odishaफसल बर्बाद होने के कारण ओडिशा के नौपाडा ज़िले के जुलिबंधा गांव निवासी 22 वर्षीय किसान ओम प्रकाश पटेल ने आत्महत्या कर ली. ओम प्रकाश के पास खेती योग्य सात एकड़ ज़मीन थी. जुलिबंधा ओडिशा से राज्यसभा सदस्य एवी स्वामी द्वारा गोद लिया हुआ आदर्श गांव है. ऐसा नहीं है कि स़िर्फ बारिश के देवता किसानों के दु:ख और नाकामी की वजह हों. सरकारी नीतियां और उनके कार्यान्वयन भी किसानों की आत्महत्या जैसी हृदय विदारक घटनाओं के लिए कम ज़िम्मेदार नहीं हैं. मानसून की विफलता और किसानों को सहायता प्रदान करने में सरकार की नाकामी के अलावा कृषि का ग़ैर-लाभकारी होना भी मुसीबतों का कारण बना हुआ है.

ऐसा लगता है कि ओडिशा में किसानों की आत्महत्या की त्रासदी का कोई अंत नहीं है. राज्य में इसकी शुरुआत बीते सितंबर में बारिश की बूंदों के साथ हुई. फिर नवंबर में स्थिति और बिगड़ गई. अब तक 164 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. सितंबर में आत्महत्या का आंकड़ा तीन था, अक्टूबर में 43 था, जो नवंबर आते-आते 84 तक पहुंच गया. कई मामले तो दर्ज नहीं हुए.

इन किसानों ने अपना जीवन समाप्त करने के लिए या तो कीटनाशकों का इस्तेमाल किया या फिर फांसी के फंदे का. दरअसल, इन किसानों को कृषि को अपना व्यवसाय बनाने की क़ीमत चुकानी पड़ी. कम वर्षा के कारण राज्य के 314 ब्लॉकों में से 123 में सूखे जैसी स्थिति पैदा हो गई है. राज्य में लगभग 5.23 लाख हेक्टेयर भूमि पर खड़ी फसलों का 33 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा खराब हो गया है. अब तक दो महिलाओं समेत सैकड़ों किसानों ने फसल बर्बाद होने की वजह से आत्महत्या कर ली है, लेकिन बीजू जनता दल (बीजद) के सांसदों को स्थिति की गंभीरता का एहसास तक नहीं है.

जब बीजद के सांसदों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की, तो उन्होंने ओडिशा के लिए सूखा राहत पैकेज के रूप में 2,200 करोड़ रुपये की मांग की, लेकिन किसानों की आत्महत्या जैसे गंभीर मसले पर चर्चा तक नहीं की.जहां एक तऱफ मीडिया एवं विपक्ष फसल की विफलता और ऋण के बोझ के चलते किसानों की आत्महत्या को लेकर चीख-चिल्ला रहे हैं, वहीं सत्तारूढ़ बीजद एक अलग राग अलाप रहा है. बीजद अनाधिकृत तौर पर तो यह मानता है कि राज्य में आत्महत्याएं हुई हैं, आत्महत्या करने वाले लोग किसान हैं और फसल खराब होने के साथ-साथ किसानों पर ऋण का बोझ भी है.

मुख्यमंत्री नवीन पटनायक किसानों से अपील कर रहे हैं कि वे बहादुरी से स्थिति का सामना करें. लेकिन, सरकार और सत्तारूढ़ बीजद का आधिकारिक पक्ष यह है कि किसान न तो फसल की विफलता और न ऋण के बोझ की वजह से आत्महत्या कर रहे हैं, बल्कि उनके द्वारा आत्महत्या करने के कुछ और कारण हैं, जैसे अत्यधिक शराब पीना, पारिवारिक झगड़े और प्रेम में नाकामी वगैरह-वगैरह. ज़िलाधिकारियों द्वारा राज्य राहत आयुक्त के समक्ष प्रस्तुत की गईं रिपोट्‌र्स में तो यही दर्ज है. दरअसल, यह वफादारी की पराकाष्ठा है!

