नीतीश कुमार ने राजनीतिक आत्महत्या कर ली
नीतीश कुमार को मैं पीएम मैटरियल मानता था. आपसी बातचीत में मैंने कई बार उनसे यह चर्चा की कि आपको महागठबंधन के साथ बना रहना चाहिए और किसी भी कीमत पर भाजपा का साथ नहीं देना चाहिए. नीतीश कुमार मुझसे कहते थे कि मेरी पार्टी छोटी है और मेरे पास इतने सांसद कभी नहीं होंगे कि मैं प्रधानमंत्री बन जाऊंगा. इस पर मैं उन्हें देवगौड़ा और गुजराल साहब का उदाहरण देता था, लेकिन इन अप्रत्याशित राजनीतिक घटनाओं के उदाहरण को वे दूसरे तरीके से देखते थे. वे मुझसे कहते थे कि आप मेरी तुलना देवगौड़ा और गुजराल से क्यों करते हैं, क्या मैं उनकी तरह हूं. दरअसल, वे इन उदाहरणों को जनाधार के तराजू पर तौल कर देखने की गलती करते थे. जब महागठबंधन छोड़ने का अंतिम वक्त आया, तो मैंने पार्टी की बैठक में साफ-साफ कहा कि यह राजनीतिक आत्महत्या है और सौ फीसदी जनादेश का अपमान है. उस बैठक में मैंने साफ कहा था कि हम जो गलती करने जा रहे हैं, उसे जनता कभी माफ नहीं करेगी. मेरे साथ विजेंद्र यादव ने भी महागठबंधन छोड़ने का विरोध किया. वे तो फिर लौट गए, लेकिन मैंने जनादेश का सम्मान किया और नीतीश कुमार का ही साथ छोड़ दिया. नीतीश कुमार ने तो अपना भविष्य चौपट किया ही किया, साथ में बिहार के भविष्य को भी दांव पर लगा दिया. नीतीश कुमार इस समय चाटुकारों और सांप्रदायिक ताकतों से घिरे हैं. आने वाले चुनावों में उन्हें पता चल जाएगा कि महागठबंधन तोड़कर उन्होंने कितनी बड़ी गलती की थी.
अब तो पासवान भी रामविलास के साथ नहीं
उदय नारायण चौधरी कहते हैं कि एक समय था, जब रामविलास पासवान का नाम दलितों के बीच बड़े ही सम्मान से लिया जाता था. लेकिन कालान्तर में रामविलास पासवान ने सत्ताा को ज्यादा तवज्जो दी और दलितों को भूलते चले गए. सत्ता का लालच उनके राजनीतिक जीवन में इतना हावी हो गया कि अपने परिवार के अलावा उन्हें कोई और दिखाई ही नहीं पड़ता. दलितों की पीड़ा और उनकी हकमारी इनके एजेंडे में काफी पीछे चले गए. पुत्रमोह और भाई मोह ने इनके दलित मोह को समाप्त कर दिया. नतीजा यह हुआ कि आज सभी दलित तो छोड़िए, इनका पासवान समाज भी इनके साथ नहीं है. मोकामा के चौहरमल मेले में रामविलास पासवान को काले झंडे दिखाए जाते हैं और इन्हें बोलने नहीं दिया जाता है. साफ है कि पासवान समाज भी अब रामविलास पासवान को समझ गया है कि इन्हें केवल अपने बेटे और भाई से प्रेम है, बाकी से इन्हें कुछ लेना-देना नहीं है. श्री चौधरी याद दिलाते हैं कि हाजीपुर से जब रामविलास पासवान हार गए, तो लालू प्रसाद ने बड़े दिल का परिचय देते हुए उन्हें राज्यसभा भेजा. लेकिन बदले में रामविलास पासवान ने लालू प्रसाद के ही जड़ को काटने का काम शुरू कर दिया. रामविलास पासवान को बस सत्ता से मतलब है. दलितों की भलाई से इनका कुछ भी लेना-देना नहीं है. आने वाले चुनाव में सभी दलित भाई और खासकर पासवान समाज सत्तालोलुप इस पासवान एंड कंपनी को करारा सबक सिखाएंगे और इन्हें जीरो पर आउट कर देंगे.
