पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान बिहार के अगड़े समाज में कांग्रेस को लेकर जन्म ले रही कमजोरी से भी पार्टी वाकिफ है. कांग्रेस की चुनावी रणनीति में बिहार के ब्राह्मण व भूमिहार समुदाय को आकर्षित करने की विशेष योजना दिखती है. भाजपा इससे कुछ चिन्तित तो जरूर है. एक नेता पर भरोसा करें तो केंद्रीय नेतृत्व को इस परेशानी से अवगत कराया गया है. उन्हें बता दिया गया है कि सीटों के बंटवारे में पार्टी के सामाजिक आधार को जरूर ध्यान में रखे. भाजपा नेतृत्व अतिपिछड़ा व दलित-महादलित के राजनीतिक रूख को लेकर भी परेशान है.
बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यू) सुप्रीमो नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की नेता भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व को अपनी शर्त्त पर झुका ही लिया. संसदीय चुनाव 2019 में बिहार की लोकसभा की 40 सीटों के बंटबारे में भाजपा की बढ़त रखने की हर चाहत को उन्होंने ध्वस्त कर दिया. सीटों के बंटवारे में फार्मूला यह तय हुआ है कि बिहार एनडीए की दोनों बड़ी पार्टियां बराबर सीटों पर लड़ेंगी, वहीं रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी व उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी को भी सम्मानजनक सीटें दी जाएंगी.
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार ने इस आशय की घोषणा पिछले हफ्ते नई दिल्ली में की. इनके अनुसार अभी केवल फार्मूला तय हुआ है. सीटों की संख्या व किस दल को कौन सी सीट मिलेगी इसकी पहचान का काम अभी बाकी है. यह काम भी अगले कुछ दिनों में बिहार एनडीए के नेता मिल बैठकर कर लेंगे. सीट वितरण के फार्मूले की घोषणा जब की जा रही थी या फार्मूला तय करने के लिए शुक्रवार को जो बैठकें हुईं, उसमें दोनों छोटे दलों के नेता या कोई प्रतिनिधि मौजूद नहीं थे. इन दोनों दलों को बुलाया ही नहीं गया था.
लोजपा ने इसे, मजबूरी में ही सही, स्वीकार कर लिया. रालोसपा सुप्रीमो उपेन्द्र कुशवाहा ने कहा तो कुछ नहीं, मगर इस घोषणा के कुछ देर बाद तेजस्वी प्रसाद यादव से बंद कमरे में मुलाकात कर अपने भावी रूख का संकेत दे दिया- जय या क्षय. उनके इस रूख को अमित शाह ने नोटिस लिया और उन्हें बातचीत के लिए तत्काल दिल्ली बुलाया. इधर, उपेंद्र कुशवाहा भी प्रेस कॉन्फ्रेंस किए और भाजपा को अपने मंसूबों से उन्होंने अवगत करा दिया. उनका यह कहना कि बहुत कुछ बता देता है कि सिर्फ हानि ही क्यों हमें लाभ में भी साझीदार बनाया जाय.
भाजपा को आधी सीटों का नुक़सान
लोकसभा चुनावों के लिए सीट वितरण के इस फार्मूले को नीतीश कुमार की राजनीतिक ताकत का नतीजा ही माना जा रहा है. पिछले संसदीय चुनाव (2014) में उनकी पार्टी के दो ही उम्मीदवार जीत दर्ज कर सके- पूर्णिया और नालंदा में. उस चुनाव में जद (यू) किसी गठबंधन का अंग नहीं था. इस बार वह फिर एनडीए के अंग ही नहीं नेता हैं, तो अपने दो की जगह भाजपा के बराबर की सीटों पर चुनाव लड़ने में कामयाब हो गए हैं.
