भाजपा को एक चेहरे की ज़रूरत थी. अगर मैं भाजपा का हमदर्द होता, तो कहता कि ऐसा करना ग़लत है. आपके खुद के कई नेता हैं, उन्हें मा़ैका दीजिए. आपके पास विजय गोयल हैं. वह भले कोई करिश्माई नेता न हों, लेकिन वह पार्टी को लीड करें. हारें या जीतें, उन्हें मा़ैका दीजिए. अगर जीतते हैं, तो पार्टी का नेतृत्व करने के लिए एक मा़ैका मिलना चाहिए. आपने मुख्यमंत्री पद के लिए एक ऐसा उम्मीदवार उधार ले लिया, जो पैसे पर युद्ध लड़ने वाले सैनिक की तरह है और जिसके भीतर कोई देशभक्ति नहीं है. एक ऐसा सैनिक, जो स़िर्फ पावर और पैसे के लिए युद्ध लड़ता है. अगर वह मुख्यमंत्री बन भी जाती हैं, तो क्या कर पाएंगी? क्या वह आरएसएस या भाजपा के आइडिया में विश्‍वास रखती हैं या फिर सत्ता के लालच में आ गईं? 

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा आए और चले गए. यह यात्रा दो कारणों से अभूतपूर्व थी. अपने कार्यकाल के दौरान दो बार भारत आने वाले वह पहले राष्ट्रपति हैं और इससे पहले गणतंत्र दिवस की परेड में मुख्य अतिथि के रूप में कोई अमेरिकी राष्ट्रपति कभी नहीं आया था. इन दोनों घटनाओं का स्वागत है. हालांकि, इस यात्रा का मीडिया कवरेज और उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया-बताया गया. मैं समझ नहीं पा रहा कि क्यों एक अतिथि की सुरक्षा व्यवस्था की जानकारी देने के लिए मीडिया इतना समर्पित दिखा. हमारे प्रधानमंत्री की भी कड़ी सुरक्षा व्यवस्था होती है. जाहिर-सी बात है कि अमेरिकी राष्ट्रपति आते हैं, तो सुरक्षा तो होगी ही. वास्तव में इतना सब कुछ दिखाकर आप अपनी सुरक्षा लीक कर देते हैं और ग़लत लोगों को जानकारी देते हैं. मुझे लगता है कि प्रेस काउंसिल या अन्य किसी को इस पर ध्यान देना चाहिए था कि सुरक्षा व्यवस्था से जुड़े इंतजाम तीन-चार घंटे दिखाने की ज़रूरत नहीं थी. मुख्य बात थी कि इस यात्रा से पहले परमाणु करार की बात हो रही थी. जो भी लोग इस डील से परिचित हैं, वे जानते हैं कि इससे ज़्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ है. लेकिन, मीडिया ने इस तरह बताया, मानों कोई महान उपलब्धि हासिल कर ली गई है.
राष्ट्रपति ओबामा अपने शब्दों को लेकर बहुत सावधान थे. उन्होंने कहा कि हमने आपसी समझ को बेहतर बनाने में सफलता पाई है. यह सही है. दूसरी बात, मुझे याद है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भारतीय जनता पार्टी सहित तमाम विपक्ष के प्रतिरोध के बावजूद यह डील करना चाहते थे. उन्होंने इसके लिए कुछ सवालिया तरीके (सांसदों का समर्थन हासिल करने के मामले में) अपनाए, लेकिन उन्होंने संसद में यह डील पारित की. मुझे याद है कि कैसे संसद के भीतर यशवंत सिन्हा ने इसका जोरदार विरोध किया था और ऐसी बातों का जिक्र किया था, जिनसे भारत को सावधान रहने की ज़रूरत है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद को उन चिंताओं को लेकर आश्‍वस्त किया था. हम जैसे लोगों को लगा कि यह डील नहीं हो सकती, क्योंकि जो शर्तें थीं, वे अमेरिका नहीं मानता और भारत उनसे पीछे नहीं हट सकता था. अब क्या हुआ? मैं आश्‍वस्त हूं कि अमेरिकी सरकार जो चाहती है, उससे पीछे नहीं जा सकती और आप उससे पीछे नहीं हट सकते, जिसका वादा संसद से कर चुके हैं. इसलिए आप बीच का रास्ता निकालने की कोशिश कर रहे हैं. यह बीच का रास्ता है कि जो ज़िम्मेदारी अमेरिकी कंपनी नहीं स्वीकार रही है, उसे भारतीय बीमा कंपनियों और सरकार को सौंप दिया गया.
