धन्नीपुर आधुनिक भारत के उन गांवों में है, जहां शहरीकरण के कुछ प्रतिनिधि तत्व जैसे ईंट की दीवारों का होना और मिट्टी की कच्ची दीवारों का न होना आदि बताते हैं कि ऐसे गांव भी शहरीकरण की प्रक्रिया से अछूते नहीं रहे हैं. बनारसी पान की लाली में फास्ट फूड, चिप्स/कुरकुरे और पेय पदार्थों का तड़का लगना भी इस बात का संकेतक है कि धन्नीपुर में शहरीकरण की प्रक्रिया अपनी रफ़्तार से जारी है. लेकिन इस प्रक्रिया को आईना दिखाने का काम किया है यहां रह रहे ज़्यातर लोगों के छत और छप्परों की सुराखों ने.
लगभग चार हज़ार आबादी वाला गांव धन्नीपुर आज अपनी किस्मत पर रो रहा है. धन्नीपुर गांव के नाम में नयी बस्ती जुड़ा होना इस बात का संकेतक है कि यह गांव कोई मामूली गांव नहीं है बल्कि गांवों की श्रृंखला में कोई मॉडल गांव है. लेकिन पीढ़ियों की एक बड़ी खेप निकल जाने और विकास के नए आयाम स्थापित होने वाले सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक मानकों के बावजूद धन्नीपुर नयी बस्ती में जिंदगी की गाड़ी अभी भी पुराने पहियों पर ही दौड़ रही है. मानव विकास के हर पैमाने पर इस गांव का सूचकांक ऐसी जगह जाकर ठहरा हुआ है, जहां से इसका स्वत: आगे बढ़ना और विकास की मुख्य धारा में शामिल होना काफी मुश्किल है. बनारस शहर से 11 किमी की दूरी पर स्थित लोहता बाज़ार के ठीक पीछे स्थित इस गांव का अस्तित्व वैसे तो किसी सुनियोजित योजना के तहत नहीं हुआ है. लेकिन पिछले लगभग 40 बरसों से इस गांव के गली-कूचे में आते-जाते लोगों के कदम इस बात के गवाह ज़रूर बने हैं कि धन्नीपुर भारत के उन उपेक्षित गांव-कस्बों में है, जहां से नगरों और महानगरों में होने वाले अरबों-खरबों रूपए के उद्योग और व्यापार के लिए सस्ते मानव श्रम की आपूर्ति होती रही है. लेकिन अथक परिश्रम करने और बनारसी होने की ऐतिहासिक पहचान होने के बाद भी यह गांव और यहां के निवासी शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मानजनक आजीविका के अवसरों से वंचित हैं. कम से कम निसार अंसारी, अब्दुल अहद, रुबीना, शहीदा, रिजवाना, अफसाना, तहज़ीब, अशफ़ाक़ और महमूद भाई जैसे धन्नीपुर के बुनकरों के जीवन का संघर्ष ऐसी ही कहानियां कहती हैं.
