अाठ नवम्बर की जिस रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नोटबंदी की घोषणा कर रहे थे, तब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अगली सुबह निश्चय यात्रा पर निकलने की तैयारी में थे. जब सुबह होते- होते देश भर में लोग बैंकों की कतार में लगे थे, तब तक नीतीश बेतिया के सफर पर निकल चुके थे. नोटबंदी का मुद्दा इतना संवेदनशील था कि उस वक्त तक विपक्षी नेता कुछ कहने से बचते हुए मात्र इसके प्रभाव के आकलन में जुटे थे.
यह कहना मुश्किल है कि बेतिया जाने के क्रम में पत्रकारों ने उनसे नोटबंदी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं ली या खुद नीतीश ने इस पर कुछ कहने से गुरेज किया. लिहाजा नीतीश का पक्ष इस मुद्दे पर दूसरे दिन भी नहीं आ सका.
नोटबंदी के ऐलान के दो दिनों तक नीतीश इस मुद्दे पर खामोश रहे. इस बीच पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और दिल्ली तक के विपक्षी नेता नोटबंदी के विरोध में कूद पड़े थे. पहले अरविंद केजरीवाल, फिर ममता बनर्जी, फिर मायावती व अखिलेश यादव ने लीड ले लिया था. केजरीवाल तो ट्वीट पर ट्वीट किए जा रहे थे. उधर नोटबंदी के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक पहलुओं का आकलन करते हुए ममता बनर्जी ने दिल्ली कूच की तैयारियां शुरू कर दी थीं.
इतना सब होने के बाद भी नीतीश अपनी निश्चय यात्रा के कार्यक्रमों में तल्लीन रहे. उधर दिल्ली में जद यू के वरिष्ठ नेता शरद यादव नोटबंदी के विरोध में कुछ कह जरूर रहे थे, पर वह लीड रोल में नहीं थे. ऐसे में राजनीतिक विश्लेषकों को नीतीश की चुप्पी हैरान कर रही थी. खास तौर पर इसलिए भी, क्योंकि 2015 के चुनाव में भाजपा को पटखनी देने के बाद नीतीश कुमार, मोदी विरोध के एक मजबूत ध्रुव के रूप में उभरे थे.
तब नीतीश बिहार के अलावा यूपी, झारखंड और अन्य प्रदेशों में सभाएं करते हुए मोदी विरोध का प्रतीक बनते जा रहे थे. हालात यह थे कि कांग्रेस के दिग्विजय सिंह से लेकर खुद ममता बनर्जी ने नीतीश में वैकल्पिक राजनीति का चेहरा देख लिया था. इन दोनों नेताओं ने नीतीश की न सिर्फ तारीफ की थी, बल्कि उन्हें एक तीसरी शक्ति के नेतृत्वकर्ता का विकल्प भी बता दिया था.
पर ऐसा क्या हुआ कि नीतीश नोटबंदी के मामले में पीछे छूट गए? क्या वह अपनी निश्चय यात्रा की व्यस्तताओं के चलते नोटबंदी की शिद्दत पर गौर नहीं कर सके? क्योंकि यह कह देना काफी नहीं कि नीतीश ने रणनीतिक तौर पर पहले दो दिनों तक चुप्पी साधे रखी और जब मुंह खोला तो नोटबंदी का समर्थन कर दिया.
अगर ऐसा ही था, तो दिल्ली में उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता शरद यादव नोटबंदी विरोधी मार्च, जिसे ममता बनर्जी लीड कर रही थीं, का हिस्सा क्यों बने? और फिर नवम्बर के आखिरी सप्ताह में बिहार विधानमंडल के सत्र के अंतिम दिन महागठबंधन के विधायकों ने (जिसके नेता खुद नीतीश हैं) ने नोटबंदी के प्रभाव के विरोध में धरना क्यों दिया? दरअसल नोटबंदी पर नीतीश के पक्ष को एक कदम आगे और दो कदम पीछे के रूप में देखा जाना चाहिए.
यूं कहें कि नोटबंदी मामले पर नीतीश की पहले दो दिनों तक खामोशी और फिर मोदी का समर्थन और फिर उनके ही दल के विधायकों द्वारा किया गया विरोध में धरना, नीतीश की रणनीति नहीं, बल्कि दुविधा का नतीजा था. इसी दुविधा में नीतीश ने मोदी विरोध की मजबूत धुरी बनने का अवसर गंवा दिया. जब तक वे इस दुविधा से निकलते, ममता बनर्जी मोदी विरोध का प्रतीक बन चुकी थीं. ऐसे में अगर नीतीश नोटबंदी के विरोध का परचम थामते भी, तो लीड नहीं ले पाते.
इस मामले का एक पहलू यह भी है जो नीतीश के लिए दुविधा का कारण रहा. इस बात की पुष्टि खुद नीतीश कुमार के उस बयान से होती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि विपक्षी पार्टियों द्वारा नोटबंदी विरोधी मार्च में शामिल होने के लिए ममता बनर्जी ने उन्हें फोन किया था, पर वे नहीं गए. चूंकि ममता ने उन्हें मार्च में शामिल होने की दावत दी थी, इसका मतलब था कि विरोध मार्च का नेतृत्व वे खुद कर रही थीं. ऐसे में नीतीश कुमार की हैसियत महज एक इन्वाइटी की रह जाती, न कि नेतृत्वकर्ता की.
