संक्षिप्त परिचय
राजेंद्र प्रसाद श्रीवास्तव.
पिता- स्व.जगन्नाथ प्रसाद श्रीवास्तव
माता- स्व. गोपी देवी श्रीवास्तव
जन्मतिथि – 4 जून 1954
जन्म स्थान- ग्राम-काँकर, जिला विदिशा।
शिक्षा–एम.एस सी. प्राणीशास्त्र, बी.एड .
सेवा निवृत्त प्राचार्य(शा.हाई स्कूल )
गीत, कविता और बाल कविता, लघु नाटिका, बाल कहानी, लघुकथा, व्यंग्य एवं कहानी लेखन।
अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लघुकथा लघु नाटिका व परिचर्चा आदि प्रकाशित।
आकाशवाणी भोपाल, इन्दौर व जगदलपुर से चिंतन, बाल कहानी, बाल कविता, कहानी व लघु नाटिकाओं का प्रसारण।
अनेक संकलनों में रचनाएं संकलित
बाल कविता संग्रह – 1 – ‘ मछली रानी ‘ 2- ‘ मेरा मन बहलाए गिलहरी ‘
बाल कहानी संग्रह – 1- ‘जैसा खोया वैसा पाया’
राजेंद्र श्रीवास्तव के नवगीत
1- शहरों की आवाजाही ने
गाँव बिगाड़ा है।
डामर गिट्टी-सनी सड़क यह
अजगर-सी सोई
छिन्न-भिन्न, अस्तित्वहीन-सी
पगडंडी रोई।
पथिक छाँव पाते, पथ का वह –
नीम उखाड़ा है।
इकलौती बस से भिन्सारे
कीरत जाता है।
और उसी बस से संध्या को
वापस आता है।
मजदूरी का आठ फीसदी
लगता भाड़ा है।
खपा गया हर माल खोट का
दलपत सस्ते में।
गुटका, पाउच, मिल जाते
बच्चों के बस्ते में।
युवा-मनों पर अवसादों ने
झंडा गाड़ा है।
*
2- यह परिवर्तन ठीक नहीं है
चीन्ह-चीन्ह रेबड़ियाँ बाँटे
सुरभित सुमन शाख से छाँटे
छोड़े शेष नुकीले काँटे
तोड़ी और बिगाड़ी न हो –
ऐसी कोई लीक नहीं है।
धरती खोद, खोखली कर दी
निर्मल सरिता मल से भर दी
नैतिकता कोने में धर दी
प्रकृति का कोई भी अवयव
पावन या रमणीक नहीं है।
चारों ओर अँधेरा घुप है!
सूरज जाने क्यों चुप-चुप है!
दीपक हुआ तिमिर-लोलुप है!!
तम से सदा जूझने वाला –
जुगनु भी निर्भीक नहीं है!!
यह परिवर्तन ठीक नहीं है।
*
3- पसरे सन्नाटे
जटिल विषमताओं की खाई
कौन यहाँ पाटे।
संवेदन से शून्य, हृदय पर
पसरे सन्नाटे।
सारा दिन ढोकर पराग कण
मधुमक्खी रोई
बूँद-बूँद घट भरी संपदा
क्षण भर में खोई
मीठी शहद, भरे छत्ते को
सबल रीछ चाटे।
छप्पन भोग कहीं पर लगते
कहीं सिर्फ फाके
लाठी जिसके हाथ रही है
भैंस वही हाँके
दीनू ने बोए थे गेहूँ
समरथ ने काटे।
साठ बरस की कमला काकी
पूछ-पूछ हारी
कौन खा गया उसके हक की
सुविधा सरकारी
मारुति कार नई, मुखिया की-
भरती फर्राटे।
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4- हम पचाना जानते हैं…
राजसी पकवान फोकट में मिले भाते नहीं।
हम पचाना जानते हैं , स्वावलंबी रोटियाँ।
स्वार्थ के साँचे हजारों-
हो न पाएँ, ‘फिट’ कहीं।
चाय में गल जाएँ, ऐसे
‘भुरभुरे बिस्किट’ नहीं।
नाच जावें अँगुलियों से,
शीघ्र कैरम-बोर्ड पर-
दौड़ जाएँ जो इशारों पर, नहीं हम ‘गोटियाँ।’
हम पचाना जानते हैं , ‘स्वावलंबी-रोटियाँ।’
जग, भला सारा हमें है –
और जग को, हम भले।
सिर झुका चलना न सीखा
तान कर सीना चले।
सोच लें, तो हम उदधि भी
बाहुओं से नाप लें।
और छू लें पर्वतों की ‘गगनचुंबी-चोटियाँ।’
हम पचाना जानते हैं, ‘स्वावलंबी रोटियाँ।’
क्यों भला अन्याय सहकर –
इस तरह हम चुप रहें।
तुम सुनो चुपचाप रहकर,
बात हम अपनी कहें।
आप जब चाहें चला दें,
बंद जब चाहें करें-
हम नहीं है आपके घर के, ‘नलों की-टोंटियाँ।’
हम पचाना जानते हैं , ‘स्वावलंबी रोटियाँ।’
***
5– राजमार्ग तक पहुँच न पाई…
कभी खेत-खलिहान पहुँचती
या सब्जी-मंडी।
राजमार्ग तक पहुँच न पाई-
अब तक पगडंडी।
स्वप्न ‘धरा का धरा’ रह गया
पथ से जुड़ने का।
मिला सदा संकेत दाएँ व-
बाएँ मुड़ने का।
मिली नहीं सीधे चलने की,
कभी ‘हरी-झंडी’।
चौड़े-चिकने राजमार्ग पर
दौड़ रही गाड़ी।
पगडंडी पर पैर पसारें
घास और झाड़ी।
रह-रह कर भरती साँसों में
आह बहुत-ठंडी।
राजमार्ग से जुड़ पाती तो-
परिवर्तन आता।
भूले-भटके फिर विकास भी
आता लँगड़ाता।
अब तक तो अक्सर आया
आश्वासन पाखंडी।
***
6– कैसा पैगाम लिखें!!
मन की व्यथा लिखें अथवा जीवन संग्राम लिखें
क्या संदेशा पहुँचाएँ , कैसा पैगाम लिखें !!
सदा कुलबुलाता रहता-
यह, कुंठा का कीड़ा।
सुरसा जैसा मुँह फैला-
कर सता रही पीड़ा।
जीवन की पीड़ाओं के कितने आयाम लिखें!
क्या संदेशा पहुँचाएँ, कैसा पैगाम लिखें!!
इंसानों के साथ-साथ
अभिवादन बँटे सभी।
राम-राम कहना मुश्किल
हो जाता कभी-कभी।
जीना दूभर हो जाए, हम अगर सलाम लिखें!
क्या संदेशा पहुँचाएँ, कैसा पैगाम लिखें!!
वसुधा को परिवार मान
घर से बाहर निकले।
भाषाओं में बँटे दिखे –
सब कस्बे, शहर, जिले।
रोजगार, उद्योग विभाजित तीरथधाम दिखें।
क्या संदेंशा पहुँचाएँ, कैसा पैगाम लिखें!!
सूरज, हवा और पानी
भी बँटे नजर आएँ।
पुर-प्रदेश, ‘परदेस’ बने-
हम लोग कहाँ जाएँ?
धरती के किस टुकड़े पर हम अपना नाम लिखें?
क्या संदेंशा पहुँचाएँ, कैसा पैगाम लिखें!!