एक दार्शनिक ने कहा था कि यदि कोई मनुष्य खाली रहता है, तो वह दूसरे मनुष्य की नक़ल करता है. भाजपा यही कर रही है. भाजपा ने अपने तीन वर्ष के शासनकाल में ऐसा क्या किया है, जो कांग्रेस के दस साल के काम से अलग है? दरअसल, भाजपा कांग्रेस की नक़ल के मामले में कांग्रेस को ही पीछे छोड़ रही है. चाहे मनरेगा हो या आधार. भाजपा के पास नई योजनाएं कहां हैं? ये सारी योजनाएं जनसंघ की वास्तविक योजनाएं नहीं हैं. लेकिन सवाल ये है कि क्या हमारे पास कोई वैकल्पिक सोच है?
पिछले कुछ महीनों में देश का राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल चुका है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव जीतने के बाद, देश के अधिकतर राज्यों में भाजपा का शासन स्थापित हुआ है. भाजपा मजबूत हुई है. दिल्ली नगर निगम चुनाव के नतीजों ने इस दावे को अतिरिक्त मजबूती प्रदान की है. भाजपा के लोगों, उसके समर्थकों और वोटर्स में यह धारणा बनी है कि देश ने भाजपा को अपना रहनुमा स्वीकार कर लिया है. यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि उत्तर प्रदेश में पिछले दो चुनावों से भाजपा अयोध्या में राम मंदिर के मुद्दे पर चुनाव जीतने की कोशिश कर रही थी.
इस चुनाव में यह मुद्दा तकरीबन नहीं के बराबर था. उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था. इस चुनाव में विकास, रोज़गार, सबका साथ सबका विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर को मुद्दा बनाया गया था. ज़ाहिर है, रोज़गार का अवसर युवाओं को आकर्षित करता है. भारत ने 1947 से लेकर आज तक शानदार तरक्की की है, लेकिन जनसंख्या में वृद्धि के कारण बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है. लिहाज़ा कोई भी दल, चाहे वो जिस दृष्टिकोण का हो, जबतक रोज़गार उपलब्ध कराने और क्रयशक्ति बढ़ाने का वादा नहीं करता, युवा उसकी ओर आकर्षित नहीं होते.
क्या हमारे पास कोई वैकल्पिक सोच है
भाजपा की जीत को लेकर संघ परिवार के लोग दावा कर रहे हैं कि ये संघ के दृष्टिकोण की जीत है. ज़ाहिर है, किसी मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण रखने के लिए हर शख्स स्वतन्त्र है. यहां मैं यह सा़फ कर दूं कि कांग्रेस से मेरा कोई लेना-देना नहीं है. दस वर्षों के अपने कार्यकाल में कांग्रेस ने अनेक गलतियां की हैं, जो उसकी पराजय का कारण बनीं. पिछले दिनों भाजपा से जुड़े एक मित्र से बातचीत हुई. उनका कहना था कि नरेंद्र मोदी आज देश के एकमात्र सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं. किसी भी दल में ऐसा कोई नेता नहीं, जो उनके करिश्मा, उनकी भाषण शैली और उनकी लोकप्रियता का मुकाबला कर सके. दूसरी बात यह कि कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के कई आरोप हैं, जबकि भाजपा के तीन वर्षों के शासनकाल में भ्रष्टाचार का कोई बड़ा मामला उजागर नहीं हुआ है. मैं उनकी बातों से सहमत हूं, लेकिन एक संशोधन के साथ. 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद लाइसेंस के बदले पैसा लेने के अवसर समाप्त हो गए थे.
