आज की कवि शिरीन भावसार पर टिप्पणी कर रहे हैं मिथिलेश राय
हर लेखक कवि का अपना रचना संसार होता है। उसका देखा, समझा, परखा हुआ , उसके रचना संसार से होकर हमारे बीच आता है। अब उससे कौन कितना प्रभावित होता है यह कह पाना ज़रा मुश्किल है। शिरीन जी की तरह मैं भी लिखता हूँ। जैसा जब कुछ मन आया लिख दिया । पर अभी तक केवल कविता ही लिख पाया हूँ।अन्य विधाएं ग़ज़ल गीत, रुबाई नज़्म इनको केवल देखा है एक अच्छा पाठक भी नही हूँ। कविता के बारे में मेरा मानना है कि मेरी कविता जैसी भी हो पर उसका पाठक ब्रज सर जैसा हो, मेरी यही चाहत रही, मैं अक्सर अपनी कविता ब्रज सर को भेजता हूँ। वे अभी तक कुछ को देख लेते है कुछ पर उनकी सहमति भी मिल जाती है। ब्रज सर के उदाहरण देकर मैं अपनी बात आप तक अच्छे से पहुँचा सकता हूँ क्योंकि आप सब उन्हें अच्छी तरह जानते समझते है। अन्य नाम को लूँ भी तो वे सब यहां उतना प्रभाव नही रख पाएंगे, कवि के रूप में मेरी कसौटी यही रही । आप अच्छे कवि, लेखक तब तक नही बन सकते जब तक आपका पाठक आप से तिगुना चौगुना बड़ा न हो। यह मेरा आत्मकथ्य शिरीन जी की कविता के पहले लिखना, कहना मुझे उचित लगा ।
किसी कवि की कविता पर बोलना याकि लिखना मुझे से नही आता ना मैं लिख बोल ही पाता हूँ। ऐसे में मुझे कहा गया है। सो मैं लिख रहा हूँ। आप इसे मेरी समझ मानकर पढ़े । क्योंकि आपका पाठक ही आपकी कविता को अच्छे से समझ सकता है। उसकी तलाश हमे करनी चाहिए।
शिरीन जी की कविताएँ पढ़ी । सभी अच्छी है । नई कविता की शैली में है
विचारों को भली तरह से रखती है।
वे कहती कि- अवरुद्धता समापन नही
है, पुनरुद्गमन है। जीवन का
एक अन्य कविता में वे जीवन के मूल को कबीर के स्वर ,झूठा सब संसार , के करीब तक ले जाती है की जीवन मे सभी कुछ मिथ्या है ,वे कहती है जिंदगी उत्सव है पर मौत जैसे महोत्सव हो,
कवि की उम्मीद का बने रहना ही उसकी सार्थकता है,शिरीन जी निराश नहीं है ना वह निराशा को ही अपने पाठक में घर बनाने देना चाहती इसलिए वे पूरी आशा से भरकर घोषणा करती है, की मंजिलें इंतजार करती है बरसों बरस….. अडिग रहती है ।
वे जीवन की बड़ी सूक्ष्मता से पड़ताल करती दिखती है जब वे कहती है कि
:इस सृष्टि में फूल और स्त्री हो जाना
आसान नही है।
उनका कवि मन अपने समय से व्यथित है। और एक कवि के लिए दुख ही उसकी पूँजी है वह उसी से अपने और समाज के लिए नई राह तलाशने में लगा रहता है। इसलिए वे अपनी कविता में पुकार में उस दुख को दर्ज करते हुए लिखती है।
“बदल डालिये अब तो /समाज की
पूर्वधारणाओं को /वक़्त की यही पुकार हो रही है।
कवि अपने मे रमा रहता है दुनिया उसके लिए भीड़ है। जबकि कवि नदी है उसका बहना किसी भी तरह से नही रोका जा सकता। वे नदी के माध्यम से अपने भीतर की उस मजबूत स्त्री का बयान प्रस्तुत करती है कि नदी हूँ मैं, बह रही थी मैं बहती ही रहूँगी।
सबसे आखिरी कविता में आदमी के दर्द को करीब से महसूस करते हुए कहती है। मेरी आंखों ने/ तेरी आँखों का देखा है, दर्द में थम जाना/भीग जाना/बह जाना/लिपट जाना और शून्य हो जाना।
दरअसल कविता का फलक बड़ा है हमसब चाहकर भी उसमे कविता के हर पक्ष को नही रख सकते। राजनीतिक/सामाजिक/आर्थिक/जैविक/संवेदनशीलता/स्मृति/करुणा/यथार्थ जाने कितने पक्ष है । सभी अपनी तरह से साधते है पर अच्छा वही है अच्छा से मेरा मतलब यही की लिखना वही है जिसमे कविता के कुछ पक्ष मौजूद हो ना सही बहुत से पक्ष एक ही को रखे पर इतनी
मजबूती से रखे कि उसकी गूंज दूर तक जाये
नवरात्रि के नौ कवयित्री नौ दिन का अनुपम आयोजन ,बहुत अच्छा लग रहा है रोज हमे कुछ नया पढ़ने देखने सुनने को मिल रहा है। इस आयोजन का मुझे हिस्सा बनाने के लिए, ब्रज सर, मैथिल जी, दिनेश जी,मुस्तफा जी सुधीर जी वा अन्य सभी सकीबा परिवार के साथियों का बहुत बहुत आभार धन्यवाद ।
शिरीन भावसार की कविताएँ
अवरुद्धता
अवरुद्ध हो जाती है
कलम
स्याही जम जाती है
शुष्क बर्फ की मानिंद….
