सचमुच दिलचस्प है। जहां कुछ पार्टियां गाल और ढोल बजाने में ही अपनी सार्थकता मान रही हैं तो कांग्रेस में इन दिनो ‘ईंट से ईंट बजाने’ की बात हो रही है। बावजूद इसके कि सत्ता से लेकर संगठन तक पार्टी की ईंटें खिसकती ही जा रही हैं। क्रिकेट कमेंट्री में अपनी सिद्धू शैली के लिए मशहूर और रियलिटी शो में ठहाके लगाकर पहचान बनाने वाले नवजोत सिंह सिद्धू शायद अपनी उसी शैली में ‘पाॅलिटिकल बैटिंग’ भी कर रहे हैं। कैप्टन अमरिंदरसिंह की विरोधी बाॅल पर सिक्सर मार के पंजाब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बने नवजोत सिद्धू ने अमृतसर में एक कार्यक्रम में कहा कि अगर मुझे निर्णय नहीं लेने दिए गए तो मैं ‘ईंट से ईंट बजा’ दूंगा ! इस गुर्राहट का भावार्थ यही है कि सिद्धू को अमरिंदर खेमा खुलकर वैसी बैटिंग नहीं करने दे रहा है, जैसी कि सिद्धू की फितरत रही है। उधर कांग्रेस आला कमान की स्थिति यह है कि वो गुटबाजी के इस घमासान में किसी की बाॅलिंग को साफ साफ ‘नो बाॅल’ भी नहीं कह पा रहा है।
क्या विडंबना है कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस इन दिनो केवल तीन राज्यों पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपने दम पर सत्ता में है, लेकिन वहां भी अंतर्कलह के चलते ‘ईंट से ईंट से बजा देने’ का युद्ध गीत बज रहा है। ये धमकी भी निर्णायक अधिकार अथवा अनिर्णय की पराकाष्ठा को लेकर है। अपने एक विवादित सलाहकार को हटाने की मजबूरी के बाद सिद्धू ने ‘ईंट से ईंट बजा देने’ की जो धमकी दी है, वह में वास्तव िकसे चुनौती है, इसका अंदाजा राजनीतिक प्रेक्षक लगा रहे हैं। क्या उस आला कमान को जो अपनी पार्टी का पूर्णकालिक अध्यक्ष तक नहीं चुन पा रहा है, उस पार्टी को जो अंदरूनी बगावत को भी ऊर्जा मानकर दिल्ली का खोया तख्त फिर हासिल करने का ख्वाब देख रही है या फिर उन पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को, जिनका फौजी और राजसी व्यक्तित्व अक्सर एक पूर्व क्रिकेटर की राजनीतिक बल्लेबाजी पर भारी पड़ता लगता है?
सिद्धू ने धमकी जिसे भी दी हो, लेकिन उन्होंने ‘निर्णय’ का निर्णायक मुद्दा उठाकर मानो पार्टी की अंतरात्मा पर ही हाथ डाल दिया है। क्योंकि समय पर सही निर्णय नहीं होना, लिए गए निर्णय पर प्रभावी अमल न हो पाना, हर फैसले को खुले आम चुनौती मिलना और इन हालात में नेतृत्व का किंकर्तव्यविमूढ़ भाव में नजर आना अब आम बात हो गई है। पार्टी में पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग साल भर पहले कांग्रेस के जी-23 समूह ने की थी। उस पर निर्णय होना तो दूर चर्चा तक नहीं हुई और जिन नेताअों ने यह मांग की थी, वो आज बाउंड्री पर फील्डिंग करने पर मजबूर हैं। हाॅकी में छोटे पास की माफिक राहुल गांधी हटे तो कमान अंतरिम अध्यक्ष के रूप में वापस सोनिया गांधी के हाथ आ गई। इसके पहले उम्र और स्वास्थ्य के चलते सोनिया गांधी अध्यक्ष पद से हटी थीं तो राहुल के हाथ में कमान दी गई थी। अब राहुल समर्थक उन्हें फिर पुरानी भूमिका में देखना चाहते हैं। लेकिन ऐसा होने या करने से कौन, किसे रोक रहा है, यह यक्ष प्रश्न है। यानी निर्णय लेने की बात हर कांग्रेसी करता है, परंतु कोई अदृश्य साया बस वही नहीं होने देता।
