वित्त मंत्री बहुत ही समझदार हैं. वह सब कुछ समझते हैं, लेकिन इस सबको लागू करने में उनकी अपनी कुछ कठिनाइयां होंगी. बावजूद इसके, अगले बजट से पहले उनका मन स्पष्ट होना चाहिए और कुछ साहसिक निर्णय लेने चाहिए. मैं 1985 को याद करता हूं, जब राजीव गांधी ने वीपी सिंह को वित्त मंत्री नियुक्त किया था. श्री सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में यह महसूस किया कि मौजूदा टैक्स रेट ज़्यादा है, इसलिए लोग कर चोरी करते हैं. उन्होंने तत्कालीन वित्त सचिव बिमल जालान से इसे कम करने के बारे में पूछा.
26 नवंबर को नरेंद्र मोदी सरकार के छह महीने पूरे हो गए. आइए, देखते हैं कि इन छह महीनों में क्या हुआ. एक तो यह कि राष्ट्रीय भावना काफी उत्साहित हुई है. आम आदमी इस बात से उत्साहित है कि हम बड़े बदलाव की ओर जा रहे हैं. दूसरी बात यह कि प्रधानमंत्री ने कई उपायों की घोषणा की है, जिनमें कुछ असामान्य घोषणाएं हैं, लेकिन इससे आप असहमत नहीं हो सकते. सबसे पहले यह कि देश भर में शौचालय बनाए जाने चाहिए, खुले में शौच बंद होना चाहिए. इस बात से कोई भी शिकायत नहीं कर सकता. दूसरा है स्वच्छता अभियान. कचरा निपटान ठीक ढंग से हो. ये सब बहुत पुरानी समस्याएं हैं और अब तक इन सबकी उपेक्षा की गई है. इसलिए अब कोई भी शख्स प्रधानमंत्री से असहमत नहीं हो सकता, जब वह इसके लिए एक राष्ट्रीय परियोजना या एक योजना की घोषणा करते हैं. समस्या इन योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर आती है. आप कैसे हर गांव के लिए यह योजना चलाएंगे? क्या इसके लिए कोई मानक डिजाइन तैयार किया गया है? अगर शौचालय है और उसका इस्तेमाल नहीं हो रहा है, तो खुले में शौच तब भी होता रहेगा. क्या कोई मिशन है, कोई बॉडी है, कोई अथॉरिटी है, जो इस योजना के क्रियान्वयन के लिए दिशा देने का काम करेगी? धन की व्यवस्था कैसे होगी? या तो सांसद-विधायक निधि का इस्तेमाल हो या सरकार इसके लिए अलग से पैसे दे या फिर कॉरपोरेट को इसके लिए एक अलग अनुदान देने के लिए कहा जाए. ऐसा कुछ अभी तक हुआ नहीं है. व्यक्तिगत रूप से लोग ऐसा कर रहे हैं, लेकिन यह पहल राष्ट्रीय स्तर पर नहीं हो रही. इसी तरह सफाई का काम और भी मुश्किल है. फोटो खिंचवाने के लिए नेताओं द्वारा कचरा साफ़ किया जा रहा है, लेकिन असल में हो क्या रहा है?
