जनता दल यू के सर्वमान्य नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की हाल की राजनीतिक सक्रियता एक साथ कई संकेत देती है. शरद यादव को समय से पहले ही विदाई देकर उन्होंने जदयू की कमान पूरी तरह अपने हाथों में कर ली. राष्ट्रीय अध्यक्ष की उनकी भूमिका पर अब उनके सहयोगियों और विरोधियों दोनों की नजरें टिक गई हैं. दूसरी तरफ बिहार में अपने दल को ठोस और सुनिश्चित सांगठनिक स्वरूप देकर नीतीश कुमार एक विशिष्ट राजनीतिक तंत्र विकसित करने का हरसंभव उपाय कर रहे हैं. नीतीश कुमार ने यह ऐलान कर कि 2019 में भाजपा का जाना तय है, यह संकेत दे दिया है कि दिल्ली की राजनीति में अब सक्रिय तौर पर रहेंगे. नीतीश ने कह भी दिया कि प्रधानमंत्री के लिए मेरी दावेदारी का फैसला जनता तय करेगी.
अपनी नई भूमिका में नीतीश कुमार राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदा शासक समूह के सार्थक राजनीतिक विकल्प के रूप में खुद को पेश करने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहते. बिहार में विधानसभा चुनावों के बाद जदयू के पदाधिकारियों, नेताओं व सांसद और विधायकों की दो-दो औपचारिक बैठकें हुई और इन बैठकों में ये बातें बार-बार साफ हुई हैं. पहली बैठक तो विधानसभा चुनावों में महागठबंधन की भारी जीत को लेकर धन्यवाद ज्ञापन को लेकर थी. पर दूसरी बैठक पार्टी के सांगठनिक स्वरूप को लेकर रही. जदयू की अभी मार्च के अंतिम हफ्ते में यह बैठक हुई है.
इसका मुख्य मकसद नीतीश कुमार के सात निश्चय और शराबबंदी के अभियान में दल के कार्यकर्ताओं की भागीदारी बनाने के लिए उन्हें मानसिक तौर पर तैयार करना रहा है. मुख्यमंत्री दल का मजबूत सांगठनिक ढांचा तो तैयार कर ही रहे हैं सरकार के जनकल्याण और विकासमूलक कार्यों में कार्यकर्ताओं को भागीदार भी बनाना चाहते हैं. इसके लिए एक साथ दो फ्रंट पर काम किए जाने के संकेत मिले हैं.
जदयू को सूबे में ठोस सांगठनिक आधार देने की जरूरत पिछले कई वर्षों से शिद्दत से महसूस की जाती रही है. इन बैठकों में दल के सर्वमान्य नेता नीतीश कुमार ने इसे रेखांकित कर सांगठनिक मामलों का एक रोडमैप बैठक में पेश किया है. सूबे में पंचायत चुनाव समाप्त होने के बाद संपूर्ण क्रांति दिवस अर्थात पांच जून से जदयू का सदस्यता अभियान शुरू करने का निर्णय लिया गया है. इस अभियान के तहत सूबे की सभी पंचायतों में बीस से पच्चीस सक्रिय सदस्य बनाने का लक्ष्य तय किया गया है. इनकी मदद से सामान्य सदस्य बनाए जाने हैं. पूरे सूबे में पचास लाख सामान्य सदस्य बनाने का निश्चय किया गया है.
इसके साथ ही सभी जिला मुख्यालयों में दल की तरफ से जन शिकायत कोषांगों का भी गठन करने का निर्देश मुख्यमंत्री ने दिया है. यह कोषांग शराबबंदी और नीतीश कुमार के सात निश्चयों के साथ-साथ सरकार के जनकल्याण के कार्यक्रमों के कार्यान्वयन को लेकर शिकायतों के निपटारे की दिशा में काम करेगा. एक और बात महत्वपूर्ण रही. मुख्यमंत्री ने मंत्रियों, विधायकों सांसदों को एक विशेष निर्देश दिया है. उनका निर्देश है कि ये लोग जब भी दौरे पर कहीं जाएं तो अपने यात्रा कार्यक्रम की जानकारी दल के जिला अध्यक्षों को जरूर दें और जिला कार्यालयों में बैठक करें.
बैठकों का यह सिलसिला प्रखंड स्तर तक चलाया जा सकता है. मुख्यमंत्री ने सूबे के सभी जिलों और प्रखंडों में अगले दो महीने में पार्टी कार्यालय खोल लेने के निर्देश दिए हैं. मुख्यमंत्री ने बैठक में बताया कि सूबे में सभी स्तर पर सरकारी समितियों का जल्द ही पुनर्गठन किया जाएगा. इन समितियों में महागठबंधन के तीनों दलों के लोगों को शामिल किया जाएगा. इन समितियों में जदयू और राजद के हिस्से में चालीस-चालीस प्रतिशत मेम्बरी होगी जबकि कांग्रेस के खाते में बीस प्रतिशत होगा. बीस सूत्री कार्यक्रम कार्यान्वयन खाद्य सुरक्षा आदि की कोई आधा दर्जन सरकारी समितियां हैं जिनको प्रखंड स्तर तक गठित किया जाना है. इन समितियों के जरिए काफी संख्या में कार्यकर्ताओं को सरकारी कामकाज का भागीदार बनाया जा सकता है.
मुख्यमंत्री के ये दोनों निर्देश काफी राजनीतिक महत्व के हैं. लेकिन इन्हें जमीन पर उतारना क्या उतना ही सहज है? इस सवाल का सीधा जवाब देना कठिन है. जदयू के बड़े नेताओं के लिए भी. राज्यस्तर से लेकर प्रखंड स्तर तक की विभिन्न समितियों में हजारों कार्यकर्ताओं को जगह देकर सरकार के कामकाज में उनकी प्रत्यक्ष-परोक्ष भूमिका सुनिश्चित की जा सकती है. लेकिन मुख्यमंत्री ने बैठक में यह नहीं बताया कि इन समितियों का गठन कब तक होगा या इसकी प्रक्रिया कब आरंभ होगी.