मौजूदा लोकसभा में भाजपा के 22 सदस्य हैं. अब तक की खबरों के अनुसार, इनमें से इसके चार से छह सांसदों की कुर्बानी देनी होगी. कुर्बान सीटों की संख्या तो और अधिक होगी. 2014 के चुनाव में भाजपा ने 30 सीटों पर अपने उम्मीदवार दिए थे. इस लिहाज़ से सीट शेयरिंग के इस फार्मूले को नीतीश कुमार की बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जा रहा है. वस्तुतः सीट शेयरिंग के इस फार्मूले के कई निहितार्थ हैं. अब बिहार एनडीए में बड़े भाई और छोटे भाई का विवाद खत्म हो जाएगा. भाजपा किसी भी कीमत पर जद (यू) से अधिक सीट अपने खाते में चाहती थी.
उसका कहना था कि वह राष्ट्रीय दल है और एनडीए में होने के बावजूद लोकसभा में वह बहुमत में है. दस राज्यों में उसकी पहली सरकार है. उसकी इस हैसियत को राज्यों में भी कम से कम लोकसभा चुनावों के दौरान स्वीकार किया जाना चाहिए. लिहाज़ा लोकसभा चुनावों में उसे जद (यू) से कम से कम एक सीट तो अधिक जरूर मिले. पर उसकी यह मुराद नीतीश कुमार ने पूरी नहीं होने दी. जद (यू) का तर्क था कि बिहार में गठबंधन कोई भी हो, चेहरा तो नीतीश कुमार का ही होता है. यह 2015 के विधानसभा चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन से भी साबित हो चुका है.
लोकसभा सीट वितरण के फार्मूले के नाम पर महीनों से चले राजनीतिक उठा-पटक के बीच एक बात और साफ हुई कि भाजपा के प्रादेशिक नेतृत्व का एक बड़ा धड़ा जो भी सोचे, केंद्रीय नेतृत्व नीतीश कुमार का साथ किसी भी कीमत पर छोड़ना नहीं चाहता है. उसका मानना है कि संसदीय चुनाव में महागठबंधन की संभावित बढ़त को रोकने के लिए नीतीश कुमार का साथ जरूरी है. केंद्रीय नेतृत्व मानता है कि 2015 के विधानसभा चुनावों में भाजपा की दुर्गति इसलिए हुई कि दलित और अतिपिछड़ों का वोट अपेक्षित तौर पर नहीं मिल सका.
अर्थात नरेंद्र मोदी, अमित शाह की विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी को सीट हासिल करने के लिए जद (यू) सुप्रीमो का साथ चाहिए. भाजपा की यह अघोषित आत्म-स्वीकृति नीतीश कुमार की राजनीति की उपलब्धि ही तो है. यह एक सचचाई है कि लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र सीटों के बंटवारे को लेकर भाजपा पर जद (यू) का दबाव पिछले कई महीनों से बढ़ता जा रहा था. खबर है कि इस बिलंब के कई साइड इपेक्ट भी सामने आने लगे थे. भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को कई राजनीतिक संकेत मिल रहे थे. जद (यू) की कथित ताक-झांक उसे परेशान कर रहे थे.
संभव है, यह सारा कुछ भाजपा को दबाव में लाने के लिए किया जा रहा हो. ऐसे राजनीतिक दबाव का माहौल बनाने में नीतीश कुमार माहिर माने जाते हैं. केंद्रीय नेतृत्व के लिए परेशानी का सबब यह भी था कि नीतीश कुमार को लेकर बिहार भाजपा का नेतृत्व दो खेमों में बंटा है. एक खेमा सीट-शेयरिंग के मसले को सुलझाकर उन्हें शांत रखने पर जोर दे रहा था, तो दूसरा खेमा इसे इस साल तक स्थगित रखने के पक्ष में था.
इस खेमे का मानना था कि जद (यू) जितना भी जोड़-तोड़ करे, उसके पास राजनीतिक विकल्प बहुत ही सीमित हैं, पर इस खेमे की बात पर बहुत गौर नहीं किया गया और शीट शेयरिंग का फार्मूला तय हो गया. हालांकि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आ जाने के बाद ही सीट शेयरिंग का काम करना चाहता था. नीतीश कुमार का दल इंतज़ार के लिए कतई तैयार नहीं दिख रहा था. इसे भी कुछ राजनीतक विश्लेषक नीतीश कुमार की उपलब्धि ही मान रहे हैं.
