जल, जंगल और ज़मीन को सदियों से वनवासियों ने सहेज कर रखा, ताकि सभ्यता फलती-फूलती रहे. यह विडंबना है कि तथाकथित सभ्यता के नुमाइंदे आज जंगल में रहने वाली लाखों जनजातियों को उनकी जड़ से ही नहीं, बल्कि  जीवन से भी जुदा करने पर तुले हुए हैं. जंगल में रहने वाली जनजातियों के हक़ को सुनिश्चित करने के लिए वनाधिकार अधिनियम 2006 बनाया गया. इसके बावजूद, आज़ादी के 60 साल बाद भी वनों के नैसर्गिक वासियों को अपने ही देश की सामंती व्यवस्था के हाथों प्रताड़ित होना पड़ रहा है.
इतना जनता क्यों आए हो, का काम है?
क्यों नहीं आएंगे साब, घर में जाए के मरवाओ सबरी जनता ला.

मोहगांव की बैगा आदिवासी महिला बनिहारोबाई ने बिछिया थाने में पुलिस अधिकारी से दहाड़ते हुए कहा. यह सब बताते हुए बनिहारोबाई अत्यंत उत्तेजित हो जाती है और पास ही पड़े बांस के टुकड़ों को उठाकर इस तरह से लहराने लगती है, मानो वन विभाग का कोई नुमाइंदा यदि सामने होता तो उसकी ख़ैर नहीं थी.

बात 17 जुलाई 2009 की है. शाम को क़रीब चार बजे मध्य प्रदेश के मंडला जिले के बिछिया ब्लॉक की उमरवाड़ा पंचायत के मोहगांव के बढ़ई टोला की रहने वाली सुनीता घर से क़रीब 100 मीटर की दूरी पर बरगद के पेड़ के नीचे बच्चे को लेकर बैठी थी. पास में ही अन्य पांच महिलाएं चकोड़ा भाजी तोड़ रही थी. इतने में ही वन विभाग के 24 लोगों का जत्था बैगा एवं गोंड आदिवासियों को जातिगत संबोधनों से गरियाते हुए वहां पहुंच गया. इनमें दो महिला सिपाहियों समेत रेंजर एवं डिप्टी रेंजर भी थे. उसी स्थान पर हाल ही में काट कर लाए गए कुछ बांस पड़े थे, जिसे वन विभाग के लोगों ने काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया. सुनीता, संपत और लच्छी समेत जो भी बाहर थे, डर के मारे सब भागकर घर में छुप गए.

