नवीन सी. चतुर्वेदी हिंदी, उर्दू और ब्रज तीनों ही भाषाओं में अद्भुत कविता और ग़ज़ल कहते हैं। इनकी पुस्तक भी काफी चर्चित रही है। देश भर में तमाम मंचों से अपनी कवितायें पढ़ते रहे हैं। मुंबई के साहित्यिक बिरादरी के अग्रणीय कवियों में से हैं। हाज़िर है उनकी एक नज़्म और एक ग़ज़ल जो पूरी दुनिया में काफी पसंद की जा चुकी है।
नज़्म
हाय वो रुत भी क्या सुहानी थी।
मैं भी सुनता था तू भी सुनती थी॥
तू मेरे संग-संग बरसों-बरस।
जंगलों-जंगलों भटकती थी॥
क्यों न सुन्दर हों मेरी तसवीरें।
रंग तू ही तो इन में भरती थी॥
कुछ सबक तूने भी सिखाये हैं।
तू भी लड़ती थी तू भी जिद्दी थी॥
कैसे कह दूँ कि तब ज़हीन था मैं।
जब तू मेरी कनीज़ होती थी॥
मैं जो सहरा था बन गया दरिया।
तू फ़ना हो गयी जो नद्दी थी॥
मैं तो हमले में मारा जाता था।
जीते जी तू चिता पे सोती थी॥
खेत-खलिहान जानते थे उसे।
जिस के दम से रसोई चलती थी॥
भूल जाती थी तू तेरे अरमान।
जब तबीयत मेरी मचलती थी॥
अपने अब्बा की लाज रखने को।
उन की हर बात मान लेती थी॥
अपने भाई की फीस की ख़ातिर।
अपना पढना ही छोड़ देती थी॥
माँ की आँखें न भीग जाएँ कहीं।
इस लिये हर सितम को सहती थी॥
मेरे जैसों से डर के तू अक्सर।
घर से बाहर नहीं निकलती थी॥
वो तो मैं ने ही तुझ को रोक लिया।
वरना तू ने उड़ान भरनी थी॥
चल क़लम हाथ में उठा ले अब।
वो क़लम जिस को तू बनाती थी॥
मत ज़माने से पूछ कोई सवाल।
ये रियाया तो कल भी गूँगी थी॥
बोलना दौर अब नहीं है वो।
जब कि तू घर में क़ैद रहती थी॥
काश हम को समझ में आये ‘नवीन’।
अपनी अम्मा भी एक लड़की थी॥
ग़ज़ल
भले कहने को कह दूँ, तुम फ़क़त खाना पकाती हो।
मेरा दिल जानता है, तुम ही घर को घर बनाती हो।।
गृहस्थी जिस में रहती है, वो घर यों ही नहीं बनता।
जो घर को घर बनाता है, वो नक़्शा तुम बनाती हो।।
यहाँ ख़ुद को सजाने में तो हर इक शख़्स माहिर है।
तुम्हें शाबाशियाँ, तुम घोंसले को घर बनाती हो।।
ज़माना जो कहे, कहता रहे, जन्नत के बारे में।
मेरी जन्नत तो वो है जिस जगह तुम मुस्कुराती हो।।
क़सम से आज ही तुम को नयी साड़ी दिलाऊँगा।
मुझे बस यह बता दो – किस तरह पैसे बचाती हो।।
( नवीन सी चतुर्वेदी ग़ज़ल, गीत, छंद और काव्य के लिए जाने जाते हैं। तमाम विधाओं में लिखते हुए नवीन जी की एक विशिष्ट पहचान ब्रज ग़ज़लों के प्रवर्तक के रूप में है।)