कुछ शब्द बहते नहीं
स्थिर हो जाते हैं
नदी की चट्टान की भाँति
गतिहीन…..
हर भाव, बहाव
ठहरता है वहीं
कुछ वक्त के विराम पर…..
ठहराव
मंथित करता है
विचारों को ,आत्मबल को
जीवन को, जीवन-दर्शन को….
कई बार अवरुद्धता
सकारात्मकता दर्शाती है….
नये दृष्टिकोण का
उद्गम करती है….
उसी प्रकार जैसे
सूर्य से तपित हो
ग्लेशियर भी
प्रवाहमान हो जाते हैं…..
उस नदी के जल की भाँति जो
स्थिर चट्टान से टकराती है
कुछ पल ठहरती है
बिखरती है
अवरुद्ध होती है….
और पुनः राह तलाश
प्रवाहित हो जाती है…..
अवरुद्धता समापन नहीं
पुनर उद्गमन है….
विचारों का, जीवन का
जीवन दर्शन का…..
शिरीन भावसार
इंदौर (म. प्र.)
2
मिथ्या
जिंदगी और मौत
दोनों ही मुझे अचंभित करती हैं
सोचती थी
जिंदगी उत्सव है
किन्तु
मौत….
यूँ लगा जैसे महोउत्सव हो….
जीवन और मृत्यु की दहलीज़
पर खड़े व्यक्ति की
खुलती बन्द होती पलकों के बीच
स्थिर पुतलियाँ
विदाई का
संदेश देती प्रतीत होती है
जैसे कह रही हो
बिन प्राण
एक व्यक्ति
मात्र शरीर ही तो है….
मृत्यु किसी की भी हो
व्यथित तो करती है
किंतु जीवन
जुड़े व्यक्ति को विस्मरत करने की
अकूत क्षमता प्रदान करता है.
जीवन और मृत्यु के बीच का
वह एक पल
मोह के सभी धागों को तोड़ जाता है
जिनमें यह मन बंधा रहता है
उसी एक पल की अनुभूति
निर्मोही बना जाती है.
तब
यह पूरा जीवन
बेहद मिथ्या लगता है.
शिरीन भावसार
इंदौर (मप्र)
3
मंजिलें
मंजिलें इंतेज़ार करती हैं
बरसों बरस ….
नींव के पत्थर की भाँति
अडीग रहती हैं…
सराय की मानिंद
कभी
बाहें पसारे
स्वागत को आतुर,
कभी
आगन्तुक के
पलायन को स्वीकारती….
कई कारवाँ गुजरते हैं
ठहरते हैं, छूते हैं ,
खुशियां महसूसते हैं
फिर…. आगे बढ़ जाते हैं
पुनः एक नई मंज़िल गढ़ते हैं…
पीछे छोड़ी गई
मंजिलों के हिस्से फिर
एक इंतेज़ार लिख जाते हैं…
यादों और लम्हों की निशानियों को
वक़्त की गर्द से लीपपोत कर
मिटाती मंजिल भी
दुखती तो होगी …
किसी का भी गुज़र जाना
महज़ एक घटना भी तो नहीं…
शिरीन भावसार
इंदौर (मप्र)
4
आसान नहीं
पेड़ ,पौधे, खरपतवार
या कैक्टस
किसी का भी
फूल हो जाना आसान नहीं…
नाजुक सुकोमल पंखुड़ियों पर
दायित्व लिए सृजन का
जीवन यात्रा के
अनगिनत पड़ाव
तय करना आसान नहीं..