नीतीश के दबाव में झुक गई भाजपा
इसका दूसरा पहलू भी है, बिहार में भाजपा इस शताब्दी में पहली बार नीतीश कुमार के बराबर में खड़ी हो गई है. एनडीए में नीतीश कुमार के रहते भाजपा अब तक सदैव छोटे भाई की हैसियत से भी कमतर ही दिख रही थी. 2014 के संसदीय चुनावों के बाद राजनीतिक परिदृश्य बदल गया और लोकसभा में जद (यू) की अपेक्षा भाजपा बहुत बड़ी पार्टी बन कर सामने आई. जद (यू) के नेता सीटों के बंटवारे की बात करते वक्त 2014 के चुनावों को अपवाद मान कर बात कर रहे थे.
सो, बड़े जोड़-तोड़ और राजनीतिक दांव-पेंच के बाद भी जद (यू) सुप्रीमो भाजपा के बराबर ही रहे. लोकसभा में भाजपा अपनी जीती हुई करीब आधा सीटों का बलिदान कर रही है, पर इसकी भरपाई वह अगले विधानसभा चुनावों में करने की कोशिश करेगी. दूसरी बात, एनडीए में सीट शेयरिंग का जो फार्मूला सामने आया है, उससे भी कुशवाहा के महागठबंधन का अंग बन जाने की संभावना को बल मिल रहा है.
सीटों की हिस्सेदारी को लेकर एनडीए के सूत्रों से कोई एक खबर नहीं मिल रही है. भाजपा और जद (यू) के नेता अलग-अलग बातें बता रहे हैं. एक सूत्र के अनुसार, भाजपा और जद (यू) सूबे की 16-16 संसदीय सीटों पर अपने उम्मीदवार देंगे. बाकी आठ सीटों में से पांच लोजपा और दो रालोसपा के हिस्से में जाएंगीं. बाकी एक सीट रालोसपा के बागी सांसद अरुण कुमार को दी जाएगी. यह भी सोचा गया है कि यदि उपेंद्र कुशवाहा एनडीए से निकल जाते हैं, तो उनके हिस्से की दोनों सीटों में एक भाजपा को और एक जद (यू) को मिल जाएंगी.
इन सूत्रों ने दूसरा भी विवरण दिया है. उपेंद्र कुशवाहा के नहीं रहने पर भाजपा और जद (यू) 18-18 सीटों पर अपने उम्मीदवार देंगे. बाकी चार सीटें लोजपा के खाते में जाएंगी. लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान लोकसभा चुनाव न लड़ने और इसके बदले राज्यसभा जाने का मन बना रहे हैं.
दुरुह होगा सीटों का पेंच सुलझाना
फार्मूला तो तय हो गया, पर सीटों की पहचान का काम भी इससे कम दुरुह नहीं है. इस काम में दोनों बड़े दलों को कई परेशानी का सामना करना होगा. जद (यू) के पास अपनी जीती हुई दो ही सीटें हैं, पूर्णिया और नालंदा. इसके अलावा उसे 14-16 सीटें और देनी होंगी. ये सीटें कौन हो सकती हैं, यह कहना अभी कठिन है. पर भाजपा या अन्य दलों की कई जीती हुई सीटों पर जद (यू) की ओर से दावा, अनौपचारिक ही सही, किया जा रहा है.
सूत्रों पर भरोसा करें, तो पाटलिपुत्र, दरभंगा, शिवहर, वाल्मीकिनगर, बेगूसराय, औरंगाबाद, उजियारपुर, बक्सर व मुज़फ़्फ़रपुर जैसी भाजपा की सीटों पर जद (यू) ने दावा ठोंक रखा है. इसके साथ ही, लोजपा के खाते की मुंगेर, खगड़िया, जमुई, समस्तीपुर व वैशाली और रालोसपा की काराकाट सीटों पर भी वह लड़ना चाहती है.
