रणधीर गौतम द्वारा लिखे इस लेख में शिक्षा की नए उदारवादी विचारधारा के संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाए गए हैं। आधुनिक युग में शिक्षा की भूमिका और उसके समाज पर प्रभाव का विस्तार से वर्णन किया गया है। लेखक ने शिक्षा द्वारा व्यापक रूप से समाज के विकास के लिए उसके योगदान को बढ़ावा देने की बात की है, जबकि शिक्षा प्रणाली से संबंधित बौद्धिक विवादों और तमाम चुनौतियों को भी सामने रखा गया है। लेखक ने यह भी प्रश्न उठाया है कि आधुनिक समाज में शिक्षा के प्रभाव को कैसे समझा जा सकता है और इसे बेहतर बनाने के लिए क्या किया जाना अपेक्षित है।

आधुनिकता के दौर में तमाम क्रांतियां शिक्षा के बाबत ही आईं या लाई गई हैं। पिछले १०० साल में दुनिया ने विज्ञान तकनीकी के क्षेत्र में जितनी आगे तरक्की की है, उसकी मिसाल विगत हजार साल में भी मिलना मुश्किल है। इसका मुख्य कारण यह फर्क भी है कि आज की तमाम व्यवस्थायें शिक्षा के समस्त मानव जाति के लिए अनिवार्य होने की वकालत करती है।

औद्योगीकरण के बाद शिक्षा मनुष्य को एक ‘ मजदूर ‘ के रूप में उत्पादन की व्यवस्था में उसकी भूमिका बढ़ाने के लिए दी जाती रही। भारतीय राष्ट्रीयआंदोलन के दौर में की शिक्षा को राष्ट्र निर्माण का एक महत्वपूर्ण यंत्र माना गया। लेकिन फिर बाजारवाद की प्रक्रिया ने शिक्षा को बाजारी व्यवस्था का एक हिस्सा मात्र माना।
जैसा कि समाजशास्त्री पियरे बौर्डियू बताते हैं, शिक्षा ने असमानता का भी पुनरूत्पादन किया है। आज, भूमंडलीकरण के दौर में भारतीय शिक्षा प्रणाली प्रथम विश्व के देशों की पूंजी बढ़ाने और तीसरी दुनिया के मजदूरों के शोषण पर बनी दुनिया को चलाने में मदद कर रही है।

वर्तमान मानव सभ्यता ने अपने जीवन के सिद्धांत में स्पीड (गति) को अहम माना है। इसका असर लोगों के सामाजिक मापदंड और परीक्षा व्यवस्था पर भी पड़ा है। इस प्रकार, योग्यता को जल्दी से जल्दी मापने के लिए एक शिक्षा प्रणाली अस्तित्व में आती है, जिसका नाम “वस्तुनिष्ठ प्रणाली” है। हालांकि, बहुत से बुद्धिजीवी लोग इस तरह के योग्यता मापने के मानकों पर सवाल उठाते रहे हैं और कई विश्वविद्यालयों व स्वतंत्र बुद्धिजीवी वस्तुनिष्ठ प्रकार की परीक्षाओं की उपयोगिता पर विचार कर रहे हैं।

आज के भारत में 18-40 साल के आयु समूह के लगभग 70 करोड़ युवा इस बात को समझ चुके हैं कि सूचना आधारित शिक्षा को महत्व देना उनके शिक्षण पद्धति में अनिवार्य हो गया है। वे मूल्‍यविहीन शिक्षा को अपनाते जा रहे हैं। दूसरी ओर, भारतीय शिक्षा व्यवस्था भर्ती परीक्षाओं के नाम पर शिक्षा के वस्तुकरण कमोडिफिकेशन की प्रक्रिया दिनों-दिन तेज हो रही है।