हालांकि जदयू के कई वरिष्ठ नेताओं और मंत्रियों का मानना है कि विधानमंडल के सत्रावसान के बाद यह काम आरंभ किया जा सकता है. पर इससे जदयू के ही कई दिग्गजों की असहमति है. उनका मानना है कि यह काम बर्रे के छत्ते को छेड़ने जैसा है. इससे असंतोष निचले स्तर तक पहुंच जाता है. फिर ऐसी समितियों का गठन केवल जदयू के भरोसे नहीं हो सकता है. इस कार्य में महागठबंधन के अन्य घटक दलों राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस की भी सक्रिय सहमति चाहिए. उससे नाम नहीं मिलने की स्थिति में समिति का गठन नहीं हो सकता है.
मगर कार्यकर्ताओं में उत्साह बनाए रखने के लिए ऐसा कहना पड़ता है. दूसरी बात संगठन का काम भी सहज नहीं है. जदयू के पटना आश्रित नेता दावा करते हैं कि सूबे के अधिकांश जिलों में दल का कार्यालय खुल गया है और संगठन जीवन्त व सक्रिय हैं. पर दावा और वास्तविकता में फर्क है. सूबे में वैसे जिलों की संख्या कम ही है जहां दल का जिला कार्यालय अपनी पहचान के साथ सक्रिय है. दल के अधिकांश जिला कार्यालय स्थानीय नेताओं के वर्चस्व की लड़ाई के अखाड़े में तब्दील हो गए हैं.
इनमें कई अघोषित तौर पर बंद पड़े हैं तो कुछ स्थानों पर समानान्तर जिला कार्यालय चल रहे हैं. इन जिलों की संख्या भी कम नहीं है जहां संगठन पर काबिज होने के लिए हिंसक टकराव की खबरें भी आती रहती हैं.
नीतीश कुमार अपनी छवि को लेकर अति संवेदनशील रहे हैं. उनकी यह छवि बार-बार दांव पर आती रही है, पर वह हर बार खुद को संकट से निकाल लेते रहे हैं. इस लिहाज से उनका राजनीतिक कौशल काबिल-ए-तारीफ है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का धर्मसंकट यह है कि इस बार वह उन लोगों के साथ सरकार चला रहे हैं जिनके पंद्रह साल के कार्यकाल को दो साल पहले तक वह कुशासन का प्रतीक बता रहे थे. उनकी सरकार के मंत्री जेल में जाकर सजायाफ्ता आपराधिक सरगना से मिलते हैं. उनका यह भी संकट है कि सरकार में शामिल दल के विधायक मारपीट तो कर ही रहे हैं.
बलात्कार जैसे मामले के नामजद अभियुक्त हैं और ऐसे नामजद अभियुक्त विधायक को जेल में ऐश करने का भरपूर मौका मिल रहा है. लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि सजायाफ्ता अपराधी सरगना से मिलने वाले मंत्री या जेल में बिचाराधीन बंदी बलात्कर के आरोपी विधायक को सरकार के ही कुछ बड़े नेताओं का मुखर या मौन संरक्षण हासिल है.
मुख्यमंत्री का संकट यह भी है कि वे सूबे में कानून का राज होने की बात निरंतर और जोर से बोल तो रहे हैं पर जनधारणा है कि बिहार में अपराध और अपराधी बेलगाम हो गए हैं. इस धारणा को बदलना जरूरी है. हालांकि कई स्तर पर काम किया जा रहा है, पर हालात में सुधार का कोई संकेत नहीं दिख रहा है. यह नकारात्मक माहौल नीतीश कुमार के भावी राजनीतिक अभियान में संकट के कारण बन सकते हैं. इसके साथ ही यह भी सही है कि शराबबंदी अभियान की सफलता ऐसे माहौल से निकाल कर उनकी राजनीति को नई उड़ान दे सकती है.
यह अगले संसदीय चुनाव 2019 में उनकी बड़ी राजनीतिक पूंजी हो सकती है. एक बड़ा वोट बैंक अनायास उनके साथ हो जाएगा जो राष्ट्रव्यापी असर का हो सकता है. इसके अलावा नीतीश कुमार अब निजी क्षेत्र में आरक्षण की बात भी जोर शोर से उठा रहे हैं. नीतीश वर्तमान आरक्षण की सीमा पचास फीसदी को भी संविधान में संशोधन कर बढ़ाने की बात कह रहे हैं. जाहिर है शराबबंदी और आरक्षण इन दो मजबूत हथियारों के साथ नीतीश कुमार 2019 की लड़ाई में नरेंद्र मोदी के साथ दो-दो हाथ करना चाहते हैं.
नीतीश कुमार इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि बिना कांग्रेस के उनकी लड़ाई धारदार नहीं हो सकती. इसलिए उनके रणनीतिकारों ने कहना शुरू कर दिया है कि यथासंभव विलय और तालमेल का फार्मूला लागू कर नरेंद्र मोदी के खिलाफ व्यापक मोर्चा बनाया जाएगा और यह कोशिश होगी कि नरेंद्र मोदी के लिए दिल्ली के सारे दरवाजे बंद कर दिए जाएं. दिल्ली की राजनीति के लिए नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी के विरोधियों के लिए एक उम्मीद बनकर उभरे हैं. देखना दिलचस्प होगा कि नरेंद्र मोदी बनाम नीतीश कुमार की लड़ाई आगे क्या मोड़ लेती है.