किसी भी राजनैतिक दल को चुनाव लड़ने और सत्ता में बने रहने के लिए पैसों की आवश्यकता होती है. कांग्रेस ने आर्थिक संसाधनों, चाहे वो कोयला हो या स्पेक्ट्रम आवंटन, को पैसे इकट्ठे करने के नए उपाए के तौर पर अपनाया. सुप्रीम कोर्ट ने 2जी और कोल ब्लॉक आवंटन को रद्द कर दिया. यह सही है कि भाजपा पर अभी तक किसी बड़े घोटाले के आरोप नहीं लगे हैं, लेकिन यह मानना पड़ेगा कि कोल ब्लॉक आवंटन और 2जी लाइसेंस के बदले पैसा उगाही की संभावना खत्म हो गई है. सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि इनका आवंटन अब बोली लगाकर की जाए. जबतक भाजपा पैसे की उगाही का कोई नया तरीका नहीं ढूंढ़ लेती, तब तक उस पर किसी बड़े घोटाले का आरोप नहीं लग सकता. लिहाज़ा भाजपा के शासन में कोई बड़ा घोटाला नहीं हुआ है, इस दावे को स्वीकार कर लेने में भी कोई हर्ज़ नहीं है.
अब सरकार से जुड़े सकारात्मक पक्ष की तरफ लौटते हैं. भाजपा ने अपने तीन वर्ष के शासनकाल में ऐसा क्या किया है, जो कांग्रेस के दस साल के काम से अलग है? अब तक कोई भी ऐसी योजना नहीं दिखी है, जिसे भाजपा ने शुरू किया हो और जो देश में पिछले 70 साल से होता आ रहा हो, उससे अलग हो. दरअसल, भाजपा कांग्रेस की नक़ल के मामले में कांग्रेस को ही पीछे छोड़ रही है. मिसाल के तौर पर, प्रधानमंत्री ने संसद में स्वयं कहा कि मैं मनरेगा को समाप्त नहीं करूंगा क्योंकि मैं चाहता हूं कि लोग देखें कि यह किस तरह का घपला था. फिलहाल, गरीबी उन्मूलन के लिए वे मनरेगा पर भरोसा कर रहे हैं और उसे प्रोत्साहित भी कर रहे हैं.
उसी तरह, आधार कार्ड का मामला है. जब तक भाजपा विपक्ष में थी, आधार की आलोचना करती रही, लेकिन सत्ता में आने के बाद भाजपा आधार को हर एक चीज़ का आधार बना देना चाहती है. इसमें डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर भी शामिल है. डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर चिदंबरम के दिमाग की उपज थी. भाजपा के पास नई योजनाएं कहां हैं? जो योजनाएं हैं, उनका श्रेय या तो चिदंबरम को जाता है या सोनिया गांधी की नेशनल एडवाइजरी काउंसिल को. ये सारी योजनाएं जनसंघ की वास्तविक योजनाएं नहीं हैं. बहरहाल, सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या हमारे पास कोई वैकल्पिक सोच है?
मौजूदा सरकार कांग्रेस प्लस गाय
यह सही है कि 70 साल के बाद नेतृत्व बदला है. आरएसएस की सोच सत्ता में आई है. तो क्या आरएसएस उस सोच का एक छोटा सा हिस्सा भी लागू कर पाई है? सुषमा स्वराज ने जोश में कह दिया कि भगवद्गीता को भारत का पवित्र ग्रन्थ घोषित कर देना चाहिए. प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि देश में केवल एक राष्ट्रीय किताब है और वो है भारत का संविधान. संघ परिवार कई प्रो-हिन्दू या प्रो-हिंदुत्व योजनाएं लागू करवाना चाहता है. गाय एक बड़ा मुद्दा है. भाजपा के एक पुराने नेता अरुण शौरी ने दो साल पहले कहा भी था कि मौजूदा सरकार, कांग्रेस प्लस गाय सरकार है.
अब गाय का मुद्दा ही देखिए. गाय को लेकर एक थिंक टैंक होना चाहिए. इस पर बहस होनी चाहिए. एक नीति होनी चाहिए, जो कहीं दिखाई नहीं देती है. गाय के नाम पर किसी के ऊपर कीचड़ उछालना, बीफ खाने का आरोप लगा कर किसी की हत्या कर देना राष्ट्रीय नीति नहीं है. यह लचर रवैया है. यह मुसलमानों में डर की भावना पैदा करना है. लोगों ने लोक सभा में 281 सीटें देकर नरेंद्र मोदी में अपना भरोसा जताया था. अभी नरेंद्र मोदी के पास दिखाने के लिए क्या है? कुछ भी नहीं है! कोई भी एक अनोखी योजना नहीं है जो कांग्रेस से अलग हो.