“एक्सेस टू एजुकेशन” का मुद्दा अब “एक्सेस टू जस्टिस” के सवाल के समान लगने लगा है। आजकल बिना कोचिंग के आप एक विश्वविद्यालय में दाखिला भी नहीं ले सकते। वास्तव में, युवाओं द्वारा NEET और NTA के खिलाफ प्रदर्शन एक यादगार बदलाव का प्रतीक है जो एक न्यायसंगत और योग्यतावादी ज्ञान आधारित समाज की ओर एक बदलाव को सूचित कर रहा है। IITs, IISERs, IIMs जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं के साथ कुछ अपवाद हैं, जैसे कि कुछ छात्र पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं और नौकरी प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाते हैं। इस पर विचार करते हुए, यह भी देखना महत्वपूर्ण है कि यह संस्थान केवल शिक्षा देने के लिए नहीं हैं, बल्कि वे अकादमिक और औद्योगिक क्षेत्रों में अच्छी नौकरियां प्राप्त करने की भी राह दिखाते हैं। अत्यधिक प्रतिस्पर्धा के कारण, सभी छात्र इन संस्थाओं से उच्च गुणवत्ता की शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन आगे बढ़ते समय में अपने प्रतिस्पर्धी के साथ प्रतिस्पर्धा करना भी आवश्यक होता है। इसी प्रतिस्पर्धा के कारण बड़ी बड़ी बहू राष्ट्रीय कंपनियों में भारतीय मैनेजरों की संख्या बढ़ती जा रही है। ब्रेन ड्रेन (बुद्धि पलायन)की प्रक्रिया से भारत से शिक्षा प्राप्त लोग दूसरे राष्ट्र के काम में आ रहे हैं और भारतीयों को उसका लाभ कम मिल रहा है। पिछले

10 सालों में लाखों लोग भारत को छोड़कर विदेश बस जा चुके हैं।

शिक्षा की उपलब्धता और इसकी गुणवत्ता को लेकर सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष वर्तमान में काफी महत्वपूर्ण मुद्दा बन चुका है। यहाँ पर कुछ महत्वपूर्ण सवालों की चर्चा की जा रही है जो नीति निर्धारकों को विचार करने पर मजबूर कर सकती है:

1. युवाओं की शिक्षा और उनकी आवश्यकताएं: युवाओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए क्योंकि उन्हें शिक्षित करना वर्तमान और भविष्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। उनकी व्यक्तिगत, सामाजिक और व्यावसायिक जरूरतों को समझकर उन्हें उचित शिक्षा प्राप्त कराना चाहिए ताकि वे समाज में सकारात्मक योगदान कर सकें।

2. शिक्षा की सुगम उपलब्धता : सामाजिक और आर्थिक विभेदों को दूर करने के लिए शिक्षा की सुगम उपलब्धता को बढ़ावा देना चाहिए। विभिन्न जातियों, वर्गों और क्षेत्रों के लोगों को समान अवसर देना चाहिए ताकि समाज में समानता का माहौल बना रहे।

3. शिक्षा की गुणवत्ता: एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि कैसे शिक्षा की गुणवत्ता को सुनिश्चित किया जा सके। शिक्षा प्रणाली में सुधार करने, शिक्षार्थियों की

योग्यता को मापने एवं उनकी सामर्थ्य को बढ़ाने और अधिक अद्वितीय और समर्पित शिक्षा मॉडलों को विकसित करने के बारे में विचार किया जा रहा है।

4. विकास की दृष्टि: शिक्षा के माध्यम से समाज के समग्र विकास को कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है, इस पर भी विचार किया जाना चाहिए। शिक्षा के द्वारा समाज में सामर्थ्य और समर्थन को कैसे प्रदान किया जा सकता है, इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

ये सभी प्रश्न और मुद्दे नीति निर्धारकों को उचित रणनीति बनाने में मदद कर सकते हैं ताकि वे शिक्षा प्रणाली को सुधारने और शिक्षित समाज की दिशा में अग्रसर हो सकें।

नवउदारवादी विचारधारा का प्रवेश शिक्षा में एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद मुद्दा है, जिसमें विश्वविद्यालयों के मूल उद्देश्य और इसके प्रभाव को समझना आवश्यक है। यहां कुछ मुख्य बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है:

1. विश्वविद्यालय की सत्य और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता: विश्वविद्यालयों का मुख्य उद्देश्य होता है सत्य की खोज, विचारों की स्वतंत्रता, और न्याय के प्रति समर्पण। नवउदारवादी विचारधारा का प्रवेश इस मूल उद्देश्य को खतरे में डाल सकता है जिससे विश्वविद्यालयों की स्वतंत्रता और न्याय के सिद्धांतों पर सवाल उठ सकते हैं।

