वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में उपनिवेशवादी परंपरा तोड़ने की कोशिश नहीं की गई. नए शासक अपने वर्ग विशेष से निकले थे, जेल गए थे और पुराने शासकों के महलों एवं दफ्तरों पर काबिज़ हो गए थे. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पुरानी इमारतों एवं सड़कों के नाम बदल दिए गए, जैसे किंग्सवे का नाम राजपथ हो गया और वायसराय लॉज राष्ट्रपति भवन बन गया. वहीं लुटिएंस के बंगले और बेकर द्वारा बनाई गईं इमारतें बरक़रार रहीं. पाकिस्तान ने अपनी राजधानी के लिए बिल्कुल नया शहर इस्लामाबाद बसाया, जो बहुत शानदार है.
भारत ने फिलहाल नई दिल्ली से काम चलाया, जो 1947 में काफी पुरानी हो गई थी. दरअसल, भारत ब्रिटिश राज से निकल कर कांग्रेस राज में दाखिल हुआ था और इस राज ने पुराने राजतंत्र में किसी बड़े बदलाव की आवश्यकता महसूस नहीं की. मकाउली की सत्ता बरक़रार रही. अब कम से कम बदलाव की मांग तो हो रही है. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को लग रहा है कि मौजूदा संसद भवन भारत की ज़रूरतों के लिहाज़ से छोटा पड़ गया है. दरअसल, इसके निर्माण का आदेश 1927 में भारत को भविष्य में डोमिनियन स्टेटस दिए जाने और अपने स्वयं के संसद भवन की आवश्यकता के मद्देनज़र दिया गया था.
भवन के चैंबर 1935 के गवर्नमेंट ऑ़फ इंडिया एक्ट के प्रावधानों के अनुकूल बनाए गए थे, जिसके तहत देशी रियासतें काउंसिल ऑ़फ स्टेट्स (या राज्यसभा) में अपने प्रतिनिधि भेजने वाली थीं. सेंट्रल असेंबली हॉल का निर्माण जनता द्वारा चुनकर आए प्रतिनिधियों और समय-समय पर काउंसिल ऑ़फ स्टेट्स के साथ होने वाली उनकी संयुक्त बैठक के लिए किया गया था. लेकिन, 1935 का एक्ट निरस्त हो गया और अविभाजित भारत में संसद भवन का इस्तेमाल नहीं हो सका.
बहरहाल, अब समय आ गया है कि इस इमारत को खाली कर दिया जाए और नए भवन का निर्माण किया जाए. लोकसभा अध्यक्ष ने बिल्कुल ठीक कहा है कि संसद भवन नई डिजायन का होना चाहिए. यह नई इमारत इतनी बड़ी होनी चाहिए, जिसमें 545 से अधिक सदस्यों की क्षमता हो, क्योंकि 2021 की जनगणना के आधार पर लोकसभा क्षेत्रों की संख्या बढ़ जाएगी. भवन की भीतरी डिजायन में भी सुधार की आवश्यकता है. कम से कम यह तो किया ही जा सकता है कि मौजूदा बनावट में सांसद आसानी से वेल तक चले जाते हैं, जिसे खत्म किया जाए.
इस संबंध में यूरोप की संसद को देखना चाहिए, जहां हर सदस्य के लिए स्टेट ऑ़फ आर्ट सीटिंग व्यवस्था है. हर सदस्य की अलग डेस्क है, जिस पर उसका लैपटॉप एवं दूसरी चीज़ें रखने की जगह होती है. ये चैंबर बड़े, हवादार और रोशनी वाले होते हैं. वहां सांसद सदन में रा़ेजाना किसी चौराहे की भीड़ की तरह एक-दूसरे पर चिल्लाते नहीं हैं. किसी ने यह भी सुझाव दिया कि स्पीकर के पास एक ऐसा बटन होना चाहिए, जिसे दबाते ही एक ग्रिल दोनों पक्षों को उनके लिए सुरक्षित जगह तक सीमित रखे और वे वेल तक न पहुंच सकें.
आदर्श रूप में देखा जाए, तो अब लोकसभा का आकार बढ़ाने की ज़रूरत है. यह कैसे मुमकिन है कि 85 करोड़ मतदाताओं का प्रतिनिधित्व केवल 545 सांसद करें? कम से कम प्रत्येक 10 लाख मतदाताओं पर एक सांसद होना चाहिए. यहां भी आदर्श रूप से हर क्षेत्र से दो सांसद यानी एक पुरुष और एक महिला होने चाहिए. ब्रिटेन में, जहां की आबादी 6.5 करोड़ है, 650 सांसद हैं. इसके लिए कोई कारण नहीं है कि भारत की लोकसभा में 1,500-2,000 सांसद नहीं हो सकते. चीन की नेशनल असेंबली में 2,987 सदस्य हैं. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते भारत इससे कम की अपेक्षा नहीं करता.
अब जबकि ऐसा किया ही जा रहा है, तो क्यों न एक नई कैपिटल सिटी बनाई जाए, जिसके लिए एक बिल्कुल नई डिजायन तैयार की जाए? दिल्ली में बहुत अधिक भीड़भाड़ है. यहां प्रदूषण भी अत्यधिक है और यहां का प्रशासन इतना कठिन है कि यह बहुत दिनों तक राजधानी नहीं रह सकती. भारत की राजधानी के लिए देश के मध्य में एक स्मार्ट, डिजिटल और ग्रीन सिटी बनाई जाए. कई राज्यों में फैला दंडकारण्य क्षेत्र इसके लिए आदर्श स्थान है.