मौसम चाहे कोई हो, धन्नीपुर में दु:ख और परेशानी कम होती नहीं दिखती है. अगर मानसून की बात करें तो किसानों से लेकर देश के अर्थशास्त्री और प्रधानमंत्री की निगाह मानसूनी बारिश पर टिकी रहती है. क्योंकि समय से बारिश न सिर्फ फसल और पैदावार के लिए अच्छी मानी जाती है बल्कि इसका असर देश के सकल घरेलू उत्पाद, मुद्रा स्फीति और महंगाई के सूचकांक पर भी पड़ता है. हमारे देश और समाज की विडंबना यह है कि बारिश की आस में आसमान की ओर टकटकी लगाए किसानों की आंखों में तैरते दु:ख का सागर हमारे राजनेताओं को नज़र आ जाता है, लेकिन कृषि के बाद रोजगार उपलब्ध कराने वाला देश का दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र हैंडलूम और पावरलूम किंचित कारणों से हाशिए पर चला जाता है. अफसोस की बात है कि दिन-रात मेहनत करने वाले बुनकरों का पहाड़ सा दु:ख किसी को नज़र नहीं आता है. गौरतलब है कि जिन बुनकरों की मेहनत से खड़ी होने वाली पूंजी देश के जीडीपी यानि सकल घरेलू इत्पाद का हिस्सा बनती है, इस जीडीपी से बनने वाली योजनाओं तक हाशिए के बुनकर अभी भी नहीं पहुंच पा रहे हैं. निश्चित तौर पर धन्नीपुर के मास्टर बुनकर के पास आज की शब्दावली में बी.टेक., एम.टेक. जैसी महंगी डिग्रियां या आई.टी.आई. जैसा डिप्लोमा नहीं है. लेकिन इनका परंपरागत ज्ञान बहुत ही समृद्ध है. बुनकरों के परंपरागत ज्ञान को अगर मौजूदा दौर में प्रचलित तकनीकी शिक्षा के मानकों पर परखा जाए तो यह ज्ञान आज की प्रोफेशनल डिग्रियों से कहीं अधिक बड़ा है. ज़रूरत इस बात की है कि बुनकरों की लाजवाब कर देने वाली कला और परंपरागत ज्ञान का उचित सम्मान किया जाए. ऐसा सम्मान जो लक्षित योजनाओं की भूल-भूलैया से आज़ाद हो.
धन्नीपुर इन गांवों में शामिल है जहां थोड़ी देर की बारिश के बाद कीचड़ और जल जमाव को गली-कूचे का आभूषण बनते देखा जा सकता है. ऐसे में गली की तंगी कम होने के बजाय लंबाई और चौड़ाई के अनुपात में बढ़ जाती है. अगर कोई बीमार पड़ जाए और उसे डॉक्टर के पास ले जाने की ज़रूरत हो तो यह काम किसी कठिन चुनौती से कम नहीं होता.
धन्नीपुर की हालत भारत के उन गांवों जैसी है जिनकी आवाज़ कई दशकों के बाद भी प्रदेश और देश की राजधानी तक नहीं पहुंच पायी है. शायद यही वजह है कि धन्नीपुर जैसे गांवों और बस्तियों में विकास का दीपक आज भी बुझा हुआ नज़र आता है. धन्नीपुर उन गांवों और बस्तियों का प्रतीक जान पड़ता है, जो तमाम वैज्ञानिक प्रगति और शहर के करीब होते हुए भी शिक्षा, स्वास्थ्य और सफाई जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं. धन्नीपुर वाराणसी जिला मुख्यालय से महज 11 किमी की दूरी पर स्थित है. समझा जा सकता है कि जिस गांव की आवाज 11 किमी की दूरी पर बैठे जिला और मंडल स्तर के मोहकमों और अधिकारियों तक नहीं पहुंच पा रही है, उसकी आवाज़ लगभग 318 किमी दूर स्थित प्रदेश की राजधानी लखनऊ और वाराणसी से लगभग 793 किमी दूर स्थित देश की राजधानी नई दिल्ली तक कैसे पहुंचेंगी. पिछले 40 सालों में निसार भाई जैसे बहुत से कारीगरों को बेवक्त ही मौत का शिकार होना पड़ा है. कल्याणकारी राज्य और विकसित होती अर्थव्यवस्था में ऐसी मौतें जन-धन का नुकसान हुआ करती हैं. निसार भाई जैसे बुनकर अभी जिऩ्दा हैं. कभी दस्तकार पहचान कार्ड तो कभी स्वास्थ्य बीमा कार्ड लेकर इधर-इधर मोहकमों का चक्कर भी लगाते हैं. लेकिन शासन और प्रशासन के कान पर जूं तक नहीं रेंगती. जूं रेंगेगी भी क्यूं? धन्नीपुर जैसी बस्तियां और गांव या तो लक्षित योजनाओं की प्राथमिकता सूची में शामिल किए जा चुके हैं या फिर योजनाओं से पूरी तरह बेदखल हैं.
