वर्ष 2014 में नई सरकार आने के समय देश-विदेश के आर्थिक हालात कोई बहुत अच्छे नहीं थे, लेकिन लोगों के दिल में एक उम्मीद थी कि सरकार व्यवस्था की एकरसता (मोनोटोनी) तोड़ेगी, देश एवं दुनिया की स्थिति देखते हुए देश के हित में नीतियां बनाएगी और विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनने को तैयार भारतीय अर्थव्यवस्था में निरंतर सुधार करते हुए दूसरे देशों के लिए भी एक मिसाल कायम करेगी.
सरकार द्वारा आज उत्साह का माहौल बनाने की कोशिशें चल रही हैं. अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और उसे निरंतर प्रगति के पथ पर चलाने के लिए विभिन्न उपक्रम-प्रयास हो रहे हैं. नई-नई योजनाओं की घोषणाएं की जा रही हैं, जोर-शोर से निवेशक सम्मेलन आयोजित किए जा रहे हैं और पूरी दुनिया में घूम-घूमकर निवेशकों को आमंत्रित किया जा रहा है. एक तऱफ बुलेट ट्रेन का बेसब्री से इंतजार हो रहा है, तो दूसरी तऱफ स्टार्टअप इंडिया जैसी मुहिम शुरू की जा रही है.
इतना सब कुछ होने के बावजूद अर्थव्यवस्था को लेकर आश्वस्ति का भाव पैदा नहीं हो पा रहा. पूरा देश अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों के सकारात्मक परिणामों की बाट जोह रहा है, लेकिन कुछ न कुछ बिंदु ऐसे हैं, जो छूट रहे हैं और भरोसा पूरी तरह कायम नहीं हो पा रहा. इन परिस्थितियों को देखकर मन में सहज ही शंका होती है कि अर्थव्यवस्था को लेकर जो चौतऱफा उत्साह का माहौल बनाने की कोशिश हो रही है, वह वाकई अर्थव्यवस्था में आने वाला बूम है या महज एक बैलून, जो जानबूझ कर बनाया जा रहा है और जिसे ज़मीनी हक़ीक़त की सुई कभी भी फोड़ सकती है.
जिस तरह किसी इंसान का ब्लड प्रेशर, ब्लड शुगर और हार्ट बीट वगैरह नाप कर उसके स्वास्थ्य का अनुमान लगाया जा सकता है, उसी तरह अर्थव्यवस्था के भी कुछ पैरामीटर होते हैं, जिनसे उसकी सेहत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. हम उन्हीं पैरामीटर के आधार पर भारत की अर्थव्यवस्था की नब्ज पर हाथ रखते हैं, ताकि पता चल सके कि यह बूम है या बैलून.
यदि हम सरकार और प्रशासन में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों के बयानों पर निगाह डालें, तो विरोधाभास सा़फ नज़र आता है. एक तऱफ सरकार अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ होने का यकीन दिलाती है, तो दूसरी तऱफ रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) के गवर्नर का बयान आ जाता है कि विश्व की अर्थव्यवस्था पर संकट के बादल हैं और भारत भी उससे अछूता नहीं है.
यह असमंजस उस समय और बढ़ जाता है, जब देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बताने वाले वित्त मंत्री विदेश में जाकर कहते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था पर भी खतरा है. बयानों के खौफ को जैसे-तैसे नज़रअंदाज़ करते हैं, तो बैंकों के बढ़ते एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स यानी ऐसे ऋण, जो चुकाए नहीं जा रहे) की खबर दिल दहला देती है. एनपीए 2,16,000 करोड़ के आसपास पहुंच रहा है. एनपीए किसी भी अर्थव्यवस्था में होने वाले कैंसर की तरह है. अगर अर्थव्यवस्था स्वस्थ है, तो बीमारी का यह लक्षण कहां से पैदा हो रहा है, क्योंकि बढ़ते एनपीए का सीधा मतलब यही है कि उद्योग-धंधे धराशायी हो रहे हैं और बैंकों से ऋण लेने के बाद उसे जिन व्यापारिक गतिविधियों में लगाया गया, उनकी हालत ठीक नहीं है.
इसका एक विपरीत प्रभाव भी पैदा हुआ यानी क्रेडिट ऑफटेक (ऋण लेने की दर) में भारी गिरावट. उद्योगों द्वारा ऋण लेने में बढ़ोत्तरी का कोई निशान नहीं है और जून, 2014 में जिस क्रेडिट ऑफटेक में 13 फीसद की वृद्धि थी, उसमें जून, 2015 तक 8.4 फीसद की गिरावट आ गई. बढ़ते एनपीए और घटते क्रेडिट ऑफटेक की छाया में जब स्टार्टअप इंडिया मुहिम को रखकर देखा जाता है, तो मामला काफी उलझा हुआ दिखता है और यकीन के बजाय आशंकाएं पैदा होती हैं.