नोटबंदी पर पीएम मोदी की नीतीश की तरफदारी का राजनीतिक मूल्यांकन आने वाले दिनों में भले जो हो, लेकिन फिलहाल इस मुद्दे ने नीतीश के सियासी सफर में कुछ खटास तो जरूर भर दिया है. नीतीश द्वारा विरोध मार्च का समर्थन नहीं करने से तमतमाई ममता दिल्ली से पटना कूच कर गयीं और नीतीश के गढ़ में विरोध प्रदर्शन कर उन्होंने न सिर्फ एक मैसेज देने की कोशिश की, बल्कि कड़े शब्दों का इस्तेमाल भी किया.
ममता बनर्जी ने नोटबंदी का समर्थन नहीं करने वालों को गद्दार कहा. हालांकि ममता ने गद्दार शब्द का इस्तेमाल करते हुए नीतीश का नाम तो नहीं लिया, लेकिन मीडिया के एक हिस्से ने इसे नीतीश से जोड़ कर ही देखा. दूसरी तरफ ममता पटना आकर लालू से मिलीं, अपने प्रदर्शन के लिए उनसे समर्थन लिया और उनका शुक्रिया भी अदा किया.
इस मामले में नीतीश की सियासत में हल्की खटास उनके सहयोगी कांग्रेस से भी मिली. बिहार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चौधरी ने नोटबंदी के विरोध में जब प्रदर्शन किया, तो पत्रकारों को उन्होंने साफ कहा कि कांग्रेस हाईकमान जिस क्षण चाहे महागठबंधन टूट सकता है. चौधरी उस सवाल का जवाब दे रहे थे, जिसमें उनसे पूछा गया था कि उनके ही मुख्यमंत्री नोटबंदी का समर्थन कर रहे हैं.
अब नोटबंदी पर नीतीश कुमार की दुविधाओं को, जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है, फिर से अवलोकन करें तो कुछ नतीजाखेज दृश्य उभरते नजर आते हैं. गौर करें कि नीतीश ने एक तो नोटबंदी पर प्रतिक्रिया देने में देर की, दूसरा उन्होंने नोटबंदी का समर्थन भी किया.
तीसरा, उन्हीं की सहमति से उनके ही दल के विधायकों ने नोटबंदी के विरोध में राजद, कांग्रेस के साथ मिलकर विधानसभा के बाहर प्रदर्शन किया. इस विरोध की भले ही तकनीकी शब्दावली को ‘नोटबंदी से हो रही परेशानियों’ का विरोध बताने की कोशिश की गयी, पर गौर करें तो पायेंगे कि सारी विरोधी पार्टियां (ममता को छोड़) नोटबंदी के तरीके का ही विरोध कर रही हैं.
इस तरह देखें, तो नोटबंदी पर नीतीश के स्टैंड से विरोधाभास ही नजर आते हैं. ऐसा इसलिए भी कि संसद में जदयू के नेता शरद यादव विरोध का स्वर उजागर कर रहे थे, तो वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी उनकी चुस्की ली और कहा कि शरद यादव को अपनी पार्टी का नोटबंदी पर, जो स्टैंड है उसे समझना चाहिए.
नोटबंदी मामले में उधर कुछ पर्यवेक्षक नोटबंदी पर नीतीश द्वारा नरेंद्र मोदी की तरफदारी को भाजपा से उनकी बढ़ती नजदीकियों के आईने में देखने की कोशिश कर रहे थे, जबकि खुद नीतीश ने दिल्ली में एक अखबार के सम्मिट में जोर देकर कहा कि बिहार में उनका गठबंधन पूरे पांच साल तक चलेगा. उन्होंने एक अन्य कार्यक्रम में यह भी कहा कि वह उचित फैसले का स्वागत हमेशा करते रहे हैं.
उन्होंने कहा कि एनडीए सरकार में शामिल रहते हुए उन्होंने प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति बनाये जाने पर एनडीए के स्टैंड के विपरीत स्टैंड लिया था. वह नोटबंदी पर अपने स्टैंड को इसी रूप में परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हैं.
इस मामले में सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि क्या नीतीश कुमार ने नोटबंदी पर जो स्टैंड लिया, उसके पीछे उनकी यह रणनीति तो नहीं कि वह पीएम मोदी के फैसले का समर्थन कर अपने सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल के दबाव को संतुलित रखने का प्रयास कर रहे हैं. संभव है नीतीश कुमार इस रणनीति पर भी काम कर रहे हों, क्योंकि सत्ता में राजद के बढ़ते दखल को नियंत्रित व संतुलित बनाये रखना भी उनकी राजनीति की प्राथमिकता है.
तमाम बातों के बावजूद इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जो नीतीश कुमार 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद मोदी विरोध की एक मजबूत धुरी के रूप में उभरे थे, नोटबंदी ने उनकी उस मजबूत छवि को कमजोर किया है. दूसरी तरफ बंगाल की सीमाओं से निकलकर उत्तर प्रदेश व बिहार की सरहदों में प्रवेश कर विरोध प्रदर्शन कर चुकीं ममता बनर्जी ने मोदी विरोध की अपनी छवि मजबूत करने की कोशिश कर नीतीश के लिए एक नयी चुनौती खड़ी कर दी है.