इस देश में ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है जो गाय को पूजते हैं. लेकिन आप देश के उत्तर पूर्वी क्षेत्र में जाएंगे तो वहां बीफ लोगों का मुख्य भोजन है. गोवा, जहां भाजपा सत्ता में है, लोग गोमांस खाते हैं. सवाल है कि नीति आयोग क्या कर रहा है? फिलहाल उसे इस मुद्दे पर एक राष्ट्रीय नीति बनाने की ज़रूरत है. यह कहा जा सकता है कि आज देश में जो सरकार है, वो कांग्रेस का विकल्प नहीं, बल्कि कांग्रेस का स्थान लेने वाली सरकार है. एक आदमी गया, उसकी जगह दूसरा आ गया. कागज़ी कार्यवाही वैसी ही है, नौकरशाही वही है, कार्यप्रणाली वैसी ही है.
ये नई शैली की राजनीति नहीं है
सवाल है कि क्या इस देश में अलग तरह की शासन व्यवस्था की सम्भावना है? यह बेहतर होगा यदि भाजपा ये मान ले कि हमारे पास संख्या बल तो है, लेकिन हम कुछ नया नहीं कर सकते हैं, क्योंकि संविधान हमारे सामने है. स्वतंत्रता संग्राम के मूल्य संविधान में शामिल हैं. पहले की सरकारों से अलग, कोई भी प्रधानमंत्री पांच से दस प्रतिशत से अधिक अलग कुछ भी नहीं कर सकता है. समस्याएं एक जैसी हैं, समाधान भी एक जैसे हैं. कोई क्रान्तिकारी बदलाव केवल तानाशाही में ही मुमकिन है. भाजपा को राजनीति के नए प्रतिमान स्थापित करने चाहिए. मिसाल के तौर पर, गोवा में भाजपा को ये घोषणा करनी चाहिए थी कि कांग्रेस ने 17 सीटें जीती हैं और हमने 13 सीटें जीती हैं, इसलिए हम विपक्ष में बैठेंगे.
ये राज्यपाल का सिरदर्द है कि वो कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए बुलाते हैं या नहीं बुलाते हैं. ये होती नई शैली की राजनीति. लेकिन भाजपा ने वही किया जो कांग्रेस किया करती थी. गोवा से बदतर उदाहरण मणिपुर का था. भाजपा सिर्फ और सिर्फ कांग्रेसी संस्कृति को दोहरा रही है. नजमा हेपतुल्ला और मृदुला सिन्हा इन दोनों राज्यों में भाजपा नियुक्त राज्यपाल हैं. वहां सरकार बनाना कानून के मुताबिक है, संविधान सम्मत है. लिहाज़ा, मैं इसमें कोई गलती नहीं देखता. लेकिन, यह नई शैली की राजनीति नहीं है.
उत्तराखंड में भाजपा ने कांग्रेसियों को पार्टी में शामिल कर चुनाव लड़ा और सरकार बना ली. सवाल है कि उन्हीं पुराने चेहरों के साथ भाजपा नई सरकार, नई शासन व्यवस्था कैसे दे सकती है? जो काम कांग्रेस ने 1952 से 1967 के दौरान किया, वही काम अब भाजपा कर रही है. इन शुरुआती 15 वर्षों में हर जगह कांग्रेस ही कांग्रेस थी. जब 1967 के बाद लालबहादुर शास्त्री और जवाहरलाल नेहरू नहीं रहे तो पहली बार 1967 में संयुक्त विधायक दल या इस तरह की व्यवस्था उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार में आई. चौधरी चरण सिंह, गोविन्द नारायण सिंह और कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने. लेकिन इनकी अवधि बहुत छोटी थी.