एनपीए और क्रेडिट ऑफटेक के अलावा जो चीज किसी अर्थव्यवस्था को सटीक ढंग से आंकती है, वह है उस देश की मुद्रा. डॉलर के म़ुकाबले हमारे रुपये में होने वाली गिरावट चिंताजनक स्तर को छू रही है. डॉलर के मुक़ाबले रुपया अपने इतिहास के सबसे निचले स्तर यानी 67.90 को छू चुका है. यह एक खतरनाक लक्षण है और इससे हमारी अर्थव्यवस्था की कमज़ोरी सा़फ ज़ाहिर होती है.
भारत में उत्पादन क्षेत्र भी कराह रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राउरकेला में जाकर घोषणा करते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े स्टील उत्पादक बनेंगे, लेकिन धरातल पर हक़ीक़त यह है कि हम 83 मिलियन टन स्टील का उत्पादन कर रहे हैं और चीन 800 मिलियन टन का. अपना उत्पादन दस गुना बढ़ाने की बात कहना आकाश चूमने का प्रयास करने जैसा है, क्योंकि दुनिया भर में स्टील की क़ीमतों में आई 2003 के बाद की सबसे बड़ी गिरावट से भारतीय स्टील उत्पादक संकट में आ गए हैं.
ऊपर से भारत में चल रहे लगभग दस बड़े स्टील प्लांट प्रोजेक्ट्स में से पांच किसी न किसी वजह से अटक गए हैं और बाकी उत्पादकों की हालत भी कुछ ठीक नहीं है. पीएमआई (पर्चेजिंग मैनेजर इंडेक्स) में 2013 के बाद की सबसे बड़ी गिरावट आई है और वह बीते दिसंबर में 50 अंकों से भी नीचे गिरकर 49.1 पर आ गया. देश के बाहर और भीतर, दोनों स्तरों पर मांग में कमी आ रही है.
अगर पिछले एक-डेढ़ सालों में रोज़गार सृजन के आंकड़ों पर नज़र डाली जाए, तो कोई उत्साहजनक परिदृश्य नज़र नहीं आता. बेरोज़गारों के लिए नए रोज़गार का सृजन नहीं हो पा रहा, बल्कि वर्तमान में रा़ेजगार में लगी एक बड़ी आबादी पर ही बेरा़ेजगारी का खतरा मंडराने लगा है. हर तीसरा स्नातक बेरा़ेजगार है और बहुत बड़ी आबादी अपनी शिक्षा के अनुरूप रोज़गार न मिलने से हताश है.
स्थिति का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सितंबर, 2015 में उत्तर प्रदेश में चपरासी के 368 पदों के लिए आवेदन आमंत्रित किए जाते हैं और 23 लाख अभ्यर्थी उसके लिए आवेदन करते हैं, जिसमें से एक बड़ी संख्या बीटेक, बीएससी, एमकॉम और एमएससी डिग्रीधारियों की थी. अगर ह्यूमन इंडेक्स कैपिटल की बात करें, तो 124 देशों की सूची में भारत का सौवां स्थान है और श्रीलंका एवं भूटान जैसे छोटे-छोटे देश भी भारत से बेहतर स्थिति में हैं.
एक तऱफ स्मार्ट सिटी की धूम है और 100 शहरों को विश्व के बेहतरीन शहरों की श्रेणी में लाने की कवायद जोर-शोर से चल रही है, लेकिन सरकार की तऱफ से यह नहीं बताया गया है कि स्मार्ट सिटी का पैमाना क्या है और उनमें क्या विशेष होगा. इसके विपरीत ढांचागत उद्योग निराशा के दौर से गुज़र रहे हैं. इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में लगी ज़्यादातर कंपनियों के शेयर नीचे आ चुके हैं, अनेक प्रोजेक्ट्स बीच में अटके पड़े हैं और निवेशकों ने अपने हाथ खींच लिए हैं. जीवीके, जीएमआर एवं रिलायंस जैसे दिग्गज भी इससे अछूते नहीं हैं, उनके शेयर धराशायी हो रहे हैं, प्रोजेक्ट्स बीच में फंसे हैं और पूंजी संकट खड़ा हो रहा है.