असमय ही शाख से तोड़ लिया जाना,
प्रेमिकाओं की वेणी में गूंथ दिया जाना
कभी
पैरों से कुचल दिया जाना
या
देवालयों में समर्पित कर दिया जाना
मन के विरुद्ध समर्पण
आसान नहीं…
किन्तु…
परिचित होकर भी नियति से अपनी
तज कर सुंदरता
बलिदान कर अस्तित्व का
पोषित कर गर्भ को
बीज हो जाना आसान नहीं…
इस सृष्टि में
फूल और स्त्री हो जाना आसान नहीं…
शिरीन भावसार
इंदौर (मप्र)
5
पुकार
सीता ,अहिल्या, द्रौपदी से
निर्भया तलक,
असंख्य कड़ियां
जुड़ी तुड़ी पड़ी हैं…
हर दरवाज़ा हर खिड़की
कई कई बार
रात बेरात चीख रही हैं…
सुनसान अंधेरी सड़कें
अब
उम्र जी बंदिशें रौंद रही हैं…
जिस्म हो रहे है तार तार
आत्माएं रो रही हैं….
नैतिकता खड़ी है मौन
सामाजिकता खंडित हो रही हैं…
बदल डालिए अब तो
समाज की पूर्वधारणाओं को
वक़्त की यही
पुकार हो रही है
शिरीन भावसार
इंदौर (मप्र)
6
दो लघुकविताएँ
नदी
शिकंजा बुनती रही
भीड़…
मगर
बह रही थी मैं
बहती ही रही…
आंख
इन आँखों ने
देखा हैं
तेरी आँखों का
दर्द में
थम जाना
भींग जाना
बह जाना
लिपट जाना
और
शून्य हो जाना….
शिरिन भावसार
इंदौर (मप्र)
नौ दिन नौ कवियित्रियों की विविध रंगों में सजी हुई कविताएं पढ़ते हुए आज अष्टम दिवस जो अधिष्ठात्री देवी महागौरी का है. हम शिरीन भावसार जी की कविताओं की गहनता पर चर्चा करते है.
1
‘अवरुद्धता’
शिरीन जी की कविताएं बिम्बों से सजी हुई वैचारिक,दार्शनिक, और चिंतन के लिए आत्मप्रेरित करती हुई कविता है जिसका हर बंद गहन अर्थ छोड़ता हुआ चलता है बस पाठक उसकी गहराई में उतर सके
कलम का रुकना..
कलम के मानिंद..
ठहरता है वहीं..वक्त के विराम पर..
और इन विचारों का मंथित होकर आत्मबल प्राप्त होना
वाकई जीवन-दर्शन का अद्भुत दृश्य प्रकट करता है.जब यह अवरूद्धता पुनः रहा तलाश कर प्रवाहित हो जाती है।
2
‘मिथिया’
लगा जैसे लेखिका ने जीवन-मृत्यु को बड़ी ही सहजता से स्वीकार कर लिया है।
‘मंजिलें’
लगता है बाहें पसारे मंजिले सरीन जी की काव्य प्रेरणा की बेहतर स्त्रोत है.
3
‘आसान नही’
बहुत ही प्रेरक ओर संदेश देती कविता!
परिचित होकर भी नियति से अपनी
तज कर सुंदरता
बलिदान कर अस्तित्व का
पोषित कर गर्भ को
बीज हो जाना आसान नहीं है।
हम यहाँ इतना ही कहेंगे कविता में
आत्मा को छू लेना आसान नहीं है।
4
‘पुकार,नदी,आँखें’
सहज सी कविता जो कम शब्दों में अपने भाव व्यक्त करती चली गईं है।
शिरीन भावसार जी बहुत ही प्रतिभावान कवियित्री है आपका भाव-पक्ष, कला-पक्ष बिंबविधान काफी उत्कृष्ट है
सहज शब्दों का प्रयोग करते हुए काव्य में गहन चिंतन का समावेश आपकी विशिष्टता है।
श्रेष्ठ सृजन के लिए आपको बधाई और शुभकामनाएं शिरीन भावसार जी
प्रस्तोता-मिथलेश रॉय जी एवं सभी टिप्पणीकार एवं सहज,सरल,मिलनसार हमारे समूह के एडमिन ब्रज जी का
ह्रदय से आभार की आपने इतनी अच्छी कविताएं पढ़कर उन पर चिंतन करने का मौका दिया।
रेखा दुबे