राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रत्याशी चयन को लेकर पिछले महीने भर से जो रहस्य बना हुआ था, उसकी गहराई को नापने में लगता है नीतीश कुमार बाजी मार ले गए. नीतीश कुमार का बार-बार ये कहना सबको याद है कि केंद्र सरकार को इस मामले में सब लोगों से विचार कर एक राय बनानी चाहिए. इस मामले में सोनिया गांधी और लालू प्रसाद से उनकी कई दौर की बातचीत भी हुई. यह कहा जाने लगा कि नीतीश कुमार विपक्षी एकता की धूरी बन रहे हैं.
लेकिन जैसे ही अमित शाह ने बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद को एनडीए का प्रत्याशी घोषित किया, पूरा खेल ही बदल गया. जानकार बताते हैं कि इस खेल की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी और नीतीश कुमार को कुछ-कुछ इसका आभास भी था. जैसे ही संघ की पृष्ठभूमि वाला एक दलित चेहरा सामने आया, नीतीश कुमार ने बिना समय गंवाए कोविंद से मुलाकात की और उन्हें बधाई दी. नीतीश कुमार ने उस दिन कहा कि बिहार में राज्यपाल के तौर पर कोविंद जी काम बेहतरीन रहा है और मुझे व्यक्तिगत तौर पर उनके नाम की घोषणा होने से खुशी है. आगे विपक्षी दलों की बैठक में जो तय होगा उस पर जदयू अपना मत स्पष्ट करेगा.
लेकिन 22 तारीख की बैठक का इंतजार किए बिना नीतीश कुमार ने आनन-फानन में अपने विधायकों और कोर ग्रुप की बैठक 21 तारीख को ही बुलाकर यह ऐलान कर दिया कि जदयू रामनाथ कोविंद को समर्थन देगा. हालांकि कोविंद के नाम की घोषणा के साथ ही जिस गर्मजोशी से नीतीश कुमार उनसे मिले थे, उसी समय लगने लगा था कि जदयू कोविंद के साथ ही जाएगा.
लेकिन विपक्षी दलों की बैठक के ठीक पहले अपने विधायकों को बुलाकर नीतीश कुमार ने साफ संदेश दे दिया कि महागठबंधन अपनी जगह पर है, लेकिन जब बात राष्ट्रीय मुद्दे की आएगी, तो जदयू किसी भी तरह का फैसला लेने के लिए स्वतंत्र है. नीतीश कुमार की इस साफगोई ने लालू प्रसाद और सोनिया गांधी को भौंचक कर दिया. सबको उम्मीद थी कि नीतीश कुमार कम से कम 22 तारीख वाली दिल्ली में होने वाली बैठक तक चुप रहेंगे.
लेकिन लालू प्रसाद का यह अंदाजा भी गलत निकला और 21 तारीख को ही अपने विधायकों को बुलाकर नीतीश कुमार ने कोविंद को समर्थन देने की घोषणा करवा दी. जानकार बताते हैं कि नीतीश कुमार का अंदेशा था कि अगर विपक्ष की बैठक में किसी दलित प्रत्याशी के नाम पर सहमति बन गई, तो ऐसे में दुविधा वाली स्थिति पैदा हो जाएगी. इसलिए बेहतर होगा कि उस बैठक के पहले ही जदयू के स्टैंड को साफ कर दिया जाए. नीतीश कुमार ने ऐसा ही किया और कोविंद को समर्थन कर दिया. जानकार बताते हैं कि नीतीश कुमार के इस फैसले का असर बिहार और दिल्ली की राजनीति पर पड़ना तय है.
हालांकि ऐसा पहली बार नहीं है कि नीतीश कुमार ने किसी मामले में अपना अलग स्टैंड लिया हो. पहले नोटबंदी और बाद में सर्जिकल स्ट्राइक के मुद्दे पर भी वे केंद्र की भाजपा सरकार के साथ दिखे थे. लेकिन चूंकि इस बार मुद्दा राजनीतिक है इसलिए ज्यादा बवाल मचा हुआ है. राजद विधायक भाई विरेंद्र कह रहे हैं कि नीतीश कुमार ने महागठबंधन को धोखा दिया है.
रघुवंश बाबू का आरोप है कि नीतीश कुमार महागठबंधन को कमजोर कर रहे हैं. सूत्र बताते हैं कि इस बार लालू प्रसाद ने भी महसूस किया कि नीतीश कुमार के इस फैसले को हल्के में न लिया जाए. आगे सर्तक रहने की जरूरत है. दरअसल, नीतीश कुमार सारे विकल्प खुले रखना चाहते हैं. उन्होंने जिस समय कोविंद को समर्थन किया, ठीक उसी समय योग दिवस को लेकर कहा कि इसे बस प्रचार का दिन बनाकर रख दिया गया है. कहा जाए तो नीतीश अपने को किसी पाले में बैठा हुआ नहीं दिखना चाहते हैं.
राष्ट्रपति चुनाव के बहाने विपक्षी एकता की जो कवायद चल रही थी, उसे तो नीतीश कुमार ने भंडोल कर ही दिया साथ ही साथ इतनी गुंजाइश भी नहीं छोड़ी कि इस चुनाव में कोई रोमांच बना रहे. जदयू के समर्थन के बाद अब कोविंद का आसानी से राष्ट्रपति बन जाना तय हो गया है. नीतीश कुमार के करीबी बताते हैं कि कोविंद की जीत तय कर नीतीश कुमार अपने दलित वोट बैंक को और भी मजबूत करने में सफल होंगे. कोविंद को समर्थन कर नीतीश ने भाजपा नेताओं का भी दिल जीत लिया है.
सुशील मोदी ने उन्हें इसके लिए धन्यवाद भी कहा. कहा जाए तो नीतीश कुमार ने अपनी चाल चल दी और उसका उन्हें फायदा होता भी दिख रहा है, लेकिन इस चाल का असर महागठबंधन और 2019 के चुनाव पर क्या होगा इसका आकलन करने में अभी वक्त लगेगा. लेकिन इतना तय है कि सूबे और देश की राजनीति पर नीतीश के इस बोल्ड फैसले का असर होगा और इसके आसार दिखने भी लगे हैं.