यह किस तरह का सौदा (डील) है? हम मूर्ख हैं, यदि यह सोचते हैं कि इस डील से हम कुछ हासिल कर लेंगे. अगर परमाणु करार के पक्ष में खड़े लोगों के मुताबिक यह डील हो जाती है, तब भी देश की बिजली की आवश्यकताओं का केवल सात से आठ फ़ीसद हिस्सा ही इससे पूरा हो पाएगा. अगर यह सात-आठ फ़ीसद परमाणु ऊर्जा नहीं मिलती है, तो हम बिजली के बिना मर नहीं जाएंगे. तथाकथित स्वच्छ ऊर्जा की मात्रा स़िर्फ सात से आठ फ़ीसद ही है. इसलिए परमाणु करार बिजली की ज़रूरत को पूरा नहीं करता. यह भारतीय एवं अमेरिकी कंपनियों को बहुत सारा पैसा खर्च करने और कमाने में मदद करता है. एक भारतीय कंपनी लार्सन टुब्रो ने पहले से ही जॉर्ज बुश और मनमोहन सिंह के बीच हुए नाभिकीय सौदे के वक्त एक बड़ा निवेश कर दिया था. आज तक वह पैसा यूं ही पड़ा हुआ है. उसे उम्मीद है कि कुछ होगा. अमेरिकी कंपनियों से भारतीय कंपनियों को ऑर्डर मिलेंगे. कुल मिलाकर यह एक कॉरपोरेट डील है.

राष्ट्रपति ओबामा अपने शब्दों को लेकर बहुत सावधान थे. उन्होंने कहा कि हमने आपसी समझ को बेहतर बनाने में सफलता पाई है. यह सही है. दूसरी बात, मुझे याद है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भारतीय जनता पार्टी सहित तमाम विपक्ष के प्रतिरोध के बावजूद यह डील करना चाहते थे. उन्होंने इसके लिए कुछ सवालिया तरीके (सांसदों का समर्थन हासिल करने के मामले में) अपनाए, लेकिन उन्होंने संसद में यह डील पारित की.

इस कॉरपोरेट सौदे के लिए एक संप्रभु सरकार कहां तक जाती है, यह एक बड़ा सवाल है. जो भाजपा कल तक इसका विरोध करती थी, आज वह इसे आगे ले जाना चाहती है. यह तो कहिए कि कांग्रेस ने कोई विरोध नहीं किया और उसके प्रवक्ता ने कहा कि इसे हमने ही शुरू किया था, इसलिए इसका विरोध नहीं करेंगे. इसके अलावा, ओबामा की यात्रा से और कुछ बाहर निकल कर नहीं आया है. मैं यहां एक और बात कहना चाहूंगा कि किसी को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि अमेरिका से कोई सेंटा क्लाज आएगा और सबके लिए गिफ्ट लाएगा. यह हमारे लिए सम्मान की बात है कि ओबामा हमारे गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि बने, दूसरी बार भारत आए. बस इतना ही. इससे अधिक कुछ नहीं. मोदी सरकार के दौरान अन्य मेहमान भी आ चुके हैं और अभी कई आएंगे भी. नरेंद्र मोदी ने दुनिया भर के नेताओं से नेटवर्क स्थापित करके बहुत शानदार काम किया है. लेकिन, हमेशा इसे इस रूप में देखना कि इससे भारत को क्या फ़ायदा होगा, यह पुराने दिनों की निर्भरता वाली बात है. अब अंतर-आत्मनिर्भरता का दौर है. आज अमेरिका को भी हमारी ज़रूरत है, हमें अमेरिका की ज़रूरत है. उसी तरह जापान को हमारी और हमें जापान की ज़रूरत है. इसलिए सार्वजनिक जीवन में या मीडिया के लोगों का खुद को नीचा देखने-दिखाने वाला रवैया बहुत दु:खद है. वैसे, कुल मिलाकर यह एक अच्छी यात्रा थी, लेकिन इसे सफल कहना मूर्खतापूर्ण होगा.