2. विश्लेषणात्मक विचार कर सकना : नवउदारवादी विचारधारा का प्रवेश विद्यार्थियों की आलोचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक चिंतन की क्षमता को प्रभावित कर सकता है। शिक्षा में यह क्षमता महत्वपूर्ण है जो उन्हें विभिन्न विचारों और परिप्रेक्ष्यों को समझने और विश्लेषण करने में सहायक होती है।

3. युवाओं के हितों की रक्षा: नवउदारवादी विचारधारा के प्रवेश से उन युवाओं के हितों को भी प्रभावित किया जा सकता है, जो समाज में असमानताओं, बहिष्कारण और सांस्कृतिक हिंसा से गिरे हुए हैं। उन्हें शिक्षा और समर्थन के माध्यम से आगे किया जाना चाहिए ताकि वे समाज में अपनी गुणवत्ताओं को विकसित कर सकें।

4. समाजिक और राजनीतिक संघर्ष: नवउदारवादी विचारधारा के प्रवेश से समाज में सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष भी उत्पन्न हो सकते हैं। यह संघर्ष पैदा कर सकता है जो किसी भी समाज के उत्कृष्टता और एकता को प्रभावित कर सकता है।

इन मुद्दों को समझकर और उचित रणनीतियों को अपनाकर विश्वविद्यालय प्रशासन और नीति निर्धारकों को इस प्रकार की विचारधारा के प्रवेश को समझने और समायोजित करने में सक्षम होना चाहिए।

नवउदारवादी उन सामाजिक जागरूक बौद्धिकों को हास्यास्पद बनाने में काम कर रहे हैं जो सरकार से प्रश्न पूछते हैं, पूंजीवादी सरकार को चुनौती देते हैं और परिवर्तनकामी और प्रयोगधर्मी विचारों को मानते हैं।

नवउदारवादी चिंतन सामाजिक सहकारिता की भावना को भी खत्म करने की भूमिका निभा रहा है। साथ ही, बाजारवाद का आकर्षण लगातार बढ़ता जा रहा है। एक तरह से नव उदारवाद की अवधारणा को सफलता का मूल मंत्र मान लिया गया है।

राज्य के बजाय शिक्षा बाजार के सिद्धांतों से चल रही है, इसलिए कॉर्पोरेट मूल्य या साथ में प्रबंधन प्रवृत्ति लोगों में बढ़ती जा रही है। प्रबंधन प्रवृत्ति अपने आप में एक तरह का संगठित सामाजिक अपराध है, जिसमें कम से कम संसाधनों से किसी भी प्रकार अधिक उत्पादन करने की मान्यता होती है। सरल शब्दों में, इसे सामान्य अर्थों में एक तरह का शोषण माना जा सकता है। इसे नोम चॉम्स्की ने “श्रम लागत को कम करने और श्रम की शोषण को बढ़ाने के लिए डिज़ाइन की गई व्यवस्था मानते है”।

नव उदारवादी शिक्षा में ‘नवउदारवादी टूलकिट’ उसका केंद्रीय हिस्सा क्यों हैं?, इसके कई कारण हैं:

1. मापकता और तुलनात्मकता: नवउदारवाद में योग्यता को मापना और विभिन्न संस्थानों, शिक्षकों, और छात्रों की तुलना करना महत्वपूर्ण माना जाता है। वृहद-स्तरीय मूल्यांकन और मात्रात्मक डेटा यह मापकता और तुलनात्मकता प्रदान करते हैं, जिससे नीतियों को बाजारोन्मुख बनाने में आसानी होती है।

2. दायित्व और पारदर्शिता: नवउदारवादी दृष्टिकोण में शैक्षिक संस्थानों की दायित्व और पारदर्शिता को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण होता है। मात्रात्मक डेटा के माध्यम से प्रदर्शन का आकलन करना आसान होता है,

जिससे संस्थानों को उनकी उपलब्धियों और कमियों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

3. प्रभावशीलता और कुशलता: नवउदारवाद में संसाधनों का कुशल और प्रभावी उपयोग महत्वपूर्ण होता है। मात्रात्मक डेटा के माध्यम से यह निर्धारित किया जा सकता है कि कौन सी नीतियां और कार्यक्रम सबसे अधिक प्रभावी हैं, शोषण के संदर्भ में जिससे संसाधनों का अनुकूलन संभव होता है।