इस तरह की रिपोट्‌र्स से बीजद के सांसद, मंत्री एवं ज़मीनी कार्यकर्ता भी खासे क्षुब्ध हैं. ऐसी रिपोर्ट देने के लिए कई ज़िलाधिकारियों को स्थानीय किसान संगठनों और किसानों की नाराज़गी का सामना भी करना पड़ा. इस तरह के इंकार सत्तारूढ़ दलों के लिए कोई नई बात नहीं हैं. जिस अनमने ढंग से राज्य सरकार ने सूखे की स्थिति से निपटने का प्रयास किया, उसकी मिसाल शायद पूरे देश में न मिले. ओडिशा, जो आपदा प्रबंधन की अपनी तैयारियों-क्षमताओं का बखान करते नहीं थकता, सूखे से निपटने में पूरी तरह नाकाम रहा.

मानसून के आगमन के दूसरे सप्ताह में ही सूखे की आशंका व्यक्त की जाने लगी थी. केंद्र सरकार ने इस संबंध में परामर्श भी जारी किया था. वास्तव में उसी समय से आपात योजना पर काम शुरू हो जाना चाहिए था. पहला और सबसे महत्वपूर्ण काम यह सुनिश्चित करना था कि लिफ्ट सिंचाई के प्वॉइंट्‌स काम कर रहे हैं या नहीं. दरअसल, लिफ्ट सिंचाई के प्वॉइंट्‌स और बोरवेल का संचालन स़िर्फ कागजों तक सीमित रहा.

राज्य भाजपा के पूर्व अध्यक्ष कहते हैं कि संबलपुर ज़िले में लिफ्ट सिंचाई के 256 प्वॉइंट्‌स में से केवल 68 सक्रिय हैं, शेष बेकार पड़े हैं. वहीं ज़िले में 90 प्रतिशत सब्सिडी वाले बोरवेल के लिए 600 आवेदनों में से केवल 400 स्वीकृत किए गए. और, जब ज़रूरत पड़ी, तो उनमें से केवल 170 काम कर रहे थे, जिनमें से अधिकांश लगातार बिजली कटौती के कारण किसी काम के नहीं थे.

केवल बारिश की कमी नहीं, बल्कि सरकार की नीतियां और कार्यशैली भी किसानों की आत्महत्या के लिए ज़िम्मेदार हैं. 2014 के चुनाव के दौरान बीजद ने किसानों को बिजली पर सब्सिडी दिलाने का वादा किया था, लेकिन बाद में बिजली की दरों में बढ़ोत्तरी कर दी गई. ओडिशा विद्युत नियामक आयोग (ओईआरसी) ने कृषि क्षेत्र की बिजली दरों को भी नहीं बख्शा.

विपक्ष एवं सत्तारूढ़ दल के विधायकों और किसान संगठनों के हंगामे के बाद पिछले मानसून सत्र के दौरान ऊर्जा मंत्री ने सदन को बताया था कि ओईआरसी से बिजली की दरें कम करने का अनुरोध किया गया है. मानसून सत्र के बाद शीतकालीन सत्र भी गुज़र गया, लेकिन कोई नहीं जानता कि कृषि के लिए बिजली की दरों का क्या हुआ? अब निर्वाचित प्रतिनिधि भी मानने लगे हैं कि ऊर्जा मंत्री ने सदन को धोखा दिया. किसान अभी भी पानी की कमी, बिजली कटौती और बिजली की उच्च दरों का सामना कर रहे हैं.

ओडिशा में खेती ग़ैर लाभकारी काम है. नतीजतन, किसानों के पास फसल के ऩुकसान से उबरने के लिए किसी भी अतिरिक्त धन का अभाव होता है. ओडिशा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष एसके त्रिपाठी कहते हैं कि राज्य के धान किसान आर्थिक अनिश्चितता के शिकार हैं. एक किसान खरीफ फसल की खेती से प्रति एकड़ दो से पांच हज़ार रुपये तक हासिल कर सकता है, लेकिन इसके लिए उसे कई तरह की परिस्थितियों से निपटना पड़ता है, जैसे प्राकृतिक आपदा एवं कीट-पतंगों से होने वाले ऩुकसान के मद्देनज़र प्रभावी तैयारी और उर्वरकों एवं कीटनाशकों की उपलब्धता सुनिश्चित करना आदि.

त्रिपाठी धान की खेती के अर्थशास्त्र का एक संक्षिप्त खाका पेश करते हुए कहते हैं कि वर्ष 2004-05 के दौरान धान की प्रति एकड़ खेती की लागत 7,295 रुपये थी. उस समय धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 590 रुपये प्रति क्विंटल था. इस लिहाज से एक एकड़ खेत से उपजे धान की क़ीमत हुई 8,850. यानी किसान को बचत हुई केवल 1,555 रुपये प्रति एकड़.

