आज हरगोविंद मैथिल की प्रस्तावना के साथ प्रस्तुत हैं वनिता वाजपेयी की कविताएँ.

ब्रज श्रीवास्तव


डॉ.वनिता वाजपेई का नाम समकालीन कविता के उन सशक्त हस्ताक्षरों में शुमार होता है जिन्होंने समकालीन कविता की समृद्ध परंपरा को सतत आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया है ।

आपकी रचनाधर्मिता की एक खासियत यह है कि आपने अपने अनुभवों को ही कविता में ढाला है ।

परिणामत: नये यथार्थ के चित्रण, नये जीवन संदर्भों के उद्घाटन और सहज सरल भाषा के प्रयोग के चलते आपकी रचनाएंँ पाठकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती हैं ।

खास बात यह है कि आपको कम शब्दों में गहन बात कहने की महारत हासिल है ।आपकी छोटी छोटी कविताएंँ गहन अर्थ समेटे हुए होती हैं ।
🌑

वनिता वाजपेयी की कविताएँ.

🔽

1 हक़

सुबह से
दौड़ रहा है घर
एक एक चीज हाथ पर
जल्दी में हैं वो
आज भी मुख्य वक्ता हैं
विषय है
औरत का हक़

2 वजूद

कभी देखना जंगल में
पेड़ों को
छोटे बड़े पेड़
पनपते हैं
अपने अपने वजूद और
सुविधा से
एक दूसरे की छाया तले
थोपते नहीं किसी पर
अपना
रंग रूप

3 बेखबर

नन्हे हाथों में
दबा है
रंग बिरंगा कागज़
कृष्ण लीलाओं का चित्रण
जिसे वो कह रहा है
कन्हैया जी का पाट
बेखबर
उन लीलाओं से
जिनमें कहीं नहीं था वो ।

4 नाटक

निभाए हैं
अब तक
जाने कितने पात्र
जाने कब से
ढूंँढ़ रही हूंँ
ख़ुद को ।

5 दीवार

पंछी भाग रहे हैं
इधर उधर
जनता में है
उत्कंठा, बेचैनी
मजदूर बना रहे हैं
दीवार
उचटती सी
एक दृष्टि डालकर
हेलीकॉप्टर पर
दुबारा लीन हैं काम में
भाषण शुरू होकर
खत्म भी हो गया है
तब तक बन गई है
दीवार

6 अतिक्रमण

चल रहा है
अतिक्रमण का धराशाई होना
कातर आंँखों और
शासन के नुमाइंदों के बीच
भारी भीड़ है
तमाशबीनों की
देखकर दु:ख और संतोष दोनों हैं
मेरे पास भी तो
अतिक्रमण है, विचारों का
और
सफाई का कोई अवसर नहीं ।

7 खतरे

वो नहीं जानते आइसोलेशन
कोरांटाइन
अकेले रहना
कोई नाम कोई चेहरा नहीं है उनका
भीड़ हैं वो
सो निकल पड़ते हैं रोज़
उनके लिए सबसे बड़ा खतरा है
ख़ुद ज़िन्दगी ।

डॉ.वनिता वाजपेई

🌑⚫

अध्यक्षीय वक्तव्य

डॉ वनिता वाजपेयी की आज यहां ‘साहित्य की बात’ समूह में प्रस्तुत सभी कविताएं संक्षिप्त और प्रभावी हैं । जैसा कि अन्य साथियों ने भी अपनी टिप्पणी में व्यक्त किया है।

कविताओं के कई पाठ होते हैं। कभी कभी तो कोई पाठक अपना कुछ ऐसा पाठ करता है जिसका अहसास कवि तक को नहीं होता। पाठक की समझ पर हम कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकते,बल्कि हमे इससे अपनी समझ को ठीक करने का अवसर भी मिल जाता है।

मुझे वनिता जी की सभी रचनाएं पसंद आई किन्तु कुछ बातें उनके बहाने अपनी समझ बढाने के लिए यहां रखना चाह रहा हूँ। मित्र अपनी अलग दृष्टि रख सकते हैं।

जो विषय इन कविताओं में आए हैं एक बार इस तरह भी विचारणीय हो सकते हैं कि क्या इन संवेदनाओं की अभिव्यक्ति किन्हीं और विधाओं में बेहतर सम्भव हो सकती हैं?

संवेदनाएं जब शब्दों में बदलकर अभिव्यक्त होती हैं तो वह साहित्य का हिस्सा हो जाती हैं। यह अभिव्यक्ति अपनी विधा का चयन खुद कर लेती है। रचनाकार की रुचि, अभ्यास और सामर्थ्य की भूमिका भी विषय के विधा निर्धारण में होती है।

कभी किसी लघुकथा लिख लेने के बहुत बाद अहसास होता है कि यह बात तो किसी कविता में और अधिक बेहतर रूप से कही जा सकती थी।

बहरहाल, थोड़ी बात अब कविताओं पर..

‘हक’ हो या ‘बेखबर’ दोनों कविताओं में एक विरोधाभासी व्यंजना का बिम्ब बनाने की कोशिश है। स्त्री के हितों और अधिकारों की बातें करने वाले के घर की स्त्री की स्थिति हो या बालकृष्ण के चित्र को बेच कर जीवन जीने की विवशता जिसमें बालक का बचपन ही छीन गया है।

कभी कभी कविता बल्कि कहें ज्यादातर किसी तात्कालिक प्रसंग या घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए तैयार हो जाती है। ‘दीवार’ कविता यदि पाठक को किसी प्रसंग विशेष की याद दिला रही तो कविता उतनी परिपक्व नहीं हुई है। उस पर अभी और काम किया जाना जरूरी होगा। ‘दीवार’ कविता के साथ यही हो रहा। वह भौतिक दीवार की बजाए पाठक को किसी वैचारिक, अथवा किसी ऐसी आंतरिक या सामाजिक दीवार की बात ध्वनित करती हो। खासकर समकालीन कविता विधा में बिम्ब और ध्वनि को विशेष महत्व दिया गया है।
‘अतिक्रमण’ कविता में विनीता जी यह प्रयास करती दिखाई देती हैं किंतु कसर तो बनी हुई है अब भी। ‘खतरे’ कविता को अभी सार्वकालिक बनाया जाना बाकी है।

मेरे विचार से ‘नाटक’ और ‘वजूद’ खूबसूरत कथन हैं जिनमें किसी कविता के बीज देखे जा सकते हैं। जिस तरह गैर जरूरी विस्तार कविता में अनावश्यक होता है,उसी तरह कविता को सप्रयास छोटी कविता बनाए रखने का मोह भी कविता का नुकसान कर देता है।
आज के इस कविता विमर्श गोष्ठी में अध्यक्षता के सम्मान हेतु एडमिन्स का आभार। डॉ वनिता वाजपेयी जी को बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं। मैथिल जी का भी शुक्रिया।

■ ब्रजेश कानूनगो

Adv from Sponsors