भगदड़ में किसी की चप्पल छूट गई, तो उसे भी कुल्हाड़ी से काट डाला गया. पास की झोपड़ी पर लटकी चादर को भी वे काटने वाले थे कि डिप्टी ने रोक दिया. संपत बैगा ने टोकना (टोकरी) बनाने के लिए बांस का सरेगा तैयार किया था, जिसे वन विभाग के लोग उठा ले गए. संपत ने बताया कि उससे क़रीब 20 टोकने बनाए जा सकते थे, जिससे 600 रुपये तक की आमदनी हो जाती. संपत का अपना घर भी नहीं है और वह ससुर के घर में गुजर-बसर कर रहा है. चकोड़ा भाजी तोड़ रही छह महिलाएं-सेववती, सुनीता, सुगवती, इंद्रवती, दीनवती और रेवती अफरा-तफरी में भाग नहीं पाई. उन्हें वन विभाग के कर्मचारियों ने क़रीब एक किलोमीटर जंगल में दौड़ाकर पीछा किया. अंतत: इन महिलाओं ने एक घर में जाकर शरण ली. वहां भी वे लोग पहुंच गए और घर के मालिक से पूछताछ की तो उसने महिलाओं के वहां होेने की बात से इंकार कर दिया. जनसंघर्ष मोर्चा से संबद्ध विवेक पवार इस मामले को गंभीरता से लेते हुए कहते हैं कि, यदि वे महिलाएं वन विभाग के लोगों को मिल जातीं तो न जाने वे इनके साथ कैसा बर्ताव करते. सेववती बताती हैं कि वे लगातार जातिगत संबोधनों से गाली देते हुए हमारा पीछा कर रहे थे. बहरहाल कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई थी. जब महिलाएं उन्हें नहीं मिलीं तो उन्होंने कुछ ही दूरी पर बैल चराने गए सुग्रीव और महेश की ओर रुख़ किया. गांव के अन्य मवेशी भी वहीं चर रहे थे, जिनकी संख्या लगभग 25 थी. उन दोनों से पूछा गया-यहां क्या कर रहे हो? इतने में महेश को दो कर्मचारियों ने पकड़ लिया और लट्‌ठ, थप्पड़ व लात-घूंसों से पीटने लगे. वहां चर रहे मवेशियों को खदेड़ दिया गया. इसके चलते सुग्रीव के बछड़े की अगले दिन मौत हो गई. इस बीच सुग्रीव ने दौड़ कर बढ़ई टोला में महेश की पिटाई की सूचना गांव वालों को दे दी.
इस पर गांव वालों का ख़ून खौल गया. बच्चे, बूढ़े और जवान सभी निहत्थे ही वन विभाग के कर्मचारियों की ओर लपक पड़े. क़रीब पांच किलोमीटर तक जंगल में मोहगांव के लगभग 50 लोगों ने वन विभाग के कर्मचारियों के अत्याचार का बदला लेने के लिए उनका पीछा किया. इस बीच गांव वालों का सामना कोर एरिया के गश्ती दल से हो गया. इससे पहले कि गांव वाले उन पर पिल पड़ते, महेश और सुग्रीव ने उन्हें पहचानते हुए कहा कि ये वे लोग नहीं हैं. फिर गांव वाले आगे बढ़ गए और अंतत: उन्होंने एक डिप्टी रेंजर को पकड़ कर धुन दिया.
महेश की मां छोटीबाई ने बताया कि घटना से पहले वन विभाग के चार कर्मचारियों ने आंगन में घुसकर पानी मांगा और वहीं बैठकर दारू पीकर निकले थे.सुक्कल, महेश और हरि सिंह ने बिछिया थाने में जाकर जनसंघर्ष मोर्चा के कार्यकर्ताओं की मौजूदगी में वन विभाग की ज़्यादतियों के ख़िला़फमामला दर्ज़ कराया. दो दिन बाद भी पुलिस घटनास्थल की जांच के लिए नहीं पहुंची थी.यही नहीं, महिलाओं को प्रताड़ित करने के ख़िला़फ भी रिपोर्ट नहीं लिखी गई.
मोहगांव कान्हा के बफर क्षेत्र में बसा राजस्व ग्राम है. विवेक पवार कहते हैं कि, बफर क्षेत्र में सीमित गतिविधियों की छूट स्थानीय लोगों को दी गई है. पहले तो कोर क्षेत्र की सीमा से पांच किलोमीटर तक बफर क्षेत्र घोषित किया गया था, लेकिन बिना किसी अधिसूचना के बफर क्षेत्र फैल रहा है और आदिवासियों के घर, ज़मीन, खेत और अन्य संसाधनों को लगातार निगल रहा है. कई गांवों में तो कोर क्षेत्र की सीमा भी पहुंच गई है. लघु वनोपज जंगल में रहने वाले आदिवासियों के जीवन का आधार रहा है. वनाधिकार अधिनियम 2006 के मुताबिक बांस समेत पुटु पिहरी, मोहलाईन पत्ता, चकोड़ा भाजी, कांदा, छिंदी (झाड़), तेंदू, चारबीजी, करुकांदा, बैचांदी एवं कन्हिया कांदा, बेंत, शहद, जलाने की लकड़ी, औषधीय पौधे, पेड़ के ठूंठ टसर, फल, जलाशयों की मछली, केकड़े, जलीय पौधे, पत्थर, स्लेट, गिट्‌टी, मुरुम जैसे अनेक वनोत्पाद के निस्तार की छूट स्थानीय जनजातियों को दी गई है. लेकिन वन विभाग की सामंती सोच का समय-समय पर आदिवासियों को इसी तरह शिकार बनना पड़ता है और उन्हें शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना का दंश झेलना पड़ता है. मोहगांव वैसे तो राजस्व ग्राम है, इसके बावजूद गांव की सीमा के भीतर वन विभाग के मुनारे (स्तंभ) गड़े हुए हैं. इनमें से कई मुनारे तो दशकों से बने आदिवासियों के घरों के सामने और खेतों में भी गड़े हैं. यहां भी सामंतवादी व्यवस्था के झंडाबरदारों ने रेंजर्स एवं डिप्टी रेंजर्स की करनी की सज़ा फायर वॉचर्स के सिर मढ़ दी और तीन फायर वॉचर्स को हटा दिया गया. बाद में सात अन्य आदिवासियों को वन्य प्राणी अधिनियम 1972 के तहत गिरफ़्तार कर लिया गया. हालांकि स्थानीय प्रशासन ने भी वन विभाग की ज़्यादती की बात को स्वीकार किया है.
हाल ही में मध्य प्रदेश में मंडला जिले के पर्यटन ग्राम चौगान में जाना हुआ. वहां स्थानीय कान्हा की सीमा में बसे आदिवासियों को जब पता चला कि कोई पत्रकार दिल्ली से आया है तो वे दिन भर खेतों में काम करने के बाद रात को मुझसे मिलने रमपुरी टोला आ पहुंचे. इन सबकी व्यथा ज़मीन के पट्‌टे को लेकर थी. आसपास के गोंड एवं बैगाओं समेत क़रीब एक दर्जन लोग ज़मीन पर हक़ की बात रखने के लिए आए थे. रमपुरी टोला के ही 55 वर्षीय शंकरलाल बताते हैं कि हमारी ज़मीन अधिक उपजाऊ नहीं है, मक्का एवं राई थोड़ी-बहुत पैदा होती है. वह आगे कहते हैं कि हमने ज़ुर्माना भी दिया, लेकिन पट्‌टा नहीं मिला. शंकर लाल, कलीराम, संपत लाल, नवल सिंह, डमरा सिंह, डमार सिंह, चमरा लाल और दयाली समेत कई आदिवासियों की व्यथा कुछ इसी तरह की थी. उनका कहना था-हम डर के मारे अपने घर और ज़मीन में कोई सुधार नहीं करते कि न जाने कब वन विभाग की गाज हम पर गिर जाए.

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