ओडिशा में प्रति एकड़ औसत उत्पादन केवल 15 क्विंटल है. वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के अनुसार, पिछले सात वर्षों में खरीफ की खेती की लागत दो गुनी से भी अधिक हो गई. 2011-12 में प्रति एकड़ खरीफ की खेती की लागत 14,439 रुपये थी. अगर प्रति एकड़ 15 क्विंटल उत्पादन की गणना तत्कालीन न्यूनतम समर्थन मूल्य 1,110 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से की जाए, तो फसल की कुल क़ीमत बनती है 16,650 रुपये. इस तरह प्रति एकड़ किसान को केवल 2,211 रुपये की बचत हुई. लेकिन, इस बचत की शर्त यह है कि किसान समय पर जानकारियां हासिल करने में सक्षम हो और विपरीत मौसम एवं कीट-पतंगों की समस्या आड़े न आए.

खेती की लागत में तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है, लेकिन धान की क़ीमत उस लिहाज़ से नहीं बढ़ रही है. रबी की खेती अधिक लाभकारी है, लेकिन ओडिशा में रबी की खेती सिंचाई के लिए समय पर पानी न मिलने के कारण लगभग असंभव है. खरीफ की खेती से कम आमदनी होने की वजह से किसान मौसम की मार से होने वाले ऩुकसान का सामना नहीं कर पाते.

जल एवं खाद्य सुरक्षा प्रबंधन विशेषज्ञ तपन पाढ़ी कहते हैं कि इसी वजह से किसान भुखमरी के शिकार हैं. सरकार और राजनीतिक दलों को किसानों के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए, क्योंकि वे पूरे देश का पेट भरते हैं. नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) ने भी ओडिशा के किसानों की दयनीय आर्थिक स्थिति की पुष्टि की है. संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, ओडिशा के किसान परिवारों की औसत मासिक आय महज 4,976 रुपये है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत 6,426 रुपये है.

ओडिशा सरकार का दावा है कि इस साल किसानों को 5,067 करोड़ रुपये ऋण के रूप में दिए गए हैं. इसके अलावा राष्ट्रीयकृत बैंकों ने भी लगभग 2,000 करोड़ रुपये के ऋण वितरित किए हैं. लेकिन, सरकार ने इस बिंदु पर ग़ौर नहीं किया कि अधिकांश किसान बटाईदार होने की वजह से बैंकों से ऋण नहीं पा सकते. राज्य के भूमि सुधार अधिनियम-1974 के तहत ज़मीन को बटाई पर देने को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है.

बटाईदारों को किसानों के लिए की गई किसी भी घोषणा का लाभ नहीं मिल पाता. सो, साहूकारों से ऋण लेने के अलावा उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं बचता. आत्महत्या करने वाले किसानों में बहुतायत बटाईदारों की है. कृषि के लिए पांच प्रतिशत की दर से ऋण मिलता है. ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि बीजू जनता दल के नेता-कार्यकर्ता किसानों को यह ऋण दिलाने की एवज में उनसे एक बड़ी रकम की उगाही कर लेते हैं.

नई दिल्ली में मीडिया से बातचीत करते हुए नवनिर्माण कृषक संगठन के अक्षय कुमार ने कहा कि पिछले दो महीनों से राज्य में किसानों की स्थिति बहुत गंभीर हो गई है. राज्य सरकार पूरी तरह ग़ैर ज़िम्मेदार है. औसतन हर दिन पांच किसान आत्महत्या कर रहे हैं. लेकिन, प्रशासन आत्महत्या के लिए पारिवारिक विवाद, लंबी बीमारी और प्यार में नाकामी आदि को वजह ठहरा देता है. सूखा राहत पैकेज की घोषणा के बाद सरकार ने राज्य के 123 ब्लॉक सूखाग्रस्त घोषित किए, लेकिन राहत आयुक्त जीवीजी शर्मा ने 21 ज़िलों के 139 ब्लॉक सूखाग्रस्त होने की घोषणा की है. राज्य में मनरेगा एवं आपूर्ति सहकारिता जैसी कल्याणकारी योजनाएं नाकाम रही हैं. लोगों को पिछले वर्ष मनरेगा में केवल 24 दिनों का काम मिला, जबकि सरकार ने 150 दिनों का काम देने की घोषणा की है.