सवाल है कि कांग्रेस के जो लोग भाजपा में शामिल हो रहे हैं, क्या वे जनसंघ की मानसिकता को भी अपना लेंगे? मैं यह ज़रूर कह सकता हूं कि वे उस तरह से अनुशासित नहीं किए जा सकते, जिस अनुशासन के संघ के लोग आदि हैं. हालांकि, अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी, लेकिन देखते हैं कि उत्तराखंड की सरकार कैसे काम करती है, उत्तर प्रदेश की सरकार कैसे काम करती है? लेकिन भाजपा की दूसरी सरकारों की स्थिति भी बहुत अलग नहीं है. गुजरात में एक लम्बे समय से उनकी सरकार है, वहां तो ठीक है, लेकिन महाराष्ट्र में क्या स्थिति है? वहां शिव सेना है. वहां अहंकार इतना अधिक है कि भाजपा, शिव सेना के साथ समन्वय नहीं बिठा पा रही है.
कश्मीर पर भाजपा क्या सोचती है
ये मान लेते है कि गरीबी है, बेरोज़गारी है, एक दिन में औद्योगीकरण नहीं किया जा सकता है, इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास धीरे धीरे होता है. लेकिन, कश्मीर जैसे बड़े मुद्दों पर भाजपा क्या कर रही है? कश्मीर पर सिवाय यह कहने के कि नेहरू ने वहां गलती की, भाजपा ने क्या किया? बेशक, नेहरू ने वहां गलती की, क्योंकि वे भगवान नहीं थे. उस गलती की जिम्मेदारी मौजूदा सरकारों की है. समस्या का समाधान करना है. क्या भाजपा ने कश्मीर को लेकर एक भी ऐसा काम किया है जो कांग्रेस से अलग है? कुछ भी नहीं! अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के साथ बातचीत की शुरुआत की और समस्या का समाधान तलाश करने की कोशिश की. भाजपा ये काम भी नहीं कर रही है.
मोदी के मौजूदा रुख से यह लगता है कि वे कश्मीर समस्या का समाधान सुरक्षा बलों की सहायता से करवाना चाहते हैं. अगर सुरक्षाबलों के हाथों सभी समस्याओं का समाधान मुमकिन होता तो आज पाकिस्तान एक बहुत ही समृद्ध देश होता. कश्मीर एक संवेदनशील मुद्दा है. भाजपा हमेशा सरदार पटेल का गुणगान करती है. सरदार पटेल कश्मीर मामले में स्पष्ट थे. उनका मानना था कि कश्मीर मुस्लिम बहुल राज्य है, लिहाज़ा उसे पाकिस्तान को दे देना चाहिए. यह हकीकत है कि नेहरू को कश्मीर से लगाव था, क्योंकि वे एक कश्मीरी पंडित थे. यदि नेहरू से गलती हुई और भाजपा अगर समस्या का समाधान सरदार पटेल की सोच के मुताबिक करना चाहती है, तो यह मसला कल ही हल हो जाएगा.
भाजपा को बताना चाहिए कि कश्मीर पर उसका नजरिया पहले की सरकारों से कैसे अलग है? क्या आरएसएस यह बोल सकता है कि कश्मीर को पाकिस्तान के हवाले कर दिया जाए? नहीं. मुशर्रफ जब भारत आए थे तो उन्होंने कहा था कि कश्मीर विभाजन का एक अपूर्ण एजेंडा है. कई लोगों ने भाजपा को यह सुझाव दिया था कि उन्हें उनके ही जाल में फंसाया जाए. उनसे कहा जाए कि यदि वे सोचते हैं कि विभाजन अपूर्ण एजेंडे का हिस्सा है तो विभाजन के बाद जो मुसलमान यहां रह गए थे वे भी उसी अपूर्ण एजेंडे का हिस्सा हैं. आखिरकार देश का विभाजन दो राष्ट्र के सिद्धांत पर हुआ था.
कांग्रेस ने दो राष्ट्र के सिद्धांत को निरस्त कर दिया था. आरएसएस को मुशर्रफ से यह कहने से कोई नहीं रोक रहा था कि आइए दो राष्ट्र के सिद्धांत को मान लेते हैं. एक मुस्लिम राष्ट्र होगा, एक हिन्दू राष्ट्र होगा. लेकिन इस तरह का एक भी साहसी बयान न तो आरएसएस की तरफ से आया और न ही विश्व हिन्दू परिषद की तरफ से. उनका एकमात्र खेल यह है कि नेहरू को दोष दो, कांग्रेस को दोष दो, मुसलमानों पर दबाव बनाओ. फिलहाल हमें इस मुद्दे पर नई सोच की ज़रूरत है, लीक से हटकर सोचने की ज़रूरत है.
