श्यामा प्रसाद मुखर्जी की याद में नेहरू मेमोरियल म्यूजियम में एक समारोह का आयोजन हुआ. विषय की गंभीरता को देखते हुए अच्छा होता कि प्रधानमंत्री या गृह मंत्री अपना व्याख्यान देते. यदि उनके पास समय की कमी थी और यदि पार्टी को इसके लिए किसी को चुनना था तो वह व्यक्ति आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी के क़द का होना चाहिए था, जो श्यामा प्रसाद मुखर्जी से सीनियर नहीं तो बराबर क़द वाले ज़रूर हैं. अमित शाह को मुख्य वक्ता बनाना दरअसल श्यामा प्रसाद मुखर्जी के क़द को कम करने जैसा है. श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेहरू कैबिनेट के एक काबिल सदस्य थे. उनके पास उद्योग मंत्रालय था. पब्लिक सेक्टर के पक्ष में लिए जाने वाले शुरुआती फैसले श्यामा प्रसाद मुखर्जी के ही थे. लोग इतिहास और घटनाएं भूल जाते हैं, इसलिए आज यह आसान हो जाता है कि सारा दोष नेहरू के सिर मढ़ दिया जाए और श्यामा प्रसाद मुख़र्जी की खूब तारीफ की जाए. ऐसी बातें बेतुकी हैं.
सच्चाई यह है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस के वैचारिक विकल्प के रूप में भारतीय जन संघ की स्थापना की थी. दरअसल यह लोकतंत्र का हिस्सा है. लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वे पब्लिक सेक्टर के खिलाफ थे. जहां तक कश्मीर का सवाल है तो संयुक्तराष्ट्रसंघ में जाने के लिए नेहरू को दोष देना चाहिए. एक सज्जन पुरुष होने के नाते उन्होंने ऐसा किया. भारत के इस फैसले का पाकिस्तान गलत इस्तेमाल करता रहा है. लेकिन जो बिंदु हमसे छूट रहा है वह यह है कि कश्मीर आसानी से पाकिस्तान में चला गया होता, अगर शेख अब्दुल्लाह (जो नेहरू और महात्मा गांधी के प्रशंसक थे) ने भारत के साथ रहने का फैसला नहीं किया होता. ये शेख अब्दुल्लाह थे जिन्होंने फैसला किया कि कश्मीर सेक्युलर भारत के साथ रहेगा न कि मुस्लिम पाकिस्तान के साथ. महाराजा हरि सिंह जो अलग-थलग पड़ गए थे और यह सोचते हुए कि राज्य की बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम है पाकिस्तान चले गए होते. चाहे भाजपा को अच्छा लगे या नहीं, चाहे अमित शाह को अच्छा लगे या नहीं, लेकिन आप दो घटनाओं को अलग नहीं कर सकते. कश्मीर भारत के साथ शेख अब्दुल्लाह और नेहरू की वजह से है. कश्मीर समस्या भी नेहरू की वजह से है, और दोनों मामले एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. आप यह नहीं कह सकते कि अगर नेहरू नहीं होते तो कश्मीर मसला नहीं होता. जी हां, बिलकुल सही, कोई मसला नहीं होता क्योंकि ऐसे में कश्मीर पाकिस्तान में चला गया होता. भाजपा को दोबारा इतिहास पढ़ना चाहिए और अपना स्टैंड सा़फ करना चाहिए. जहां तक हम समझते हैं आरएसएस और भाजपा का स्टैंड मुस्लिम मुक्त भारत का है. अगर ऐसा है तो उन्हें सा़फ-सा़फ कहना चाहिए कि कश्मीर को पाकिस्तान के साथ चले जाना चाहिए. लेकिन वे वहां सरकार बनाना चाहते हैं और इसके लिए कई क़दम उठा रहे हैं ताकि कश्मीरियों को अपने में कैसे सम्मिलित किया जाए. मेरे ख्याल से भाजपा के नीति निर्माताओं के बीच बड़ी भ्रान्ति फैली हुई है. मुझे नहीं मालूम कि आरएसएस उनका मार्गदर्शन कर रहा है या नहीं. लेकिन अरुणाचल, उत्तराखंड और कश्मीर में उनकी चालों से एक बात सा़फ हो रही है कि वे कांग्रेस को कमज़ोर कर रहे हैं और यह साबित कर रहे हैं कि उनका उद्देश्य जितना हो सके राज्य सरकारों को अपने हिस्से में कर लिया जाए, सिद्धांत और नीति से कोई मतलब नहीं है.
एक और घटना जो समाचारों में है. अब मॉल और रेस्टोरेंट्स 24 घंटे खुले रहेंगे. एक बार फिर हम पश्चिम की नक़ल कर रहे हैं. मेरे ख्याल में अमेरिका का. भारत को अपनी संस्कृति के हिसाब से आगे बढ़ना चाहिए. शहरों में भोजनालय पहले से देर रात तक खुले रहते हैं, लेकिन हमें इस मामले में धीमी रफ़्तार से आगे बढ़ना चाहिए. मुझे नहीं पता कि आखिर इसका मकसद क्या है? क्या यह राजस्व इकट्ठा करने के लिए किया जा रहा है या रोज़गार के अवसर बढ़ाने के लिए? जो भी हो सरकार को अपनी नीति सा़फ करनी चाहिए. आज तक एनडीए सरकार का लेखा-जोखा तैयार किया जाय तो यह कहा जा सकता है कि वे यूपीए सरकार की स्कीमों को ही जारी रखे हुए हैं. कुछ के नाम बदलकर और कुछ पुराने नामों के साथ (जैसे मनरेगा). मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अच्छा है या बुरा है, लेकिन सच्चाई यह है कि अगर आप को गरीबों, दबे-कुचले, बेरोजगारों, खेतिहर मजदूरों के लिए काम करना है तो कुछ ऐसे काम हैं जो कांग्रेस भी अपने तरीके से कर रही थी, भाजपा यह काम अपनी सोच के हिसाब से कर सकती है. लेकिन यह कहना कि जनधन योजना, कृषि बीमा क्रान्तिकारी फैसले हैं, सही नहीं है. ये ऐसी स्कीमें हैं जो काफी पहले से चल रही हैं, और बेशक इनमें सुधार की ज़रूरत है. अगर भाजपा इन स्कीमों को बेहतर बनाती है, खास तौर पर किसानों की हालत को बेहतर करने के लिए तो उसका स्वागत होना चाहिए.
सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को कैबिनेट ने अपनी मंज़ूरी दे दी. लेकिन यह अपेक्षित था. मैं नहीं समझता कि किसी सरकार के पास इसको लेकर अधिक विकल्प होते हैं. क्योंकि वेतन आयोग अनेक प्रक्रियाओं से गुज़रकर अपनी सिफारिशें पेश करता है. अगर सरकार उसमें किसी तरह की कटौती करने की कोशिश करेगी तो इससे सरकारी कर्मचारियों में नाराज़गी बढ़ेगी. बेशक इसमें पैसे खर्च होंगे, लेकिन इसके लिए बजट का आवंटन कर इसका खयाल रखा जा सकता है.