बजट में करदाताओं के लिए कुछ राहत के संकेत मिल रहे हैं. लेकिन किस तरह की राहत? आप वास्तव में राहत देना चाहते हैं, तो निम्न-मध्यम वर्ग, जो पहले से ही महंगाई के बोझ से दबा है, को कराधान से राहत दें. इसके लिए आयकर की छूट सीमा में कई गुना वृद्धि की जानी चाहिए. महंगाई कराधान का सबसे खराब प्रकार है और इसमें सुधार के संकेत नहीं मिल रहे हैं. यह सरकार सबसे कम जो काम कर सकती है, वह यह कि आयकर के लिए न्यूनतम छूट की सीमा पांच लाख रुपये कर दी जाए.
नई सरकार के सत्ता में आने के एक महीने पूरे हो गए हैं. हालांकि, पिछले एक महीने में नीतिगत घोषणा के अनुसार ज़्यादा कुछ निकल कर सामने नहीं आया है. शासन बदल चुका है, लेकिन वह अभी तक बदलता दिख नहीं रहा है. सरकार को ऐसी नीतियों की घोषणा करनी या नीति बनानी चाहिए, जिससे लोगों को जानकारी मिले कि सरकार क्या कार्रवाई कर रही है. राजनीतिक मोर्चे पर भी किसी प्रशासनिक सुधार के संकेत नहीं हैं, ताकि यह पता चल सके कि वे किस तरीके से सरकार चलाना चाहते हैं. 1985 में राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभालने के बाद नौकरशाही में पदों की संख्या में कई गुना वृद्धि की थी. सचिव स्तर के पद बढ़ गए, सचिवों के पास बहुत कम काम रह गया और बहुत कम महत्व भी रह गया. इस बात की जांच करना बुद्धिमानी होगा कि क्या भारत सरकार के सचिवों की संख्या घटाई जा सकती है, ताकि वे महत्वपूर्ण स्थिति में आ सकें और कुछ परिणामों के साथ काम कर सकें. इस मोर्चे पर कुछ नहीं हो सकता. इसलिए वर्तमान नौकरशाही का ही स्वरूप जारी रहेगा और इसी प्रणाली के तहत दिए गए नोट्स के आधार पर निर्णय लिए जाते रहेंगे, लेकिन इस सबसे कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन वास्तव में सामने नहीं दिखेगा.
बजट में करदाताओं के लिए कुछ राहत के संकेत मिल रहे हैं. लेकिन किस तरह की राहत? आप वास्तव में राहत देना चाहते हैं, तो निम्न-मध्यम वर्ग, जो पहले से ही महंगाई के बोझ से दबा है, को कराधान से राहत दें. इसके लिए आयकर की छूट सीमा में कई गुना वृद्धि की जानी चाहिए. महंगाई कराधान का सबसे खराब प्रकार है और इसमें सुधार के संकेत नहीं मिल रहे हैं. यह सरकार सबसे कम जो काम कर सकती है, वह यह कि आयकर के लिए न्यूनतम छूट की सीमा पांच लाख रुपये कर दी जाए. इससे प्रति माह 30 से 40 हज़ार रुपये वेतन पा रहे लोग आयकर की सीमा से बाहर हो जाएंगे और उन्हें राहत मिलेगी. लेकिन, नौकरशाही ऐसा कभी नहीं चाहेगी, क्योंकि इससे वर्तमान करदाताओं में से साठ से सत्तर फ़ीसद करदाता आयकर की सीमा से बाहर निकल जाएंगे. पश्चिम का पारंपरिक ज्ञान यह मानता है कि कराधान का दायरा बड़ा होना चाहिए. भारत में यह लागू नहीं होता. हमारे देश में 70 फ़ीसद लोग कृषि पर निर्भर हैं और हमने संविधान के तहत कृषि पर कर न लगाने का निर्णय लिया हुआ है. बचे 30 फ़ीसद, जिनमें से 15 फ़ीसद पर कर लगाने का सवाल ही नहीं उठता है, क्योंकि वे इतने ग़रीब हैं. तो, देश में कर का कुल आधार 15 फ़ीसद लोग हैं. और, इस 15 फ़ीसद में से शायद एक फ़ीसद वास्तविक करदाता हैं और बाकी लोग किसी तरह जीवनयापन कर रहे हैं और हम उन पर टैक्स चार्ज कर रहे हैं, जो सरासर अनुचित है.