फिर मधेपुरा, सुपौल व भागलपुर उसे चाहिए. भाजपा के लिए परेशानी है कि दरभंगा, बक्सर, वाल्मीकिनगर, बेगूसराय, मुज़फ़्फ़रपुर आदि निर्वाचन क्षेत्र उसके समर्थक सामाजिक समूह के प्रभाव वाले हैं. इन सीटों को छोड़ने का मतलब है, उन सामाजिक समूहों में आक्रोश को जन्म देना. पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान बिहार के अगड़े समाज में कांग्रेस को लेकर जन्म ले रही कमजोरी से भी पार्टी वाकिफ है.
कांग्रेस की चुनावी रणनीति में बिहार के ब्राह्मण व भूमिहार समुदाय को आकर्षित करने की विशेष योजना दिखती है. भाजपा इससे कुछ चिन्तित तो जरूर है. एक नेता पर भरोसा करें तो केंद्रीय नेतृत्व को इस परेशानी से अवगत कराया गया है. उन्हें बता दिया गया है कि सीटों के बंटवारे में पार्टी के सामाजिक आधार को जरूर ध्यान में रखे. भाजपा नेतृत्व अतिपिछड़ा व दलित-महादलित के राजनीतिक रूख को लेकर भी परेशान है.
पिछले ससंदीय चुनावों में भाजपा ने अतिपिछड़ा समुदाय से चार प्रत्याशी दिए थे. इनमें दो सीटों पर उनकी जीत हुई थी. इस बार इन चार में से दो के जद (यू) के पाले में चले जाने की आशंका है. इसी तरह दलित-महादलित के लिए भी भाजपा के भीतर गुंजाइश सिमट रही है. कुशवाहा समाज के वोट को लेकर भी भाजपा का एक खेमा काफी सोच में है. यह सही है कि उपेंद्र कुशवाहा अपने समाज के बहुत बड़े नेता नहीं हैं, पर इस सामाजिक समूह के स्वघोषित नेताओं में से उपेंद्र सबसे अधिक प्रभावशाली हैं. यदि वे एनडीए में नहीं रह पाते हैं (जिसकी आशंका बढ़ती जा रही है) तो इसका नकारात्मक असर पड़ना तय माना जा रहा है.
परेशानी के आयाम अनेक हैं. यदि सीटों की दावेदारी को लेकर परेशानी है, तो एनडीए के इन दोनों बड़े घटक दलों की चुनावी रणनीति भी परेशानी पैदा कर सकती है. भाजपा में इस बारे में अभी बहुत सोचा गया है, ऐसा लगता नहीं है. लेकिन जद (यू) की रणनीति की चर्चा राजनीतिक हलकों में होने लगी है.
इनपर भरोसा किया जाए तो भाजपा के लिए यह अतिरिक्त परेशानी का कारण होगा. जद (यू) चाहेगा कि अगड़ी जाति-बहुल क्षेत्र भाजपा के जिम्मे ही जाए और कांग्रेस के अगड़ी जाति के उम्मीदवारों का मुकाबला भाजपा अपने अगड़े प्रत्याशी से ही करे. उसकी यह भी रणनीति होगी कि पिछड़ी जाति बहुल निर्वाचन क्षेत्र जद (यू) के हिस्से में आए. जद (यू) नेताओं का मानना है कि इससे दोनों दलों के समर्थक सामाजिक समूहों में पकड़ की स्थिति साफ होगी. जद (यू) तो फिलहाल इससे संतुष्ट है कि वह दो से 16-18 के करीब पहुंच रहा है.
पर इसमें छुपी चुनौती को देखने की फिलहाल कोई कोशिश नहीं हो रही है. यह चुनाव नीतीश कुमार के लिए अग्निपरीक्षा जैसा ही है. उन्हें और उनके दल को अपनी राजनीतिक वक़त साबित करनी होगी. वे और उनकी पार्टी दावा करते हैं कि वे जिस तरफ होते हैं, जनादेश का बहुमत उस ओर होता है. इस लिहाज उन्हें भाजपा की अपेक्षा बड़ी जीत हासिल करनी होगी. संसदीय चुनाव का प्रदर्शन, जीत व हार ही एनडीए की आंतरिक राजनीति में अगले विधानसभा चुनावों की भागीदारी का पैमाना तय करेगा.