भवन निर्माण क्षेत्र की हालत भी कुछ ऐसी ही है. ज़मीनी हक़ीक़त देखें, तो रियल एस्टेट बाज़ार राहत की सांस लेता नहीं दिख रहा. पिछले साल के आंकड़ों पर नज़र डाली जाए, तो कोई उत्साहजनक परिदृश्य नहीं दिखता. 2015 के अंत तक रियल स्टेट सेक्टर में नए प्रोजेक्ट्स में 21 फीसद की भारी गिरावट आई है. 2015 के अंत तक आते-आते कुछ प्रमुख शहरों में पूरी तरह से बने, रेडी टू मूव, बिना बिके फ्लैट्स और अपार्टमेंट्स की संख्या चिंताजनक है. यह उन फ्लैट्स-अपार्टमेंट्स की संख्या है, जो पूरी तरह बने हुए हैं.
अगर ऐसे फ्लैट्स-अपार्टमेंट्स देखे जाएं, जो अधबने हैं या जिनमें स़िर्फ 10-20 फीसद काम बाकी रह गया है और वे ग्राहकों या फंड की कमी के चलते अटक गए हैं, तो उनकी संख्या लाखों में होगी और उनके सटीक आंकड़े जुटाना भी असंभव है. इन हालात में जब स्मार्ट सिटी की अवधारणा को देखा जाता है, तो चिराग तले अंधेरा वाली कहावत याद आती है और यह बात गले नहीं उतरती कि हताशा से भरे ढांचागत क्षेत्र और रियल स्टेट बाज़ार के रहते स्मार्ट सिटी कैसे बनेंगी. भारत के निर्यात में लगातार गिरावट आ रही है. बीते सितंबर तक निर्यात में 25 फीसद से भी ज़्यादा गिरावट आ चुकी थी.
सितंबर, 2014 में जो निर्यात 32.32 बिलियन डॉलर था, वह सितंबर, 2015 में गिरकर 21.84 बिलियन डॉलर रह गया. स़िर्फ यूरोप में ही किए जाने वाले निर्यात में 10.9 फीसद की गिरावट आई और यूनाइटेड स्टेट्स को होने वाला निर्यात भी 3.8 फीसद कम हो गया. लगातार गिरते निर्यात के आंकड़े कम से कम अर्थव्यवस्था के बूम की ओर तो संकेत नहीं करते.
शेयर बाज़ार भी बदहाल है. अगस्त, 2015 में सेंसेक्स में एक ही दिन में 5.94 फीसद की गिरावट आई और वह आज तक संभल नहीं सका है. न ऐसे संकेत हैं कि वह निकट भविष्य में संभलने वाला है. हैवी वेट शेयर भी लुढ़कते जा रहे हैं और आशा नहीं जगा रहे. कुल मिलाकर कहा जाए, तो तमाम सकारात्मक प्रयासों के बावजूद अगर अर्थव्यवस्था पर भरोसा नहीं कायम हो रहा है, तो इसका मतलब सा़फ है कि अर्थव्यवस्था में जिस बूम को पैदा करने की कोशिश की जा रही है, वह स़िर्फ एक बैलून है.
सरकार और सभी ज़िम्मेदार एजेंसियों का सबसे पहला दायित्व यह है कि वे पता लगाएं कि हमारी अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी कमज़ोरी क्या है. उदाहरण के तौर पर, बहुत दिन नहीं बीते, जब हमारे किसान टकटकी लगाए आसमान की ओर निहारा करते थे कि कब मानसून आएगा, कब बादल छाएंगे और कब उनके खेतों की प्यास बुझेगी. अगर वर्षा ठीकठाक हो जाती थी, तो उनके जीवन और देश की अर्थव्यवस्था में खुशहाली छा जाती, वरना सारा दोष वर्षा पर मढ़कर सब यह मान लेते थे कि उनके प्रयासों में तो कोई कमी नहीं थी, वह तो वर्षा ने सब कुछ गड़बड़ कर दिया.
जब पचास-साठ के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत हुई, तो वर्षा को दोष देने के बजाय अपने प्रयास दुरुस्त किए गए, नवीनतम तकनीक का प्रयोग शुरू हुआ और सिंचाई के नए तरीके खोजे गए. जल्दी ही कामयाबी हाथ लगी और वर्षा पर हमारी निर्भरता कम हुई. किसानों का स्वयं पर भरोसा बढ़ा और सूखा-अकाल जैसी समस्याओं में पहले की तुलना में भारी कमी आई.