हम पश्चिमी मॉडल का अनुसरण कर रहे हैं और इस वजह से पिछले 20 सालों में सरकार उदारीकरण के बावजूद यह सब नहीं बदल सकी. ज़रूरत इस बात की है कि हम स्वयं का एक मॉडल विकसित करें. मैं नहीं जानता कि वित्त मंत्री क्या सोचते हैं या सोच रहे हैं, लेकिन उन्हें नौकरशाहों के साथ बैठना चाहिए. हमें उनसे पैसा एकत्र करने की ज़रूरत है, जो वास्तव में बहुत पैसा कमा रहे हैं. कॉरपोरेट सेक्टर के लिए कर की दर 35 से बढ़ाकर 40 फ़ीसद और किसी व्यक्ति के लिए इसे 30 से बढ़ाकर 35 फ़ीसद करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन यह करारोपण स़िर्फ अमीरों पर होना चाहिए, न कि निम्न-मध्यम वर्ग और ग़रीबों पर. किसी भी मामले में वेतनभोगियों पर हम अभी 30 फ़ीसद कर लगाते हैं और व्यापारियों पर भी 30 फ़ीसदी कर लगा रहे हैं. व्यापारी अपने सभी खर्च काटकर स़िर्फ मुनाफे पर कर देता है, जबकि वेतनभोगी अपनी सकल आय पर 30 फ़ीसद भुगतान कर रहा है, यह अनुचित है. अन्य विधि तलाशी जा सकती है, जिससे वेतनभोगी लोगों का कराधान 10 फ़ीसद तक कम किया जा सके. लेकिन, जब तक आप इस आबादी के लिए राहत नहीं लाते, तब तक राहत का कोई मतलब नहीं रहेगा.
आने वाला भी बजट एक और सामान्य बजट होने जा रहा है, कुछ फ़ीसद ऊपर और कुछ फ़ीसद नीचे के साथ. लोग बदलाव चाहते हैं और सरकार का दावा कि वह बदलाव के लिए आई है, का कोई अर्थ नहीं रहेगा. राजनीतिक मोर्चे पर ग़ैर भाजपाई लोग यानी हम जैसे लोग कुछ बातों को लेकर भयभीत हैं. जैसे कि इस देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र का क्या होगा, प्रेस की स्वतंत्रता का क्या होगा, अल्पसंख्यकों के साथ क्या होगा? पुणे में हुई हत्या के क्या संकेत हैं? क्या यह कुछ लोगों द्वारा एक योजना बनाकर की गई हत्या है? यह सब पहले से ही उदार विचारधारा वाले सामाजिक लोकतंत्र के पैरोकारों के बीच भय का माहौल पैदा कर रहा है. आप रेल किराया बढ़ाते हैं, लेकिन आप मध्यम वर्ग के लिए अलग कुछ भी नहीं करते. अगर कराधान के मोर्चे पर राहत नहीं देते हैं, तो क्या बदलाव आप लेकर आएंगे? मैंने अख़बारों में पढ़ा कि बजट 10 जुलाई को आ रहा है. और, आप किस दिशा में सरकार चलाएंगे, उसका भी पहला संकेत मिल चुका है.
केवल एक अच्छी बात कृषि मंत्री की ओर से आई है. उन्होंने कहा है कि किसानों को पहले से बेहतर बीमा दिया जाएगा. अभी इस संबंध में ज़्यादा जानकारी नहीं आई है. मानसून के असफल होने या बाढ़ आने से सबसे अधिक नुक़सान इस देश के किसानों को ही उठाना पड़ता है. नई बीमा योजना से अगर उन्हें कुछ राहत मिलती है, तो वास्तव में यह देश के लिए एक बड़ी बात होगी, क्योंकि खाद्य आत्मनिर्भरता सबसे बड़ी प्राथमिकता है. पिछले दस वर्षों में कृषि वृद्धि दर अच्छी नहीं रही. यह अलग बात है कि हमें खाद्य संकट से गुजरना नहीं पड़ा. लेकिन, यदि अगले 20 सालों तक ऐसा ही चलता रहा, तो निश्चित तौर पर हमें खाद्य संकट का सामना करना पड़ेगा. कृषि उत्पादन जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में बढ़ाना होगा. आधुनिक प्रौद्योगिकी, आधुनिक विज्ञान, फसल की उपज और उत्पादकता में आधुनिक विकास के साथ तालमेल रखना चाहिए. इस क्षेत्र में बहुत कुछ किया जा सकता है. हमारे पास आंतरिक विशेषज्ञता है. केवल सरकार को सोचना है कि कैसे कृषि को उद्योग या विनिर्माण क्षेत्र की तरह प्राथमिकता दी जाए.
हम प्रधानमंत्री का दिमाग नहीं पढ़ सकते, क्योंकि वह ट्विटर और फेसबुक के माध्यम से संवाद स्थापित करते हैं. प्रधानमंत्री बनने के बाद उनका संवाद प्रधानमंत्री बनने के लिए किए गए चुनाव प्रचार के मुकाबले कम हो गया है. उन्हें एक ऐसी रणनीति बनानी चाहिए, जिससे लोगों को पता लग सके कि उनकी सरकार क्या सोच रही है. एक महीना बीत चुका है. वह बजट के लिए इंतजार कर रहे हैं, जो अभी आने वाला है. लेकिन, वक्त आ गया है कि सरकार यह बताए कि वह कौन से बड़े बदलाव करने जा रही है और आगे किस तरह से कार्य करेगी? कांग्रेस का पैटर्न हम लोग जानते हैं, भाजपा क्या बदलाव लाएगी, यह नहीं मालूम, लेकिन जितनी जल्दी पता लग जाए, उतना ही बेहतर होगा.
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