गौर से देखें तो संघर्ष के बाद मिली सत्ता को खुद तिलांजलि देने वाली राजनीतिक पार्टी भी शायद ही कोई दूसरी होगी। मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में उनके समर्थक विधायकों ने खुली बगावत की और कमलनाथ की सरकार गिरा दी। लेकिन आला कमान के माथे पर कोई खास शिकन नहीं दिखाई दी। मप्र के अनुभव के बाद दूसरे राज्यों में सबक लेने के संकेत नहीं दिखाई दिए। आलम यह है कि आज पंजाब और छत्तीसगढ़ में ‘कौन रहेगा मुख्यमंत्री’ का राजनीतिक रियलिटी शो धड़ल्ले से चल रहा है। पंजाब में सिद्धू की पुरजोर कोशिश के बाद भी कैप्टन अमरिंदर अभी तक अपनी कुर्सी बचाने मे कामयाब रहे हैं, लेकिन कब तक, कोई नहीं जानता। यही हाल छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का है। उनमें और पार्टी में उनके प्रतिद्वंद्वी टीएस सिंहदेव के बीच जमकर रस्साकशी जारी है। कहा जा रहा है कि सिंहदेव को राहुल गांधी का समर्थन है। यही बात सिद्धू के मामले में भी कही जा रही है। सिंहदेव का कहना है कि राज्य में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद बघेल और सिंहदेव को ढाई-ढाई साल सीएम बनाने की बात हुई थी। सो अब मेरी बारी है। बघेल इसके लिए तैयार नहीं हैं। वैसे भी कोई एक बार मुख्यमंत्री बन जाए तो उसे पार्टी का मजबूत आला कमान हटा सकता है या फिर भगवान। दिल से इस्तीफा तो कोई सपने में भी देना नहीं चाहता।
वैसे भी सत्ता में ढाई-ढाई साल की भागीदारी के प्रयोग अमूमन फेल ही हुए हैं। जो पहले सत्ता में आता है, वह अंगद को अपना आराध्य मानने लगता है। यहां तो एक ही पार्टी के दो मुख्यमंत्रियों में सत्ता के समान शेयरिंग की बात है, जो बहुत ही अव्यावहारिक है। कमोबेश यही स्थिति राजस्थान में भी है। वहां सचिन पायलट लगातार गहलोत सरकार की जड़ में मट्ठा डालने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन किसी कारण से युद्धविराम की स्थिति में हैं। मप्र में भी भीतरी असंतोष है, जो कभी कभी सतह पर आ जाता है। पंजाब और छत्तीसगढ़ में पार्टी की अखाड़ेबाजी पर जो भी निर्णय ( यदि हो सका तो) होगा तो उसकी छाया राजस्थान में दिखेगी ही। ऐसा नहीं है कि इस तरह बगावत अकेली कांग्रेस में ही हो रही हो, भाजपा में भी होती है ( वामपंथियो को छोड़ ज्यादातर बाकी पार्टियां व्यक्ति केन्द्रित ही हैं, इसलिए वहां बगावत की हिम्मत अमूमन नहीं होती)। लेकिन आलाकमान जल्दी निर्णय तो लेता है। मसलन भाजपा आलाकमान को कर्नाटक में येद्दियुरप्पा मुख्यमंत्री पद से हटाना था तो हटा दिया। यूपी में योगी आदित्यनाथ को (मजबूरी में ही सही) कायम रखना था, सो रखा हुआ है।
लेकिन कांग्रेस में किसी भी मामले में कोई दो टूक संदेश नहीं है। कैप्टन अमरिंदर के बारे में हरीश रावत ने भले कहा कि हो उनके नेतृत्व में ही अगले विधानसभा चुनाव होंगे। लेकिन रावत की यह बात कितने दिन टिकेगी, यह रावत भी नहीं जानते होंगे। क्योंकि अगर ऐसा कोई अंतिम निर्णय हो चुका है तो फिर सिद्धू ‘ईंट से ईंट बजाने’ की हुंकार किस के दम पर भर रहे हैं? अगर सिंहदेव को कहीं ऊपर से अभयदान नहीं है तो वो किस बिना पर बघेल को ‘फिफ्टी-फिफ्टी का फार्मूला याद दिला रहे हैं? क्यों पार्टी विधायकों को भी कांग्रेस महासचिवों की बातों पर भरोसा नहीं होता ? क्यों वो उस दिल्ली दरबार में गुहार लगाने दौड़े आते हैं, जहां मुंसिफ कौन है, यही साफ नहीं है। और यदि बगावत को हवा ऊपर से ही मिल रही हो तो नीचे वाले किसकी गर्दन पकड़ें ?