हानिकारक बायो-डिग्रेडेबल कचरा, धातु और प्लास्टिक सबको एक साथ मिलाकर पॉलिथीन बैग में डाल दिया जाता है. इससे समस्या का हल नहीं निकलेगा. हमें इसके लिए आधुनिक वैज्ञानिक तरीके अपनाने होंगे. अलग-अलग तरह के कचरे के लिए अलग-अलग डिब्बे उपलब्ध कराने होंगे. आधुनिक विधि से कचरे का निपटान करना होगा. फिर से वही सवाल कि इसके लिए कौन फंड देने जा रहा है और पैसा कहां से आएगा? मुंबई नगर निगम की तरह समृद्ध नगर निगमों के पास पैसों की कमी नहीं है. फिर भी मुंबई में कचरा भयंकर रूप से फैला हुआ है. लोग जहां मन होता है, वहीं कूड़ा फेंक देते हैं. पर्याप्त संख्या में डस्टबिन नहीं हैं. मुंबई में अनुबंध पर सफाई का काम हो रहा है. जहां भी नगर निगम के आदमी सफाई कर रहे हैं या नहीं कर रहे हैं, वहां पर उन्होंने ठेकेदार को यह काम दे दिया है और ठेकेदार काम कर रहे हैं. वे अच्छे से काम कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें पैसा तभी मिलेगा, जब सफाई होगी. अब यह मॉडल पूरे देश के लिए सही मॉडल है या नहीं, मैं नहीं जानता. सरकारी सफाईकर्मी इसका विरोध करेंगे, क्योंकि आप इसे आउटसोर्स कर रहे हैं. लेकिन, तथ्य यह है कि दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता जैसे समृद्ध नगर निगम संगठित तरीके से ही सफाई का काम करा सकते हैं, चाहे वह सरकारी कर्मचारियों द्वारा हो या ठेकेदार द्वारा. इसी प्रकार छोटे शहरों में जहां नगर पालिका या पंचायत है, वहां भी इस काम के लिए किसी को इसी तरह अधिकृत कर देना चाहिए. अन्यथा यह सब प्रधानमंत्री का एक अच्छा इरादा बनकर रह जाएगा और असल में होगा कुछ नहीं.
इन छह महीनों में इस सबके अलावा, प्रधानमंत्री ने पड़ोसी देशों और चीन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया व जापान आदि के साथ संबंधों में सुधार लाने की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की. यह बहुत अच्छा है. हालांकि, इन देशों के साथ हमारे संबंध खराब भी नहीं थे, लेकिन इसे एक नई दिशा देना स्वागत योग्य बात है. बेशक, दुनिया की राजनीति में यह समझा जाना चाहिए कि हर देश अपना हित पहले देखता है और किसी को यह खराब भी नहीं लगना चाहिए. भारत को अमेरिका एक बड़े बाज़ार के रूप में देखता है. आपको अपने हित खुद देखने होंगे. प्रधानमंत्री द्वारा सभी देशों के साथ द्विपक्षीय संबंधों को बेहतर बनाना एक स्वागत योग्य पहल है. यह पिछले छह महीनों का प्लस साइड है. आर्थिक नीति की दिशा में काम किया जाना रह गया है. पिछले बजट में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ था, लेकिन वित्त मंत्री ने अगले बजट में दूसरी पीढ़ी के सुधारों का वादा किया है. वास्तव में उनका क्या मतलब है, हम नहीं जानते. लीगल सिस्टम की बात करें, तो इसके लिए एक ओवरहॉल की ज़रूरत है. यहां एक मुकदमे में जिस तरह से सालों साल लगते हैं, पैसा खर्च होता है, उससे ग़रीब और मध्यम वर्ग का आदमी अदालत जाना बंद कर देगा. इसके लिए क्या होने जा रहा है, इस दिशा में क़ानून मंत्रालय क्या करेगा? सक्रिय दृष्टिकोण के साथ काम कर रही सरकार को मुख्य न्यायाधीश के साथ मिलकर इस पर विचार करना चाहिए कि कैसे और किन उपायों से आम आदमी को कुछ राहत मिल सकती है. लेकिन, मुझे लगता है कि इस मोर्चे पर कोई क़दम नहीं उठाया जा रहा है.