वहीं सहकारिता विभाग में नाबार्ड द्वारा दिए गए ऋण के लिए संयुक्त आजीविका समूहों का गठन नहीं किया गया. सरकार ने लिफ्ट सिंचाई के लिए क़दम तो उठाए थे, लेकिन 23,596 लिफ्ट सिंचाई प्वॉइंट्स में से केवल 6,916 प्वॉइंट्‌स फिलहाल काम कर रहे हैं. किसान अपना धान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार को बेचने के बजाय व्यापारियों को 800 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बेचने को मजबूर हैं, क्योंकि धान मंडियों में तमाम अव्यवस्थाएं हैं और भ्रष्टाचार का बोलबाला है.

अक्षय कहते हैं कि कर्नाटक में यदि कोई किसान आत्महत्या करता है, तो राज्य सरकार उसके परिवार को बतौर मुआवज़ा दो लाख रुपये देती है, लेकिन ओडिशा में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है. बकौल अक्षय कुमार, यह बेहद दु:खद और शर्मनाक है कि मुआवज़े के लिए किसानों को धरना-प्रदर्शन या चक्का जाम जैसे फैसले लेने पड़ते हैं. उन्होंने मांग की कि आत्महत्या करने वाले किसान के परिवार को 10 लाख रुपये बतौर मुआवज़ा मिलने चाहिए.

इसके अलावा सरकार को साहूकारों से लिए गए ऋण की बैंकों द्वारा भरपाई की गारंटी लेनी चाहिए. बैंकों एवं सहकारी संस्थानों द्वारा किसानों को दिए गए ऋण मा़फ किए जाएं. सूखा राहत पैकेज का वितरण जितनी जल्दी हो सके, होना चाहिए. किसानों को राष्ट्रीयकृत बैंकों से कम ब्याज दर पर आसान ऋण उपलब्ध कराए जाएं. यही नहीं, सिंचाई, भंडारण एवं उपज की सरकारी खरीद के अलावा कृषि से जुड़ी ढांचागत व्यवस्था दुरुस्त होनी चाहिए.

ग़ौरतलब है कि 2009 के उत्तरार्द्ध में 29 किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने के बाद दो जनवरी, 2010 को ओडिशा के पूर्व प्रधान सचिव सुधांशु मोहन पटनायक की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया था. गठन के ढाई वर्षों बाद 15 दिसंबर, 2012 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंप दी थी, लेकिन आज तक उक्त आयोग की अनुशंसाएं लागू नहीं की गईं.

जनवरी, 2014 में आयोग की अनुशंसाओं के सत्यापन और तथ्यों की जांच के लिए कृषि एवं खाद्य उत्पादन निदेशक की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय कमेटी गठित की गई, जिसने दो बैठकें कीं, लेकिन उसकी रिपोर्ट अभी तक सार्वजनिक नहीं की गई. दावा किया जाता है कि ओडिशा में जोत का छोटा आकार कृषि के धीमे विकास के प्राथमिक कारणों में से एक है.

राज्य के 86.15 प्रतिशत किसान छोटे या सीमांत हैं, जिनके पास दो एकड़ से भी कम ज़मीन है. कृषि विशेषज्ञों का दावा है कि छोटे आकार की खेती ग़ैर लाभकारी होती है. कृषि उत्पादों के विपणन की सुविधा ओडिशा में फिलहाल प्रारंभिक अवस्था में है. न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान खरीद की सरकारी व्यवस्था में ढेरों कमियां हैं. दूसरी ओर सूखा, बाढ़ और चक्रवाती तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाएं किसानों की परेशानियों में लगातार इजा़फा करती रहती हैं.

आम धारणा है कि सरकार द्वारा राहत देने से किसान के ऩुकसान की भरपाई हो जाती है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि राहत राशि से केवल विभिन्न सरकारी विभागों की क्षतिपूर्ति होती है. उदाहरण के लिए, राज्य सरकार ने वर्षा आधारित कृषि के लिए 2,720 रुपये और सिंचित क्षेत्रों के लिए 5,400 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से मुआवज़े की घोषणा की है. यह राशि लागत के नज़दीक भी नहीं फटकती. और, जो लोग राहत कार्य में जुटे हैं, वे सरकारी मदद का एक बड़ा हिस्सा हजम कर लेंगे. किसानों द्वारा आत्महत्या कोई मामूली घटना नहीं है, बल्कि यह हमारे कृषि जगत में फैली हताशा की एक जीती-जागती मिसाल है. 

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