माना कि राजनीति में सत्ता की लड़ाई हर स्तर पर होती है। बावजूद इसके शीर्ष नेतृत्व ‘एक’ होने का संदेश देने की कोशिश करता है। कांग्रेस में तो उस अनुशासन का आग्रह भी हाशिए पर है। आलम यह है कि तीनो राज्यों के मुख्यमंत्री राज करने के बजाए राजसिंहासन बचाने में ही ऊर्जा खर्च कर रहे हैं। पार्टी में छोटे-छोटे फैसले भी मुश्किल से हो पाते हैं। चाहें तो इसे निर्णयहीनता का चरम कह लें या फिर ‘ न निर्णय लूंगा न लेने दूंगा’ वाली स्थिति। नतीजतन जिसे जो करना कर रहा है, कहना है कह रहा है। जो होना चाहिए, वो ही नहीं हो रहा। इस मुद्रा में यह उदात्त भाव निहित है कि कांग्रेस आला कमान की चिंता राज्यों में अपनी सत्ता बचाने के बजाए केन्द्र में भाजपा को सत्ता से हटाने में ज्यादा है।
यहां तर्क हो सकता है कि मोदी सरकार को सत्ता से हटाना और राज्यों में कांग्रेस सरकारो को बचाए रखना दो अलग-अलग बातें हैं। यानी बेटी की गृहस्थी को बहू के तलाक से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
क्योंकि भी राजनीति के रासायनिक सूत्र ‘ एच 2 अो’ (पानी) की माफिक सीधे-सरल नहीं होते। मान लिया। लेकिन सिद्धू ने तो सीधे पार्टी की आत्मा पर हाथ डाल दिया है। यानी निर्णय न लेना या न लेने देना भी एक तरह अपराध ही है। कांग्रेस महासचिव हरीश रावत ने कहा कि सिद्धू पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष हैं। संवैधानिक दायरों में उन्हें निर्णय लेने से किसने रोका है? अगर किसी ने नहीं रोका है तो फिर सिद्धू किसकी ‘ईंट से ईंट बजाना’ चाहते हैं? यह चुनौती यदि आलाकमान के विवेक को है तो फिर सिद्धू अपने पद पर किसकी मेहरबानी से बने हुए हैं? पंजाब के एक कांग्रेस विधायक ने मार्के की बात कही कि ‘सियासत में ‘ईंट से ईंट बजाने’ जैसी भाषा राजनीतिक विरोधियों के लिए इस्तेमाल की जाती है।‘ अपनो के लिए तो बिखरी ईंटें भी जमाई जाती हैं। लेकिन जिस घर की र्ईंटें पहले ही दरक रही हों, वो ईंट और क्या बजेगी ? और जब घर के लोग ही ‘ईंट से ईंट बजाना’ चाह रहे हों तो ऐसी ईंटों का जवाब पत्थर से भला कौन देगा ?