प्रत्येक लेखक-रचनाकार-कलाकार अपनी कृति-रचना-प्रस्तुति में वही कुछ कहने का प्रयास करता है, जो वह देश में, समाज में, अपने इर्द-गिर्द देखता और महसूस करता है. न केवल अपनी कृति-रचना-प्रस्तुति में, बल्कि उन खास मौक़ों पर भी, जब देश एवं समाज से जुड़े सवाल सामने हों, उसका रुख वही होना चाहिए, जो एक ज़िम्मेदार शख्स का होता है. विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने वाला हमारा देश आम चुनाव के रूप में एक अहम मौ़के से दो-चार है. ऐसे में, साहित्यकारों, लेखकों एवं कलाकारों की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है. हमेशा की तरह इस बार भी चुनाव के दौरान राजनीतिक दल और लेखक-साहित्यकार-कलाकार एक-दूसरे के निशाने पर रहे.
देश के जाने-माने लेखकों, साहित्यकारों एवं कलाकारों ने मतदान शुरू होने से पहले भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के ख़िलाफ़ एक अपील जारी की और कहा कि इस चुनाव में वह ताकत सत्ता पर काबिज होने की कोशिश कर रही है, जो घोषित रूप से भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए वचनबद्ध है और एक कथित सांस्कृतिक संगठन का राजनीतिक मोर्चा है. जनवादी लेखक संघ की ओर से जारी इस अपील पर केदारनाथ सिंह, नामवर सिंह, शेखर जोशी, विश्वनाथ त्रिपाठी, दूधनाथ सिंह, यू आर अनंतमूर्ति, अशोक वाजपेयी, असगर वजाहत, मैत्रेयी पुष्पा, पुरुषोत्तम अग्रवाल, सईदा हमीद, तीस्ता सीतलवाड़ एवं राजेश जोशी जैसे लेखकों, संस्कृतिकर्मियों एवं कलाकारों के हस्ताक्षर हैं. अपील में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को निशाना बनाते हुए कहा गया कि इस मुहिम का नेतृत्व एक ऐसा व्यक्ति कर रहा है, जिसके शासनकाल में वर्ष 2002 में मुसलमानों का कत्लेआम हुआ, लेकिन उसे कभी पछतावा नहीं हुआ.
ग़ौरतलब है कि कुछ समय पूर्व ज्ञानपीठ विजेता एवं प्रख्यात कन्नड़ लेखक यू आर अनंतमूर्ति ने कहा था, मैं उस देश में नहीं रहना चाहूंगा, जहां नरेंद्र मोदी जैसा शख्स प्रधानमंत्री हो.दूसरे प्रख्यात कन्नड़ लेखक, अभिनेता एवं ज्ञानपीठ विजेता गिरीश कर्नाड ने भी नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला. उन्होंने भाजपा का एकमात्र चेहरा होने को लेकर मोदी को निशाना बनाया, जबकि अनंतमूर्ति का मानना है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी भारतीय सभ्यता और उसकी बहुलतावादी संस्कृति के लिए ख़तरा हैं. उधर भाजपा इन दोनों लेखकों को कांग्रेस का चापलूस बताती है. भाजपा नेता सुरेश कुमार ने सवाल उठाया कि जब हर व्यक्ति के पास अपनी पसंद के राजनीतिक दल का समर्थन करने का अधिकार है, तो ऐसे में क्या साहित्यकारों द्वारा भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की लोकप्रियता पर सवाल उठाना और शोर-शराबा करना सही है? वहीं कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार ने कहा कि ऐसी बातें स़िर्फ नक्सलियों एवं अपराधियों के समर्थक, वामपंथी विचारधारा के साहित्यकार कर रहे हैं. लेखक वसुंधरा भूपति, के मरुलासिदप्पा एवं जी के गोविंद राव ने अनंतमूर्ति और कर्नाड के साथ मिलकर समकालीन विचार वेदिके नामक बैनर बनाया है. सिद्धार्थ वरदराजन, अनन्या वाजपेयी एवं मुकुल केसवन ने अपने आलेखों में कहा कि नरेंद्र मोदी की जो छवि निर्मित की जा रही है, वह वास्तविक नहीं है.
