अपनी मस्ती में मदमस्त काका जी न सरकार चला पाए, न विपक्ष की भूमिका निभाने की सलाहियत उनमें है…! चंद माह की सरकार में अपनों से दूर रहे, सरकार से दूर हुए तो विरोधियों के साथ जा बैठे, अपनों की खरी-खोटी सुनने के दिन आए तो आंखें मलते हुए उठ खड़े हुए हैं, यलगार हो कहते हुए…!
दो महीने का हुआ जा रहा किसान आंदोलन काकाजी के पल्ले देर से पड़ा है शायद…! अब कह रहे हैं चक्के रोकेंगे, मांगें गिनवाएंगे, कानून वापस करवाएंगे…! कहने वाले कह रहे हैं, रहने दो काकाजी, आपके बस का नहीं है…! वैसे भी आप इशारा दे चुके हो, घर वापसी कर लो, सुकून से नाती-पोतों के साथ बैठो और शिव नाम जपो…!
जिनको बेदखल कर पार्टी के प्रदेश मुखिया बने थे, वे हर जगह काकाजी को मुंह चिढ़ाते नजर आ रहे हैं…! किसानों से लगाव को दिखाने के लिए ट्रेक्टर से लेकर रैलियों तक पर छा रहे हैं…! कहा जा रहा है कि सिग्नल ऊपरी हैं, इसलिए काकाजी ने उनके लिए रास्ता छोड़ दिया है…!
भोपाल में आंदोलन होता है तो दिल्ली जा बैठते हैं… ग्रामीण इलाकों में किसानों की पुकार उठाते पार्टीजन निकलते हैं तो भोपाल में बैठे रहते हो… मन जान नहीं पा रहे हैं कि आखिर चाहते क्या हो…? कभी कहते हो सन्यास लूंगा, कभी कहते हो कि कहीं नहीं जाने वाला, न राजनीति से न राजधानी से…!
काकाजी एक काम तो किया ही जा सकता है, कुछ दिन का एकांतवास लो, सुकून से पहाड़ियों, खुली हवाओं, प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लो… फिर तय करके आओ कि ये दुनिया, ये मेहफिल, मेरे काम की नहीं… और कमंडल उठाकर अपने पुराने ठिकाने की तरफ निकल जाओ, वैसे भी वहां दो बुजुर्गों की जगह खाली हो गई है…!
पुछल्ला
नई लामबंदी का दौर
अपनों से मुश्किलें मिलना मामा की किस्मत में तबसे ही लिखा है, जबसे वे प्रदेश की बागडोर संभालने आए थे। साथ रहते लोगों ने कुर्सी खींचने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन मामा ने सबको ठिकाना दिखाते हुए चौथे कार्यकाल में प्रवेश कर लिया। अब मुश्किल दो तरफा आई है। दोनों का ताल्लुक दिल्ली से ही है। लेकिन सारा ध्यान प्रदेश की सियासत को अस्थिर करने पर है। अपनी कोशिशों से थके लोगों ने भी नए ठिकानों की चौखट बरदारी तेज कर दी है। उन्हें भी अपने थके प्रयासों को कोई फ्रेश टक्कर से नई उम्मीदें जाग चुकी हैं।
खान अशु