आज़ादी के बाद 1950 में भारत का कुल खाद्यान्न उत्पादन स़िर्फ 50 मिलियन टन था, जो महज बीस सालों में यानी 1970 तक बढ़कर 108 मिलियन टन से भी ज़्यादा हो गया. जो दशा हरित क्रांति से पहले किसानों की थी, वही दशा हमने अपनी अर्थव्यवस्था की बना ली है. किसान मानसून की ओर ताकता था, तो हम आज मेनहट्टन की ओर ताक रहे हैं. हॉवर्ड में पढ़कर भारत की नीतियां बनाने वालों ने ऐसी धारणा बना ली है, मानो हमारी पूरी आर्थिक दशा ही मेनहट्टन या पश्चिमी देशों पर निर्भर हो गई है. सवा अरब की आबादी वाले, व्यापार के हज़ारों सालों के इतिहास से समृद्ध, प्रचुर मानव संसाधन एवं प्राकृतिक स्रोतों से लहलाते देश की दूसरों पर ऐसी निर्भरता आश्चर्यजनक है और सारी समस्याओं की जड़ भी.
इस सारे परिदृश्य में सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि हम अपनी अर्थव्यवस्था की ओर नहीं देख रहे, मानो हमारी अर्थव्यवस्था बिल्कुल ठीक है और सारी गड़बड़ी उन देशों में है, जिन पर हमारी अर्थव्यवस्था निर्भर है. दरअसल, हमने अपनी अर्थव्यवस्था आउटसोर्सिंग पर आधारित कर दी, लेकिन हम भूल जाते हैं कि आउटसोर्सिंग निर्यात की तुलना में बिल्कुल अलग चीज है, क्योंकि निर्यात में हमारा उद्देश्य अपने देश के बाज़ार से अच्छी क़ीमत की आशा में चीजों को बाहर भेजना होता है, जबकि आउटसोर्सिंग में हमारा अपना बाज़ार कहीं होता ही नहीं और हम पूरी तरह अनजाने एलियन बाज़ार की मांग पर निर्भर रहते हैं.
आउटसोर्सिंग मॉडल पर आधारित फैक्ट्रियों में जो चीजें बनती हैं, उनका स्थानीय बाज़ार से कुछ लेना-देना नहीं होता. उक्त फैक्ट्रियां ऐसी चीजें बनाती हैं अथवा ऐसी सेवाएं देती हैं, जिनकी कोई स्थानीय मांग नहीं होती. इसके चलते पश्चिमी कंपनियों की अर्थव्यवस्था ऊपर की ओर चढ़ने लगी, लेकिन साथ ही उन देशों में आम जनता की नौकरी के साथ-साथ क्रय शक्ति भी चली गई. भारत एवं चीन जैसे देशों में नौकरियां तो मिलीं, लेकिन कुछ ही लोगों को.
पूरी दुनिया नौकरीविहीन आर्थिक विकास (जॉबलेस ग्रोथ) की ओर बढ़ने लगी, जिससे अमीर-ग़रीब के बीच की आर्थिक खाई और चौड़ी हो गई. आम जनता की क्रय शक्ति कम होने के कारण ऐसी चीजों और सेवाओं की मांग खत्म होने के कगार पर आ गई. दूसरी बात यह कि जब हमारी अर्थव्यवस्था संकट का शिकार है और हमें इस बात का आभास है कि दूसरे देशों की हालत भी ज़्यादा अच्छी नहीं है, तो फिर लगातार देश-विदेश में करोड़ों रुपये खर्च करते हुए निवेशक सम्मिट करके देशवासियों द्वारा अपनी गाढ़ी कमाई से जमा किए हुए टैक्स को बर्बाद करने का क्या औचित्य है?
स़िर्फ जुमले उछालने से अर्थव्यवस्था नहीं ठीक हो सकती. क्या अर्थव्यवस्था पर आसन्न खतरे को देखते हुए यह उचित नहीं होगा कि दिखावे और फिजूलखर्ची पर अंकुश लगाया जाए? सबसे बड़ा तथ्य, जिसे हम नज़रअंदाज़ कर रहे हैं, वह यह है कि अब तक भारत पर मंदी के जितने भी आक्रमण हुए, उनका म़ुकाबला सफलतापूर्वक स़िर्फ दो कारणों से संभव हो सका. पहला, भारत के किसान और दूसरा, छोटे एवं मंझोले व्यापारी. भारत सरकार कृषि एवं छोटे स्तर पर चलने वाले व्यापार की अनदेखी करके जिस तरह बड़े कॉरपोरेट्स और विदेशों की ओर ताक रही है, उससे हमारी अर्थव्यवस्था नहीं संभलने वाली. कृषि क्षेत्र और उससे जुड़े छोटे व्यवसायों में क्रांतिकारी सुधार ही एकमात्र रास्ता है. (लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं.)