मांझी जी को मैं धन्यवाद देता हूं
उदय नारायण चौधरी जीतन राम मांझी को अपना बड़ा भाई मानते हैं और कहते हैं कि उन्होंने मेरे ऊपर जो आरोप लगाए हैं, उसके लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूं. इससे ज्यादा मुझे उनसे कुछ नहीं कहना है. गौरतलब है कि जीतनराम मांझी ने उदय नारायण चौधरी को दलित विरोधी कहते हुए कहा था कि अगर उदय नारायण चौधरी चाहते, तो उनकी सरकार नहीं गिरती. श्री मांझी ने उन्हें रंगा सियार तक कह डाला था. श्री चौधरी ने श्री मांझी के 16 विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया था. इन आरोपों पर उदय नारायण चौधरी कहते हैं कि उस समय मैंने वो किया जो नियमानुकूल था. विधानसभा अध्यक्ष किसी पार्टी का आदमी नहीं होता है. इसलिए किसी व्यक्ति या दल का पक्ष लेेने या उसका विरोध करने की बात कहां आती है.
हम खुद उत्पीड़न के शिकार हुए
उदय नारायण चौधरी कहते हैं कि आजादी के इतने सालों बाद भी जब दलितों की दशा देखता हूं, तो दिल भर आता है. क्या यही सपना बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने देखा था. दलितों को जिंदा जलाने की घटना आजादी के इतने सालों बाद भी हो रही है, तो इसका मतलब है कि हम अपनी मंजिल की ओर दस कदम भी नहीं चल पाए हैं. दूसरों की बात क्या कहूं, मैं खुद उत्पीड़न का शिकार हुआ हूंं. मेरा कसूर बस इतना था कि मैं मोटरसाइकिल से मुशहरटोली चला गया था. सामंतवादी मानसिकता वाले कुछ लोगों को लगा कि मैंने मोटरसाइकिल चलाकर बहुत बड़ा अपराध कर दिया. यह घटना साल 1982 की है. इस बात के लिए मुझे काफी अपमानित किया गया. लेकिन मैं नहीं घबराया, क्योंकि दलितों का उत्थान तो मेरे खून में है और दुनिया की कोई भी ताकत मुझे मेरे मिशन से नहीं डिगा सकती. दलितों की भलाई मेरी सोच में है और मैं इसके लिए सौ फीसदी संकल्पित हूं. यह रास्ता मैं नहीं छोड़ सकता, भले ही इसकी भारी राजनीतिक कीमत मुझे क्यों न चुकानी पड़े.
नहीं खुलेगा एनडीए का खाता
श्री चौधरी दावा करते हैं कि 2019 की जंग में बिहार की सभी 40 सीटों पर महागठबंधन के प्रत्याशी चुनाव जीतेंगे. इस दावे के पीछे इनका तर्क है कि मौजूदा मोदी सरकार से जनता पूरी तरह निराश है. महागठबंधन तोड़कर भाजपा से हाथ मिलाने के बाद नीतीश कुमार की छवि एक सत्तालोलुप नेता की बनी है. न केवल बिहार, बल्कि पूरे देश में दलित उत्पीड़न के मामले बढ़े हैं. हमेशा आरक्षण से छेड़छाड़ करने की साजिश रची जाती रहती है. अल्पसंख्यक समुदाय में भय का माहौल है. महागठबंधन का समर्थन रोजाना बढ़ रहा है. बिहार का हित चाहने वाले हर समाज के लोग तेजस्वी यादव की तरफ आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं. दूसरी तरफ, एनडीए में रोज सीट बंटवारे को लेकर चिकचिक हो रही है. कोई भी झुकने को तैयार नहीं है. जनता ऐसे अवसरवादी लोगों को देख रही है और चुनावी सबक सीखाने के लिए तैयार बैठी है. मेरा तो दावा है कि नालंदा की सीट भी नीतीश कुमार नहीं जीत पाएंगे और चालीस की चालीस सीटें महागठबंधन के खाते में आ जाएंगी.