यदि भाजपा कांग्रेस की पैरवी कर रही है, तो उसे पाकिस्तान के साथ बातचीत की शुरुआत कर देनी चाहिए. बातचीत नहीं रुकनी चाहिए, भले ही उसे कुछ हासिल हो या न हो. यह बातचीत द्विपक्षीय हो और बिना किसी तीसरे पक्ष की भागीदारी के हो. लेकिन, जैसे ही पठानकोट की तरह कोई आतंकी कार्रवाई होती है तो भाजपा कहती है कि हम बातचीत नहीं करेंगे. फिर समस्या का समाधान कैसे निकलेगा? पठानकोट नवाज़ शरीफ ने नहीं किया था. जिसने भी यह काम किया, उसका यह मकसद था कि बातचीत की प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न की जाए और सरकार उस जाल में फंस जाती है, जबकि सरकार को कहना चाहिए था कि बातचीत जारी रहेगी.
संघ, मोदी और बापू
नए विचारों को अपनाने की आवश्यकता है. यदि भाजपा को लगता है कि कांग्रेस का रुख सही है, तो इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है. 1947 से 2014 (जब मोदी ने सत्ता संभाली) के दौरान भारत ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है. दुनिया के किसी भी देश की तुलना में भारत ने बेहतर प्रदर्शन किया है. 1947 और आज के आंकड़ों की तुलना कीजिए, तो चाहे वो शिक्षा, स्वास्थ्य या इन्फ्रास्ट्रक्चर हो, दुनिया का कोई भी देश लोकतांत्रिक ढंग से ये उपलब्धि हासिल नहीं कर पाया है.
चीन की मिसाल दी जा सकती है, लेकिन वहां लोकतंत्र नहीं है. कोई भी देश यह दावा नहीं कर सकता कि एक व्यक्ति एक वोट, पूर्ण साक्षरता का अभाव, अन्धविश्वास और धर्मान्धता के बावजूद हमने इतनी दूरी तय की है. चुनाव के दौरान कांग्रेस को भला-बुरा कहने में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन कम से कम चुनाव के बाद तो सच्चाई स्वीकार करनी चाहिए. सच्चाई यह है कि कांग्रेस ने बेहतर काम किया है. कुछ लोग घोटालों में भी शामिल रहे हैं, लेकिन उनके लिए कानून है.
सरकार कार्रवाई कर सकती है. सवाल यह है कि भारत की केवल एक प्रतिशत आबादी कश्मीर में रहती है. मौजूदा सरकार उस आबादी का दिल जीतना चाहती है या केवल वहां की ज़मीन चाहिए. भारत एक विस्तारवादी शक्ति नहीं है. हम किसी देश पर क़ब्ज़ा जमाना नहीं चाहते. दिक्कत ये है कि भाजपा कांग्रेस का विकल्प तो है, लेकिन उसके पास वैकल्पिक नीति नहीं है. वैकल्पिक नीति तलाशने में मोदी सक्षम हैं. मोदी कह सकते हैं कि अब मैं सत्ता में हूं और संघ परिवार की सोच को लागू करूंगा.
आरएसएस ने गांधी जी को कभी भी राष्ट्रपिता के रूप में स्वीकार नहीं किया है. वे कहते हैं कि राष्ट्र का कोई पिता नहीं हो सकता. लेकिन मोदी होशियार हैं. वे जानते हैं कि रामायण और महाभारत की तरह गांधी भारतीयों के खून में शामिल हैं. सत्ता संभालने के पहले दिन से ही उन्होंने बापू, स्वच्छ भारत और गांधी से जुड़ी चीज़ों को उजागर करना शुरू कर दिया था.