धन्नीपुर इन गांवों में शामिल है जहां थोड़ी देर की बारिश के बाद कीचड़ और जल जमाव को गली-कूचे का आभूषण बनते देखा जा सकता है. ऐसे में गली की तंगी कम होने के बजाय लंबाई और चौड़ाई के अनुपात में बढ़ जाती है. अगर कोई बीमार पड़ जाए और उसे डॉक्टर के पास ले जाने की ज़रूरत हो तो यह काम किसी कठिन चुनौती से कम नहीं होता. अगर मामला आपात स्वास्थ्य सुविधा जैसे प्रेगनेंसी का हो तब तो इन गलियों के कीचड़ से बाहर निकलते-निकलते महिला की मृत्यु भी मुमकिन है. कुछ ऐसा ही हाल शिक्षा का भी है. यहां आंगनबाड़ी केन्द्र (आई.सी.डी.एस.) तो है लेकिन बस्ती में किसी स्कूल की गैर मौजूदगी धन्नीपुर के बच्चों को बचपने में ही हाशिए तक पहुंचाने में उत्प्रेरक का काम करती है. गांव में समुदाय द्वारा संचालित मदरसा अवश्य है लेकिन जल-जमाव और कीच़ड वाली गलियों से मदरसों तक का रास्ता तय करना नन्हे-मुन्नों के लिए किसी बड़ी परेशानी को दावत देने से कम नहीं है. कहना पड़ रहा है कि धन्नीपुर के जो हालात हैं, उसमें यहां के बच्चों की ज़ुबान से नन्हा-मुन्ना राही हूं, देश का सिपाही हूं. जैसा गीत निकल ही नहीं सकता है. इसकी एक बड़ी वजह इन बच्चों का ताना-बाना की कारीगरी में मददगार के तौर पर काम करना है. कहना होगा कि अगर बच्चों को काम से अलग कर दिया जाए तो बहुत से घरों में चूल्हा जलाना मुश्किल हो सकता है.
धन्नीपुर आधुनिक भारत के उन गांवों में है, जहां शहरीकरण के कुछ प्रतिनिधि तत्व जैसे ईंट की दीवारों का होना और मिट्टी की कच्ची दीवारों का न होना आदि बताते हैं कि ऐसे गांव भी शहरीकरण की प्रक्रिया से अछूते नहीं रहे हैं. बनारसी पान की लाली में फास्ट फूड, चिप्स/कुरकुरे और पेय पदार्थों का तड़का लगना भी इस बात का संकेतक है कि धन्नीपुर में शहरीकरण की प्रक्रिया अपनी रफ़्तार से जारी है. लेकिन इस प्रक्रिया को आईना दिखाने का काम किया है यहां रह रहे ज़्यातर लोगों के छत और छप्परों की सुराखों ने. निसार भाई के घर में इस बार पक्की ईंटों की चिनाई नज़र आई लेकिन टीन का शेड और शेड के नीचे पावरलूम मशीनों के साथ जिंदगी की जंग लड़ती बीवी, दो बेटियों और एक बेटे व बहू का संघर्ष भी नज़र आया. बारिश धन्नीपुर में सिर्फ गलियों को ही कीचड़मय नहीं बनाती है बल्कि टीन शेड और खपरैल के छप्परों से रिस-रिस कर नीचे गिरने वाली बारिश की बूंदे बुनकर मज़दूरों के हथकरघे की गति को भी स्थिर कर देती हैं. क्योंकि बुनकरों के समक्ष ताना-बाना और जकाट को बचाने की चुनौती होती है. काम रुकने से उत्पादन प्रभावित होता है. यह स्थिति किसानों की उस स्थिति से साम्य रखती है, जब अचानक से ओला पड़ जाए या सूखा पड़ जाए और मेहनत के दम पर खड़ी पूंजी बरबाद हो जाए. धन्नीपुर के बुनकरों की हालत कुछ ऐसी ही है. देखने पर ऐसा लगता है कि समय काटना ही एक काम रह गया है. यह विचार का विषय है कि प्रधानमंत्री द्वारा घोषित हालिया फ्लिपकार्ट जैसी बाजार की युक्ति किस तरह इन बुनकरों की ज़िंदगी में उजाला लाएगी, क्योंकि जब उत्पादन ही नहीं होगा तो बाज़ार में बेचने के लिए उत्पाद कहां से लाया जाएगा. माध्यम चाहे वाराणसी का चौक हो या फिर फ्लिपकार्ट सदृश ऑन लाइन मार्केटिंग की सुविधा हो.