दूसरी अहम बात. दिल्ली में विधानसभा चुनाव है. इसे एक अलग परिप्रेक्ष्य में देखते हैं. दिल्ली एक राज्य भी नहीं है, यह एक संघ राज्य क्षेत्र है. किसी को क्या फ़़र्क पड़ता है कि यहां कौन जीतता है, क्या होता है? दिल्ली सरकार के अधीन क़ानून और व्यवस्था नहीं है, भू-उपयोग का अधिकार नहीं है. इस पर आख़िर इतना हो-हल्ला क्यों? क्योंकि, यह राजधानी है. भाजपा को अब लग रहा है कि आम चुनाव के बाद तुरंत चुनाव करा देना चाहिए था. मोदी लहर में आसानी से जीत मिल जाती. अब वह मौक़ा हाथ से निकल चुका है. तब तो वह दलबदल को प्रोत्साहित करके सरकार बनाने की कोशिश कर रही थी. ऐसा हुआ नहीं. अब सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद भाजपा ने चुनाव कराने का निर्णय लिया. अब एक बार फिर जब उसे यह महसूस हुआ कि वह जीत नहीं सकती, तो एक पूर्व पुलिस अधिकारी को सामने लेकर आ गई. एक ऐसी पुलिस अधिकारी, जो पुलिस सेवा में तो सफल नहीं हुई. हां, उनके दो दावे हैं. एक यह कि वह देश की पहली महिला आईपीएस हैं और दूसरा यह कि उन्हें फिलीपींस जैसे देश से रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड मिला हुआ है और वह भी पुलिस सेवा के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक कार्य के लिए. इस सबसे वह कैसे मुख्यमंत्री बनने के काबिल हो गईं? लेकिन, मीडिया में उनकी एक छवि है और उन्हें अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल को धन्यवाद देना चाहिए कि उनके साथ रहकर उन्हें इस दौड़ में शामिल होने का मा़ैका मिल गया.
भाजपा को एक चेहरे की ज़रूरत थी. अगर मैं भाजपा का हमदर्द होता, तो कहता कि ऐसा करना ग़लत है. आपके खुद के कई नेता हैं, उन्हें मा़ैका दीजिए. आपके पास विजय गोयल हैं. वह भले कोई करिश्माई नेता न हों, लेकिन वह पार्टी को लीड करें. हारें या जीतें, उन्हें मा़ैका दीजिए. अगर जीतते हैं, तो पार्टी का नेतृत्व करने के लिए एक मा़ैका मिलना चाहिए. आपने मुख्यमंत्री पद के लिए एक ऐसा उम्मीदवार उधार ले लिया, जो पैसे पर युद्ध लड़ने वाले सैनिक की तरह है और जिसके भीतर कोई देशभक्ति नहीं है. एक ऐसा सैनिक, जो स़िर्फ पावर और पैसे के लिए युद्ध लड़ता है. अगर वह मुख्यमंत्री बन भी जाती हैं, तो क्या कर पाएंगी? क्या वह आरएसएस या भाजपा के आइडिया में विश्‍वास रखती हैं या फिर सत्ता के लालच में आ गईं? इसमें भी कोई समस्या नहीं है, आप एक राजनीतिक दल हैं. लेकिन, कांग्रेस का नाम लेना बंद करें. यह कहना बंद करें कि कांग्रेस स़िर्फ सत्ता चाहती है. यह कहना बंद करें कि कांग्रेस मुक्त भारत चाहिए. मुझे कोई शिकायत नहीं है. मैं राजनीतिक दल में विश्‍वास रखता हूं, मैं बराबर की प्रतिस्पर्द्धा में विश्‍वास रखता हूं, लेकिन यह मत कहिए कि हम एक अलग पार्टी हैं. यह सब बेकार की बातें हैं. इसलिए यह मत कहिए कि हमने किरण बेदी को लाकर कोई बड़ा काम कर दिया. उनकी विचारधारा, उनका आदर्श, उनका विजन क्या है, हमें नहीं मालूम. और, इसी सबके लिए वे अरविंद केजरीवाल की आलोचना करते हैं. यह कहते हैं कि उनके पास कोई विचारधारा नहीं है, वह स़िर्फ बिजली-पानी के दाम कम करने की बात कहते हैं. लेकिन, आम आदमी इन बातों को अपने लाभ के रूप में देखता है. आम आदमी सोचता है कि वह केवल बड़ी बातें नहीं करते.
क्या भाजपा ऐसा वादा कर रही है? क्या किरण बेदी ने अपनी कोई सूची बनाई है कि वह क्या-क्या करेंगी? केंद्र सरकार दिल्ली पुलिस को उनके अधीन नहीं करेगी. क्या इसके बिना वह बलात्कार की घटनाएं रोक लेंगी? मेरे हिसाब से दिल्ली चुनाव एक मज़ाक बनकर रह गया है. कौन जीतेगा और कौन हारेगा, इससे कोई फ़़र्क नहीं पड़ता. इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा. फिर भी देखते हैं कि नतीजा क्या रहता है?

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