गांधी पर मोदी के इस रुख को स्वीकार करने के लिए आरएसएस तैयार नहीं है. यदि सरकार लोगों की याद्दाश्त से गांधी और नेहरू को निकालने में सफल होती है तो आरएसएस को इस बात से ख़ुशी होगी. लेकिन ऐसा करने के लिए भाजपा को अलग तरह की राजनीति करनी पड़ेगी. फिलहाल उसके पास करने को कुछ भी नहीं है. एक दार्शनिक ने कहा था कि यदि कोई मनुष्य खाली रहता है तो वह दूसरे मनुष्य की नक़ल करता है. भाजपा यही कर रही है.
दबाव की राजनीति!
अच्छा ये होगा कि विकास प्रक्रिया जारी रखी जाए, बुरा यह कि सीबीआई को नियंत्रित किया जाए, आईबी को नियंत्रित किया जाए और सबको ब्लैकमेल किया जाए. मुझे लगता है कि कांगे्रस को अपने काम से खुश होना चाहिए कि किसी अन्य दल के पास उससे अलग विचार नहीं हैं. जो लोग कांग्रेस से जुड़े हुए नहीं हैं, जो आम राजनैतिक विश्लेेषक हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि हम अभी बहुत मुश्किल स्थिति में फंसे हुए हैं. यदि शासन व्यवस्था में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य शामिल नहीं होता, नैतिकता नहीं होती तो भारत एक बनाना रिपब्लिक बन गया होता.
अब कोई मुख्यमंत्री (अरुणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री) ख़ुदकुशी कर ले और 60 पन्नों का नोट छोड़ जाए, तो उस नोट में क्या लिखा है, उसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए. यह देखना चाहिए कि उस मुख्यमंत्री ने क्या कहा. वो एक मरने वाले व्यक्ति की अंतिम घोषणा है, जो किसी भी अदालत में साक्ष्य के तौर पर पेश की जा सकती है. भले ही उसमें मोदी का नाम नहीं हो, सोनिया गांधी का नाम हो.
लेकिन एक बार फिर भाजपा ने कांग्रेस का तरीका अपनाया है कि ऐसी चीज़ों को लोगों को डराने के लिए इस्तेमाल किया जाए. कथित तौर पर उस नोट में जस्टिस खेहर के बेटे का नाम शामिल है और इस तरह से शामिल है कि जस्टिस खेहर कमज़ोर हो जाएं. यदि वाकई उनके बेटे का नाम उसमें शामिल है और उसकी जानकारी उन्हें है, तो उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट और सरकारी एजेंसियों को इस दबाव से बचाना चाहिए. आपातकाल के दौरान सरकार ने ऐसा किया था.
एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट को दबाव में लाकर गलत फैसला दिलवाया गया. ये फैसला सिविल लिबर्टी के खिलाफ था. 4-1 के बहुमत से ये फैसला आया था. पांच जजों की बेंच में केवल जस्टिस एचआर खन्ना ने झुकने से इनकार किया था. जस्टिस चंद्रचूड़, जो उस बेंच में शामिल थे, ने आपातकाल के बाद यह स्वीकार किया था कि उन्हें खेद है कि वे इस गलत फैसले में शामिल रहे. लेकिन सुप्रीम कोर्ट इतना साहस नहीं जुटा पाया कि वोे सही फैसला दे. आज हालत उसी दिशा में जा रहे हैं. आम आदमी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. उसका पक्ष क्या है? वो यह कहता है कि कल कांग्रेस करती थी आज भाजपा कर रही है, उन्हें करने दें. लिहाज़ा आम आदमी इससे प्रभावित नहीं होता.
वो महंगाई, कृषि क्षेत्र से जुड़े मामलों और रोज़गार से प्रभावित होता है. अमित शाह की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने इस खेल को अच्छी तरह से समझा है. उनका मानना है कि बड़ी-बड़ी बातों से कुछ नहीं होता, उनका काम है चुनाव जीतना. चुनाव कैसे जीतना, शायद कांग्रेस जो दांव चलती थी, उससे दो-तीन दांव अधिक चल कर. ज्यादा से ज्यादा पैसा खर्च करके. अब यह पैसा कहां से आएगा? निश्चित रूप से अमीरों के यहां से आएगा. एक-दो नीतियों में यहां-वहां बदलाव करो और पैसा हासिल करो. मीडिया को बहुत सारा पैसा दो ताकि वहां से कोई विरोध ना हो.