बीते 17 अप्रैल को वाराणसी में एक सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसमें बड़ी संख्या में लेखकों, संस्कृतिकर्मियों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया. वक्ताओं ने कहा कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला मौक़ा है, जबकि औद्योगिक घराने किसी राजनीतिक दल अथवा व्यक्ति विशेष को इस तरह समर्थन दे रहे हैं. इसके पीछे उनका मकसद नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों से उपजे संकट को छिपाना है. प्रो. प्रभात पटनायक ने कहा कि नरेंद्र मोदी के आने से देश में चल रहे सामाजिक आंदोलन को हानि पहुंचेगी और वह विपरीत दिशा में चला जाएगा. जर्मनी में भी हिटलर को सत्ता में लाने के पीछे उद्योगपतियों का बड़ा योगदान था, जिन्हें बाद में बंदी शिविर चलाने की छूट दी गई थी. मोदी के आने के बाद हमारे देश में भी वैसा होगा. पटनायक ने कहा कि लाल बहादुर शास्त्री ने महबूब नगर में हुए रेल हादसे के बाद त्यागपत्र दे दिया था, पर मोदी ने 2002 में हुए गुजरात दंगों के लिए माफी तक नहीं मांगी. सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ ने कहा कि गुजरात में आर्थिक विकास नहीं, बल्कि सांप्रदायिकता, आतंक, नफरत का विकास हुआ. तीस्ता ने मीडिया पर भी निशाना साधते हुए कहा कि जब बॉलीवुड के कुछ अभिनेताओं ने धर्मनिरपेक्ष उम्मीदवारों को वोट देने की अपील वाला बयान निकाला, तो कॉरपोरेट मीडिया ने उसे सही कवरेज न देते हुए इस तरह दिखाया, जैसे बॉलीवुड दो दलों में बंट गया हो.
देश के विभिन्न लेखकों, कलाकारों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने वाराणसी में डेरा डाल रखा है. वे संदेश देना चाहते हैं कि देश को सांप्रदायिक ताकतों से बचाने की ज़रूरत है. इस सिलसिले में आयोजित एक बैठक में मुहिम की कमान प्रसिद्ध साहित्यकार काशीनाथ सिंह को सौंपी गई. प्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव ने कहा कि वाराणसी और लखनऊ तहजीब, सभ्यता एवं संस्कृति के प्रतीक हैं. इसलिए धर्म की राजनीति करने वालों को प्रश्रय देकर इतिहास कलंकित नहीं करना है. विभूति नारायण राय ने कहा कि सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए यदि ज़रूरी हो, तो सिद्धांतों से समझौता भी किया जा सकता है. काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बलराज पांडेय का मानना था कि यदि बौद्धिक वर्ग तमाशबीन बन गया, तो आने वाला समय कभी माफ़ नहीं करेगा.
इस बौद्धिक वर्ग की अपीलें, कोशिशें कितनी कारगर होंगी, यह तो समय बताएगा, लेकिन यहां एक सवाल ज़रूर खड़ा होता है कि चुनाव के वक्त ऐसी लामबंदी, घेरेबंदी स़िर्फ भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ क्यों की जाती है? अगर भाजपा को सांप्रदायिक मानकर ऐसा किया जाता है, तो भ्रष्टाचार और घोटालों को आधार बनाकर कांग्रेस को भी घेरा जाना चाहिए था. अगर नरेंद्र मोदी गुजरात दंगों के लिए दोषी हैं और इसलिए उन्हें वाराणसी में घेरा जा रहा है, तो कांग्रेस ने अपने दस सालों के शासनकाल में देश को खोखला बना दिया है, इसलिए रायबरेली में सोनिया गांधी को भी घेरा जाना चाहिए था.
निशाना बनाने में भेदभाव क्यों?
Adv from Sponsors