बहुत तेज़ धूप में कोई भी अपनी छत की मरम्मत नहीं करता और न गर्मी के मौसम में बाढ़ राहत के उपाय करता है. गंभीर रूप से उपाय स़िर्फ तूफान के समय में किए जाते हैं. गंभीर उपाय करने की ज़रूरत राजनीति में वास्तविक ज़िंदगी से भी ज़्यादा होती है. इस समय देश के पास एक ऐसी सरकार है, जिसका हनीमून पीरियड उससे भी पहले समाप्त हो गया, जितनी देर में गर्मी के दिनों में आइसक्रीम पिघल जाती है. सरकार को महंगाई, न्यायपालिका, इराक में फंसे भारतीयों, अपने मंत्रियों की कुछ ग़लतियों और बजट के कारण आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है. इन सबके बारे में ख़बरें भी सभी अख़बारों में प्रकाशित होती रही हैं, लेकिन अगर साफ़ शब्दों में कहा जाए, तो सत्ता में आई एक नई पार्टी के लिए इन सबके बाद भी सब कुछ ठीकठाक है. अब सरकार पर रक्षात्मक हो जाने के लिए बहुत ही दबाव होंगे या फिर प्रत्येक समस्या से आगे आकर लड़ना होगा. हालांकि, लंबे समय के लिए किए जाने वाले सुधार त्रासदियों को मौक़ों में भी बदल सकते हैं.
ऐसी ही एक चुनौती न्यायपालिका से हुए विवाद में सामने आई है. यही समय है, जब कुछ देर रुक कर पूरे सिस्टम के बारे में विचार किया जाए. देश में लंबे समय से न्यायिक सुधार रुके हुए हैं. भारतीय न्यायपालिका में कर्मचारियों की कमी है, न्यायपालिका के काम बाहरी बिल्डिंगों में हो रहे हैं और लगभग तीन करोड़ मुक़दमों का बैकलॉग पड़ा हुआ है. वहीं अगर शीर्ष पदों की बात की जाए, तो संसद के सामने एक बिल पड़ा हुआ है, जिसमें कॉलेजियम सिस्टम में सुधार की बात कही गई है. न्यायपालिका में सुधार के किसी भी प्रयास की आलोचना यह कहते हुए की जाती है कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर ख़तरा है, लेकिन इस गणतंत्र की शुरुआत में कॉलेजियम सिस्टम नहीं था और यह ज़्यादा महत्वपूर्ण इंदिरा गांधी के शासन में न्यायपालिका को दबाने की कोशिश करने के बाद ही हो गया. वर्तमान समय की परिस्थितियां काफ़ी अलग हो गई हैं. न्यायाधीश पहले से कम ज़िम्मेदार ढंग से व्यवहार कर रहे हैं. इसी वजह से शायद न्यायपालिका में सुधार का मामला इस सरकार की शुरुआत में ही एक बार फिर से खुल सकता है.
न्यायपालिका की व्यवस्था में सुधार के लिए हमें स़िर्फ शीर्ष पदों पर बहाली के बारे में न सोचकर पूरी व्यवस्था की मरम्मत के बारे में सोचना होगा, जिससे यह ज़्यादा पीपुल फ्रेंडली हो सके. न्याय में देर होने से स़िर्फ मज़बूत पक्ष को ताक़त मिलती है और कमजोर और भी ज़्यादा कमज़ोर होता चला जाता है. इसलिए पहला सुधार यह होना चाहिए कि न्यायपालिका में शीर्ष और अन्य दूसरे पदों पर नियुक्तियां पूरी हों, जिससे लोगों को ज़ल्द से ज़ल्द न्याय मिल सके. इसके लिए ज़रूरी होगा कि क़ाबिल जजों और मजिस्ट्रेटों की नियुक्ति की जाए. ऐसा ज़रूरी नहीं है कि इन पदों के लिए स़िर्फ वेस्टर्न स्टाइल के वकीलों को ही रखा जाए. ये ऐसे लोग होने चाहिए, जो विवादों को आसानी से सुलझा सकें और इसके लिए जनता अदालतों की संख्या भी बढ़ाई जा सकती है. यह देखना बहुत ही मज़ेदार था कि फतवों के बारे में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय कितने लोगों ने ग़लत तरी़के से पढ़ा. इस निर्णय का मतलब यह नहीं है कि शरिया अदालतों का निर्णय मान्य नहीं है, लेकिन अगर किसी को इन अदालतों के निर्णय अमान्य हों, तो इन्हें क़ानूनी रूप से लागू नहीं कराया जा सकता.
जनता अदालतों की संख्या बढ़ेगी, तो देश के मुख्य न्यायालयों पर मुक़दमों का बोझ भी घटेगा. आख़िरकार प्रत्येेक दस लाख की जनसंख्या पर एक जज के मामले में भारत का काफ़ी नीचा स्थान है. ऐसी अवस्था में किसी भी उस उपाय को किया जाना चाहिए, जिससे न्यायालयों पर मुकदमों का बोझ कम हो सके. अगर बात न्यायिक नियुक्तियों की जाए, तो अब समय आ गया है कि बंद दरवाजों के पीछे होने वाली पदोन्नतियों को बंद कर दिया जाना चाहिए. एक न्यायिक नियुक्ति आयोग होना चाहिए, जो जजों की नियुक्ति के लिए विशेषज्ञों की राय भी ले. इन पदों पर नियुक्ति के लिए लैंगिक, सामाजिक एवं क्षेत्रीय अनुपात का भी ख्याल आयोग द्वारा रखा जाना चाहिए. ब्रिटेन में इस काम की शुरुआत हो चुकी है और अब भारत के लिए भी समय आ चुका है कि वह ऐसी व्यवस्था की शुरुआत कर दे, क्योंकि भारतीय सिस्टम भी काफी कुछ ब्रिटिश है.
इसी के साथ हमें इस बात की भी व्याख्या करनी होगी कि हम अभी भी किस हद तक औपनिवेशिक व्यवस्थाओं के साथ जी रहे हैं. भारत ने उन सभी संस्थानों को जीवित रखा हुआ है, जो इसके औपनिवेशिक मालिकों ने बनाए थे. इस बीच ब्रिटेन तो समय के साथ अपनी व्यवस्था में बदलाव करता गया, लेकिन भारत आज़ादी के 67 वर्षों के बाद भी उनके साथ चिपका हुआ है. जो भी पार्टी सत्ता में आती है, एक ही तरह का व्यवहार करती है. फेडरल फाइनेंशियल रिलेशन की व्यवस्था 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत है, लेकिन इस तरह का फाइनेंशियल कमीशन उसी समय के लिए सही था. क्योंकि, अब हमारे पास स्थायी फाइनेंशियल कमीशन हो सकता है, जो केंद्र एवं राज्यों के वित्तीय संबंधों को साफ़ और संवैधानिक बनाए. इसका मतलब अगर प्लानिंग कमीशन को हटाए जाने से है, तो इसमें भी कोई विशेष बात नहीं है.
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