यहां यह ज़रूर समझना चाहिए कि जनता भाजपा को वोट नहीं कर रही है. वह उस पार्टी को वोट कर रही है, जो चुनाव लड़ रही है. उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है. कांग्रेस पार्टी एक तरह से अनुपस्थित है. भाजपा वैसे ही जीत रही है, जैसे कभी कांग्रेस जीता करती थी. लोकतंत्र स्थापित होने के पहले 20 वर्षों तक कोई अन्य पार्टी महत्वपूर्ण भूमिका में नहीं थी.
सोशलिस्ट कमज़ोर थे, कम्युनिस्ट छोटे इलाकों तक सीमित थे और जनसंघ लगभग थी ही नहीं. दरअसल आपातकाल के बाद जनता पार्टी ने सत्ता पर क़ब्ज़ा किया लेकिन वो बहुत दिनों तक नहीं चल सकी, क्योंकि उसमें विचारधारा का टकराव था. आज दो चीज़ें तलाशने की आवश्यकता है. पहली यह कि भाजपा की नीयत और नीति क्या है? यदि भाजपा की नीति और नीयत, कांग्रेस की ही नीति और नीयत है, तो यह समझना चाहिए कि यह भाजपा की सरकार नहीं बल्कि कांग्रेस की सरकार एक नए नाम के साथ सत्ता में है.
यदि भाजपा का मुद्दा गाय, मंदिर है तो फिर भाजपा का स्टैंड अलग होना चाहिए. यह भाजपा के लिए ज़रूरी है कि वे जनता को ये बताएं कि उनकी राष्ट्रीय नीति क्या है या ये कहें कि उनकी राष्ट्रीय नीति वही है जो संविधान कहता है. भाजपा देश के लोगों से कहे कि एक संविधान सम्मत सरकार चलाने की कांग्रेस ने अपनी तरफ से बहुत कोशिश की. कांग्रेस नहीं चला सकी, लेकिन हम चलाएंगे. भाजपा ये बताए कि हम भ्रष्टाचार मुक्त रहने की हर मुमकिन कोशिश करेंगे और साथ ही लोगों को यह भी बताए कि (काम करने की) अधिकतम सम्भावना इतनी ही है. देश के लिए, भाजपा को ये काम तो जरूर ही करना चाहिए.
एकदलीय बनाम बहुदलीय बनाम द्विदलीय राजनीतिक व्यवस्था
क्या हमारे यहां द्विदलीय राजनीतिक व्यवस्था ही सही है? दरअसल द्विदलीय व्यवस्था की संभावना है, क्योंकि भाजपा अपने दम पर सत्ता में आई है. लेकिन इस सम्भावना को भी नकारा जा रहा है, क्योंकि मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का वादा किया है. यानि, वे दूसरी पार्टी नहीं चाहते हैं. वे एकदलीय शासन व्यवस्था चाहते हैं. एकदलीय व्यवस्था लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है. यदि कांग्रेस ख़राब है तो उसी तरह भाजपा भी ख़राब है. उसमें भी सत्ता का अहंकार आ गया है. उसने भी नियम तोड़ने शुरू कर दिए हैं.
राज्यपाल केंद्र से डरने लगे हैं. यदि क्रिकेट की भाषा में कहें तो कोई भी अपने क्रीज़ में रह कर बैटिंग नहीं कर रहा है. दुर्भाग्यवश एक दूसरा खतरा यह है कि पिछले 20-30 वर्षों में प्रेस का स्तर बहुत नीचे गिरा है. 1977 तक देश में एक जीवंत प्रेस था, जो इंदिरा गांधी के आपातकाल को भी झेल गया था, लेकिन आज प्रेस पूरी तरह से घुटनों के बल आ गया है. उसे खरीदा जा सकता है और प्रभावित किया जा सकता है. प्रेस में आज सरकारी पक्ष के अलावा कोई अन्य पक्ष पेश नहीं किया जाता.