अहमद पटेल अब तक एक अच्छे राजनीतिक सचिव, एक अच्छे मैनेजर, एक अच्छे रणनीतिकार और चाणक्य के रूप में देश में जाने गए. इस राज्यसभा के चुनाव में, जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने उनको हराने की कोशिश की, अहमद पटेल गुजरात और देश में एक नेता के रूप में उभरे हैं. उन पर ये भी आरोप है कि उन्होंने अपनी राज्यसभा सीट के लिए गुजरात में कांग्रेस को नहीं बढ़ने दिया और भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें जिताने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.
लेकिन इस बार अहमद पटेल को ये साफ पता चल गया होगा कि राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता. अगर अमित शाह का दांव थोड़ा सा भी सही पड़ जाता, तो अहमद पटेल राज्यसभा से और राजनीति से भी बाहर होते. कांग्रेस की राजनीति में सत्ता का केन्द्र लगभग बदल चुका है. अहमद पटेल सोनिया गांधी के विश्वासपात्र थे, लेकिन अहमद पटेल राहुल गांधी के विश्वासपात्र नहीं हैं. अहमद पटेल पर प्रियंका गांधी को तो भरोसा है,लेकिन राहुल गांधी को भरोसा नहीं है. अहमद पटेल कांग्रेस की राजनीति में पिछले तीन साल में लगभग निष्क्रिय दिखाई दिए हैं. इस चुनाव ने अहमद पटेल की अहमियत, सार्थकता और प्रासंगिकता बढ़ा दी है.
अब देखना ये है कि गुजरात में अहमद पटेल भारतीय जनता पार्टी से बाहर बचे हुए सारे राजनीतिक और सामाजिक संगठनों को अपने साथ जोड़कर भारतीय जनता पार्टी का डटकर मुकाबला करते हैं या नहीं करते हैं. गुजरात यात्रा में मुझे ये साफ लगा कि अगर अहमद पटेल ऐसा करते हैं और अपने अहम को किनारे रख गुजरात को जीतने का अभियान छेड़ते हैं, तो वे गुजरात में कांग्रेस को बहुत वर्षों के बाद दोबारा सत्ता में ला पाएंगे.
वे भारतीय जनता पार्टी को गुजरात में ही हराकर देश में एक नया राजनीतिक संदेश दे सकते हैं. पर मिलियन डॉलर क्वेश्चन ये है कि क्या अहमद पटेल अपनी निद्रा से जाग पाएंगे? क्या अहमद पटेल अपनी नई राजनीतिक पहचान का इस्तेमाल गुजरात के लोगों को भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध खड़ा करने में करेंगे या फिर एक बार दोबारा अपनी निद्रा में चले जाएंगे. गुजरात कांग्रेस को उसके हाल पर छोड़कर भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनाने में मदद करेंगे, ताकि उनके द्वारा बनाए हुए नेताओं का आर्थिक हित वैसा ही बरकरार रहे, जैसा पिछले सत्रह साल में बरकरार रहा है. ये प्रश्न कठिन हैं, लेकिन इन सवालों का जवाब सिर्फ और सिर्फ एक व्यक्ति के पास है जिसका नाम अहमद पटेल है.