cachedखिलाफ़त आंदोलन को भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. इस आंदोलन के 94 सालों के बाद अब हमें एक नया ख़लीफ़ा मिल गया है, जो यह दावा करता है कि उसे सुन्नी मुसलमानों का समर्थन हासिल है. महात्मा गांधी समर्थित यह आंदोलन ब्रिटिश सरकार द्वारा ख़लीफ़ा पद को समाप्त करने या उसके मुख्यालय को इस्तांबुल से हटाकर यरुशलम करने के विरोध में था. इजरायल में ब्रिटिश शासन था, जिसकी वजह से ब्रिटेन ऐसा करना चाहता था. इस आंदोलन के लिए मुसलमानों एवं हिंदुओं को एक साथ करके इसे ब्रिटिश विरोधी संघर्ष का नाम दिया गया. नौबत यह आ गई थी कि ख़िलाफ़त आंदोलन में हिस्सा लेना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने जैसा हो गया था. यह आंदोलन बहुत ही बुरे ढंग से समाप्त हो गया. चौरी-चौरा कांड के बाद इसे एकतरफ़ा वापस ले लिया गया था. इसके बाद तुर्की के नए नेता मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने ख़लीफ़ा पद को पुराना और अंधविश्‍वास से परिपूर्ण मानते हुए समाप्त कर दिया.
गांधी जी द्वारा आंदोलन वापस लिए जाने से भारतीय मुसलमानों को काफी निराशा हुई. इसके बाद देश की आज़ादी के लिए एक साथ लड़ रहे हिंदुओं एवं मुसलमानों की एकता दोबारा अपने उस स्वरूप में कभी वापस नहीं आ पाई, जैसी ख़िलाफ़त आंदोलन के समय में थी. अब जबकि इस घटना के लगभग 90 साल बीत चुके हैं, हमें एक और ख़लीफ़ा मिल गया है. इराक के आतंकी समूह आईएसआईएस के सरगना अल बगदादी द्वारा खुद को ख़लीफ़ा घोषित किए जाने की घटना से दुनिया के मुसलमानों में न कोई आज़ादी की भावनाएं हैं और न प्रसन्नता की. नया ख़लीफ़ा, जो अपने आपको अबू बक्र अल बगदादी कहता है, इराक के समर्रा में अबू दुआ के नाम से 1971 में पैदा हुआ था. इसके पहले भी उसके कई नाम रह चुके हैं, जिनमें इब्राहिम अल बदरी अल सम्मराई भी शामिल है. उसके बारे में स़िर्फ यही कहा जा सकता है कि वह अति उत्साही विद्रोही सैनिक है, जो आतंकियों की एक फौज का प्रतिनिधित्व कर रहा है.
ख़लीफ़ा पद को फिर से जीवित करना इस्लामिक आंदोलन का सपना रहा है. हालांकि, ऐसा सभी मुसलमानों के लिए नहीं कहा जा सकता है. ओसामा बिन लादेन ऐसा ही करना चाहता था. दरअसल, दुनिया भर के सुन्नी मुसलमानों के सबसे बड़े धार्मिक गुरु का पद समाप्त कर दिया जाना कोई खास बात नहीं थी, लेकिन यह बड़ी बात इसलिए बन गई, क्योंकि ऑटोमन साम्राज्य के सुल्तान ने कई सदियों तक इस आध्यात्मिक कार्यालय को महत्व दिया था. इस पद को 1870 के दशक में एक भ्रष्ट सुल्तान द्वारा फिर से शुरू किया गया था. जब उसे अतातुर्क ने समाप्त किया, तो वह एक बेकार पद हो चला था. लगभग एक शताब्दी के बाद पुराने ऑटोमन राज्य की तर्ज पर किसी देश की स्थापना करना मुसलमानों का सपना हो सकता है. अलकायदा और दूसरे आतंकी समूहों ने इस तरह के राज्य के निर्माण की बात करके पश्‍चिमी देशों को खुले तौर पर चुनौती दी है. शायद उसी मुहिम का हिस्सा है कि हमारे पास एक नया स्वघोषित ख़लीफ़ा भी आ गया है. लेकिन, इस बात की विवेचना कौन करेगा कि खुद को ख़लीफ़ा घोषित करने का यह तरीका कितना गलत है और कितना सही?
वास्तविकता में शुरुआती ख़लीफ़ा मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी थे और उनके संबंधी भी. पहले ख़लीफ़ा अबू बक्र हुए थे, जो मोहम्मद साहब की पत्नी आयशा के पिता थे. उन्हें उन लोगों ने ख़लीफ़ा चुना था, जो मोहम्मद साहब की मौत की ख़बर सुनकर इकट्ठा हुए थे. इस तरह जो भी उत्तराधिकारी चुने गए, वे या तो कुरैश कबीले के थे या फिर मोहम्मद साहब के संबंधी थे. शुरुआती चार ख़लीफ़ाओं को ख़ुल्फ़ा राशिदुन कहा जाता है, मतलब यह कि सही दिशा-निर्देश प्राप्त. वे सभी मोहम्मद साहब की तरह ही थे. वे सभी आध्यामिक नेता थे, जो इस्लामिक साम्राज्य की सीमाएं बढ़ाने निकले. हाल में खुद को ख़लीफ़ा घोषित करने वाला अबू दुआ किसी समुदाय द्वारा नहीं चुना गया है और न उसका मोहम्मद साहब से कोई खून का रिश्ता है (जहां तक हमें जानकारी है). हालांकि, उसने कहा है कि उसका मोहम्मद साहब से रिश्ता है, लेकिन इस बात का कोई सुबूत
नहीं है. आख़िर किसी को भी उसके दावे को गंभीरता से क्यों लेना चाहिए? रोमन कैथोलिक पोप को कॉलेज ऑफ कार्डिनल के जरिये चुना जाता है. ख़लीफ़ाओं का चयन किया जाता था. यह अलग बात है कि बाद के समय में वे विभिन्न राजवंशों से संबंध रखते थे,
जैसे उमैया, फातिमी और उस्मानी. वहीं एक सुल्तान का भी पद लेना ख़लीफ़ा की भौतिक दुनिया की ताकत को और मजबूत करता था. सवाल यह है कि आख़िर अबू दुआ वैधता कैसे प्रमाणित करेगा?
यह बात सत्य है कि उस स्वघोषित ख़लीफ़ा ने एक नक्शा जारी किया है, जिसमें बताया गया कि वह और उसकी सेना दुनिया के एक बड़े हिस्से पर शासन करने का सपना देखती है. भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं कई अफ्रीकी देशोंे समेत स्पेन का वह हिस्सा भी उसमें शामिल है, जहां तक इस्लामिक योद्धा आठवीं सदी में पहुंचे थे. स़िर्फ इतना ही नहीं, वे लगभग 600 सालों तक रुके भी थे. स़िर्फ अबू दुआ की सेना के लोग ही उसे ख़लीफ़ा मानेंगे. अब चूंकि ख़लीफ़ा घोषित करने की घटना काफी वर्षों से नहीं हुई है, इसलिए मुझे इसकी प्रक्रिया के बारे में नहीं मालूम है. मुझे यह भी नहीं मालूम है कि कैसे उसके दावे को सही ठहराया जा सकता है, लेकिन स़िर्फ यही आशा की जा सकती है कि अबू दुआ इसके लिए लोगों को मौत के घाट नहीं उतारेगा. अगर ऐसा होता है, तो उससे पीड़ित होने वाले मुस्लिम ही उसके अनुयायी हो सकते हैं.

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