इसी प्रकार वित्तीय मोर्चे को देखें, तो मध्यम वर्ग, छोटे व्यापारियों एवं दुकानदारों को किसी तरह की राहत मिलती नहीं दिख रही, जो इस पार्टी का मुख्य आधार हैं. चाहे बिक्रीकर या इंस्पेक्टर राज की बात क्यों न हो. मैंने छोटे व्यापारियों से बात की है. उनके लिए कोई परिवर्तन नहीं आया है. अच्छे इरादों के साथ मोदी सरकार आ गई है, लेकिन ज़मीन पर अभी कुछ भी नहीं हुआ है. इस सबका समाधान निकलना ज़रूरी है. क्या वित्त मंत्री यह सब करना चाहते हैं, हम नहीं जानते. दुनिया में तेल की क़ीमतों में तेजी से कमी आई है. इससे वित्त मंत्री को राहत मिली है. इम्पोर्ट बिल घटा है, चालू खाता घाटा कम हुआ है. खाद्य भंडार ठीकठाक है, इसलिए फूड स्टॉक जारी करके मुद्रास्फीति नीचे लाई जा सकती है. इसलिए वित्त मंत्री के पास काफीकुछ करने के लिए है जो पिछली सरकार नहीँ कर सकी थी. अब वे कितना कुछ करतेहै, इसका इंतजार है. इस सरकार के लिए एक बड़ा मुद्दा यह है कि आख़िर सरकार रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स (पूर्वव्यापी टैक्स) को क्यों नहीं ख़त्म करती? इसे तो सरकार को शपथ लेते ही 24 घंटे के भीतर ख़त्म कर देना चाहिए था. इस पर तो सर्वसम्मति भी है. वित्त मंत्री ने इस मामले की जांच के लिए एक समिति बना दी, जो बेवजह है. इस बजट से पहले अगर कुछ नहीं होता है, तो कम से कम उन्हें इसे (रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स) ख़त्म कर देना चाहिए. इससे भारत और भारत से बाहर के निवेशकों का आत्मविश्वास बढ़ेगा कि भारत एक निष्पक्ष देश है और यहां व्यापार किया जा सकता है.
वित्त मंत्री बहुत ही समझदार हैं. वह सब कुछ समझते हैं, लेकिन इस सबको लागू करने में उनकी अपनी कुछ कठिनाइयां होंगी. बावजूद इसके, अगले बजट से पहले उनका मन स्पष्ट होना चाहिए और कुछ साहसिक निर्णय लेने चाहिए. मैं 1985 को याद करता हूं, जब राजीव गांधी ने वीपी सिंह को वित्त मंत्री नियुक्त किया था. श्री सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में यह महसूस किया कि मौजूदा टैक्स रेट ज़्यादा है, इसलिए लोग कर चोरी करते हैं. उन्होंने तत्कालीन वित्त सचिव बिमल जालान से इसे कम करने के बारे में पूछा. सभी नौकरशाहों की तरह जालान ने कहा कि इससे हमें राजस्व का ऩुकसान होगा. और, सभी राजनीतिक व्यक्तियों की तरह वीपी सिंह ने मुस्कराते हुए कहा कि इस दर पर कोई करों का भुगतान नहीं करता है, तो आप कैसे राजस्व खो रहे हैं? उन्होंने साहसिक निर्णय लेते हुए टैक्स रेट घटा दिए. 1985 के बाद से भारत के राजस्व की स्थिति बहुत अच्छी है. तीस फ़ीसद के व्यक्तिगत कराधान की वजह से आज ज़्यादा लोग कर भुगतान करते हैं.
रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी कहा है कि हमें टैक्स कम करना चाहिए, ताकि लोग उसका भुगतान कर सकें. मैं अभी कॉरपोरेट सेक्टर के बारे में बात नहीं कर रहा हूं. मैं उन लोगों की बात कर रहा हूं, जिन पर कर नहीं लगना चाहिए या लगे भी, तो 10 फ़ीसद से ज़्यादा नहीं. जबकि हम अभी उन पर 30 फ़ीसद कर लगा रहे हैं. ऐसे लोगों पर कम कर लगाने से उनके हाथ में पैसा रहेगा, जिसे वे भारत की अर्थव्यवस्था में लगाएंगे, चाहे वह बैंक में सावधि जमा हो या शेयर बाज़ार या फिर किसी अन्य तरीके से. इससे निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी, लेकिन इन उपायों को लागू करने का ़फैसला प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री द्वारा ही व्यक्तिगत रूप से लिया जा सकता है यानी केवल वे ही ऐसा कर सकते हैं.
आर्थिक मोर्चे पर साहसिक निर्णय लेने की ज़रूरत
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