उत्पादन को प्रभावित करने वाली एक वजह यह भी है कि थोड़ी देर की बारिश में धन्नीपुर की गलियां पानी से सराबोर हो जाती हैं. बहुत से घरों में पानी भर जाना आम बात है. इस आम बात में यह भी शामिल है कि इससे ढेरों हथकरघों के ताने-बाने बुरी तरह प्रभावित होते हैं. काबिले जिक़्र है कि हथकरघों को चलाने के लिए एक व्यक्ति को गड्ढे में पैर करके घंटों बैठना पड़ता है. कहने को धन्नीपुर की गलियों में सीवर भी बिछाया गया है, लेकिन महमूद भाई के शब्दों में यह काम कुछ गलियों में ही हुआ है. धन्नीपुर की अधिकतर गलियां आज भी जल-जमाव से मुक्ति का रास्ता ढूंढ रही हैं. कई बार ऐसा भी महसूस होता है कि यहां लोग किसी तरह पेट पालते हुए किसी मसीहा की प्रतिक्षा में हैं जो फिल्म के एंग्रीयंग मैन नायक की तरह आए और उन्हें उनकी समस्या से निजात दिलाए. ऐसी बात सुनने में अच्छी ज़रूर लगती है, लेकिन ऐसी बातें राज्य और संविधान की असफलता की कहानियां भी उजागर करती हैं. क्योंकि हम एक ऐसे लोकतंत्र में हैं जहां नागरिक के अधिकार और कर्तव्य लिखित तौर पर सुनिश्चित किए गए हैं.
धन्नीपुर के लोगों ने तथाकथित मुख्य धारा के बाज़ार की वस्तुओं का उपभोग तो सीख लिया लेकिन एक नागरिक की हैसियत से अपने घर-गांव की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में आज भी अक्षम हैं. सवाल लाज़मी है कि नई सरकार के गठन के बाद जब बनारस को नई दृष्टि से देश और दुनिया में देखा जा रहा है और यहां के बुनकरों को बाज़ार से जोड़ने के लिए फ्लिपकार्ट जैसे ऑनलाइन मार्केटिंग से जोड़ने की मुहिम में खुद प्रधानमंत्री जी जुटे हैं, तो ऐसे में धन्नीपुर और यहां के बुनकरों के चेहरों पर मायूसी क्यों छाई हुई है? सवाल यह भी है कि दस्तकार पहचान कार्ड और स्वास्थ्य बीमा वाले आईसीआईसीआई लोम्बार्ड वाले कार्ड कब इनके काम आएंगे? मुमकिन है ऑनलाइन मार्केटिंग से जोड़ने की मुहिम में इनके पास फ्लिपकार्ट कम्पनी भी कार्ड मुहैया कराने की कोई योजना पर अमल करे और बुनकरों के पास कार्डों की संख्या एक अदद और बढ़ जाए. लेकिन सच्चाई यही है कि महज कार्डों की उपलब्धता से उनके जीवन में नया सवेरा नहीं होने वाला जब तक कि उनकी समस्याओं पर प्राथमिकता के अनुसार पुनर्विचार न किया जाए. ऐसा करना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि किसी भी आधार पर नागरिकता के बुनियादी अधिकारों और सुविधाओं से वंचना भारतीय संविधान में समाहित कल्याणकारी राज्य और लोकतांत्रिक भावना के खिलाफ है.