शायद यही वो घड़ी थी, जिसका भारत अोलिम्पिक में सवा सौ सालो से इंतजार कर रहा था। यानी ( हाॅकी के पुराने स्वर्णिम दौर को अलग रखें तो) एक अदद स्वर्ण पदक, जो इसके 13 साल पहले सिर्फ बीजिंग ओलम्पिक  में आया था। और अब तोक्यो अोलिम्पिक के आखिरी दिन भारत के पहले गोल्ड मेडल के रूप में आया है। सीधे सोने पर लगा एथलीट नीरज चोपड़ा का भाला (जेवलिन) 140 करोड़ भारतवासियो को खुशी के आंसुओ में भिगो गया। जरा फिर से याद करिए, बल्कि बार-बार करते रहिए जैवलिन थ्रो का वो दूसरा अटेम्प्ट, जिसमें हरियाणा के इस ‘छोकरे’ ने 87.58 मीटर की दूरी पर ऐसा भाला गाड़ा कि छठे और आखिरी अटेम्प्ट तक दूसरा कोई उसके करीब भी फटक नहीं पाया। सारी लड़ाई नंबर दो और तीन के लिए होती रही। इसके पहले दोहपर में बजरंग पूनिया ने कुश्ती में कांस्य पदक अपने नाम किया।

तोक्यो ओलम्पिक में कई ऐसे मौके आए जब भारतीय खिलाड़ी सोने, चांदी या कांस्य पदक से एक कदम दूर रह गए। ऐसा लगा कि हम फिनिशिंग में कमजोर हैं। पदक हाथ आते-आते रह जाते हैं। कहीं कुछ कमी है। वेटलिफ्‍टिंग और कुश्ती के दांव रजत पदक तक सिमटने के बाद लगने लगा था कि गोल्ड इस बार भी सपना रह जाने वाला है। लेकिन नीरज के अडिग संकल्प ने इस सपने को हकीकत में बदल दिया। समूचा देश भी यही चाहता था। रोमांच और तनाव के उन मिले- जुले क्षणो में शायद नास्तिक भी मन ही प्रार्थना करने लगे थे कि भगवान कम से कम नीरज को तो इतनी शक्ति दे कि उसका जैवलिन स्वर्ण पदक को भेद सके। नीरज ने वही किया। उनकी बाॅडी लैग्वेंज बता रही थी कि वो शुरू से आत्म विश्वास से भरे थे। एक विजेता का आत्मविश्वास, जिसकी परिणति तोक्यो ओलम्पिक के आखिरी दिन स्टेडियम में भारत के राष्ट्रगान ‘जन मन गण अधिनायक जय हे’ से हुई। यकीनन इस ओलम्पिक में भारत के नायक तो कई रहे लेकिन ‘अधिनायक’ नीरज चोपड़ा ही साबित हुए। खेलों में यह नए भारत की शुरूआत है।

एक बात तो साफ है कि देश में खेलो के प्रति बढ़ते रूझान,बेहतर सुविधाओ और सरकार के प्रयासों से हम अब खेलों को भी ‘जीवन मरण’ के आईने में देखने लगे हैं। बीच में एक रियो ओलम्पिक को छोड़ दें तो बीजिंग ओलम्पिक के बाद से भारत की ओलम्पिक खेलो में हिस्सेदारी और पदको की भागीदारी लगातार बढ़ रही है। हमारे खिलाड़ी अब गोल्फ, ट्रैक एंड फील्ड जैसे अपारंपरिक खेलो में पदकों की न सिर्फ दावेदारी कर रहे हैं बल्कि मेडल ला भी रहे हैं। 2008 के बीजिंग अोलिम्पिक में जब अभिनव बिंद्रा ने शूटिंग की व्यक्तिगत स्पर्द्धा में भारत के लिए पहला गोल्ड जीता था, तब भारत ने 12 खेलो में 57 खिलाड़ी भेजे थे। इस बार 18 खेलों में हमारे 228 खिलाडि़यों ने हिस्सेदारी की। कड़ी मेहनत और जीतने की जिद का नतीजा है कि इतिहास में पहली बार भारत ने पदकों की तीनो श्रेणियों यानी स्वर्ण, रजत और कांस्य में मेडल जीते हैं। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। भारतीय महिला हाॅकी टीम, गोल्फ में अदिति अशोक और दो पहलवान और एक बाॅक्सर मेडल जीतने के करीब जाकर भी कामयाब नहीं हो पाए। लेकिन यह समय निराश होने का नहीं अगले अोलि्िम्पक में खेलों की सभी केटेगरी में और ज्यादा मेडल जीतने के संकल्प का है।

हमारे खिलाडि़यो ने दिखा दिया कि उनमें जीतने का माद्दा और जिद है। बस इसे थोड़ा ‘पुश’, प्रोत्साहन, संसाधन, प्रशिक्षण और दुआएं चाहिए। हमारी बेटियां 2012 के ओलम्पिक से लगातार बेहतर कर रही हैं और देश के पुरूष खिलाडि़यों के सामने अघोषित चुनौती पेश कर रही हैं। यह एक स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा है। खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ओलम्पिक में जाने से पहले और वहां परफार्म करने के बाद भी खिलाडि़यों से लगातार संवाद किया, इसका भी अच्छा संदेश गया है। खिलाडि़यों को लगा कि देश उनके साथ है, उनके कारनामोंं के साथ वतन की धड़कनें भी ऊपर नीचे हो रही है। 2024 का ओलम्पिक पेरिस में होना है। हमारा लक्ष्य कम से पदकों की संख्या दोगुना करने का होना ही चाहिए। इस कामयाबी की तुलना कोई चीन से करना चाहे तो बेमानी है। क्योंकि चीन के ब्रांज मेडल ही हमारे कुल पदकों 12 गुना ज्यादा हैं। लेकिन नीरज के स्वर्ण पदक से अब देश में नए खेल क्षेत्रों में भी जीत के जज्बे का नया कमल खिलेगा। जिस ओलम्पिक की पहली सुबह वेटलि‍िफ्टंग में मीराबाई चानू की चांदी के पदक से हुई, उसका सुनहरा समापन नीरज चोपड़ा के स्वर्णपदक से हुआ। और क्या चाहिए ?

 

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