत होती है ( जबकि अकेले कोरोना से देश में बीते आठ माह में सवा लाख लोगों की मौत हुई है)। डब्लूएचओ ने इस बात की फिर ताकीद की कि कोविड 19 से बचाव के लिए स्वच्छता निहायत जरूरी है। यह निष्कर्ष डब्लूएचओ और यूनीसेफ के शोध अध्ययन का है।
यहां सवाल उठता है कि क्या स्वच्छता के पैमाने कोविड 19 जैसी संक्रामक बीमारी और बाकी असंक्रामक रोगों के लिए अलग-अलग हैं? सामान्य भाषा में समझें तो जो लोग छूत के रोगों से बचने के लिए दूर और साफ सुथरी अटारियों में रह रहे हैं, वो हार्ट अटैक या दमे से भले बच जाएं, लेकिन कोविड के शिकार आसानी से हो जाएंगे। क्योंकि एहतियात का अतिरेक और अति स्वच्छता का आग्रह उन्हें भीतर से कमजोर बना देता है। उनकी प्रतिरोधक क्षमता को घटा देता है, स्वास्थ्य का सेविंग अकाउंट धीरे-धीरे खाली कर देता है। यहां विरोधाभास यह है कि अगर आप असंक्रामक बीमारियों से बचने जाते हैं तो महामारियों के चंगुल में फंस सकते हैं और महामारी की फिक्र धुएं में उड़ा दें तो हार्ट अटैक या कैंसर का शिकार हो सकते हैं और कुछ मामलों में तो दोनो का ही निशाना बन सकते हैं।
इन वैज्ञानिक चेतावनियों और शोधों के मद्देनजर आम आदमी क्या करे, किसे सही माने और किसे अपनाएं? वैसे गरीब आदमी अगर परिस्थितिवश कोविड का शिकार कम हो रहा है तो यह कोई खुशी से उछलने वाली बात नहीं है। वह गंदगी, तंगहाली और दूषित हवा-पानी में जी रहा है तो इसलिए क्योंकि उसके पास पैसा नहीं है, काम नहीं है, जरूरी संसाधन नहीं है। उसकी बसाहट कोई कोविड क्वारेंटाइन सेंटर भी नहीं है। आज देश में करोड़ों लोग इन्हीं हालात में जीने के लिए मजबूर हैं तो वह आर्थिक सामाजिक विषमता का नतीजा है। ऐसे में वह अगर कोविड से कुछ बचा हुआ है तो यह मात्र संयोग है। कोई तमगा नहीं है।
वैसे कोविड 19 के प्रकोप को वैश्विक स्तर पर देखें तो सबसे ज्यादा मौतें सम्पन्न और सर्व सुविधा सम्पन्न समझे जाने वाले अमेरिका और यूरोपीय देशों में हुई हैं। बेहद गरीब अफ्रीका, दक्षिण अमेरिकी और एशिया के देशों में अपने सीमित संसाधनों से ही कोरोना के हमले को यथा संभव कमजोर किया है। इस मायने में भारत में भी आबादी की तुलना में कोरोना से होने वाली मौतों की संख्या काफी कम है। जबकि सुविधाओं में जीने वाले अमेरिकी कोविड के आगे पिद्दी साबित हुए हैं।
बतौर एक इंसान यह स्थिति कुछ वैसी ही है कि साफ पानी में रहने वाला नफासतपसंद एडीज मच्छर अगर काटे तो आपको डेंगू हो सकता है और गंदगी में जीने वाला एनोफिलीज मच्छर काटे तो आप मलेरिया के बुखार में तड़प सकते हैं। तो आदमी कहां जाए, क्या करे ? किस हद तक एहतियात बरते या जीना ही छोड़ दें ? एसआईआर की इस रिसर्च ने सभी को उलझन में डाल दिया है। इसका अर्थ यह नहीं कि कोरोना से बचने के लिए गंदी बस्तियों में प्लाॅट खरीदना शुरू कर दिया जाए या फिर झुग्गी किराए पर ली जाए। जरूरत इस बात की है कि सफाई की न्यूनतम दरकार को ध्यान में रखते हुए शरीर को थोड़ा कष्ट भी उठाने की आदत डालें और कुदरत के करीब रहना सीखें। उसके मिजाज को सहना सीखें।
सीएसआईआर के इस शोध पर सवाल उठ सकते हैं, लेकिन यह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की उस हिकारत भरी टिप्पणी का जवाब भी है कि ‘इंडिया गंदा है।‘ अगर गंदगी परिस्थितिवश ही सही, गरीबों,वंचितों को कोरोना से बचा रही है तो यही कहना पड़ेगा कि ‘दाग अच्छे हैं.’..!
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल
‘सुबह सवेरे’