4. मानकीकरण: नवउदारवादी नीतियों में मानकीकरण को महत्व दिया जाता है, ताकि विभिन्न संस्थानों और प्रणालियों के बीच एकरूपता लाई जा सके। वृहद-स्तरीय मूल्यांकन और मात्रात्मक डेटा मानकीकृत आकलन और तुलना के लिए आवश्यक होते हैं। इससे सृजनशीलता और रचनात्मक में भारी कमी देखने को मिल रही है।

5. नीति निर्माण: मात्रात्मक डेटा नीति निर्माताओं को साक्ष्य-आधारित निर्णय लेने में मदद करता है। इससे नीतियों को औचित्यपूर्ण और प्रभावी बनाने में सहायता मिलती है, जो नवउदारवादी दृष्टिकोण का एक महत्वपूर्ण पहलू है।

6. शैक्षिक बाजारीकरण: नवउदारवाद शैक्षिक क्षेत्र में बाजार के सिद्धांतों को लागू करता है, जिसमें प्रतिस्पर्धा और प्रदर्शन पर जोर होता है। मात्रात्मक डेटा के माध्यम से संस्थानों की रैंकिंग, छात्र परिणाम और अन्य प्रदर्शन संकेतकों को आंका जा सकता है, जो इस बाजारीकरण के अनुरूप है।

इन सभी कारणों से, वृहद-स्तरीय मूल्यांकन और मात्रात्मक डेटा नवउदारवादी शैक्षिक शोध के महत्वपूर्ण उपकरण बन जाते हैं, जो शैक्षिक प्रणाली की प्रभावशीलता और कुशलता को बढ़ाने के लिए उपयोग किए जाते हैं। मेट्रिक्स और माप पर अत्यधिक निर्भरता एक उपकरण बन गई है जिसका उपयोग शिक्षा की भाषा और नीतियों से जिम्मेदारी, नैतिकता और न्याय के सवालों को हटाने के लिए किया जाता है। मेट्रिक-आधारित संस्कृति में एक तरह का मानसिक अवस्था पैदा होती है जो कल्पना को मार देती है और आलोचनात्मक, विचारशील, साहसी और जोखिम लेने की इच्छा हमेशा हमेशा के लिए खत्म कर देती है।

ऑडिट संस्कृति की सेवा में मेट्रिक्स अब पॉज़िटिविज़्म की संस्कृति का नया चेहरा बन गया है, एक तरह का अनुभवात्मक-आधारित पैनोप्टिकॉन जो विचारों को संख्याओं में बदल देता है और रचनात्मक प्रवृत्ति को हमेशा हमेशा के लिए खत्म कर देता है।
यह एक ऐसी संस्कृति पैदा करता है जो बराबरी और न्याय की खोज से प्रेरित वैकल्पिक दुनियाओं की कल्पना करने से डरती है और इसका प्रभाव राजनीति पर भी गंभीर रूप से पड़ता है जिससे तानाशाही की राजनीति का सामाजिक स्वीकृतिकरण भी होने लगता है।

इन सब परिस्थितियों से बचने का उपाय समाजवादी चेतना को फिर से विकसित करना होगा।

1. शिक्षा को समाजोन्मुख बनाना होगा।

2. उच्च शिक्षा को अपनी समतावादी और लोकतांत्रिक प्रवृत्तियों को पुनः प्राप्त करने के लिए अपने मिशन को एक सार्वजनिक भलाई के रूप में पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है।

3. नवउदारवाद के खिलाफ एक सामाजिक आंदोलन विकसित करने में समाजवादी विचार की प्रतिबद्धता के लिए मंच प्रदान कर सकता है।

4. उन मूल्यों, परंपराओं, इतिहासों, और शिक्षण विधियों को गंभीरता से लेना जो एक वास्तविक लोकतंत्र के केंद्र में गरिमा, आत्म-चिंतन और करुणा की भावना को बढ़ावा देंगे।

5. उच्च शिक्षा को एक अधिकार के रूप में देखा जाना चाहिए, जैसा कि कई देशों जैसे जर्मनी, फ्रांस, नॉर्वे, फिनलैंड और ब्राजील में है, न कि कुछ सीमित लोगों के लिए एक विशेषाधिकार के रूप में, जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और यूनाइटेड किंगडम में है।

6. डेटा, मेट्रिक्स और सूचना की अधिकता से ज्ञान के प्रतिस्थापन से प्रेरित दुनिया में, शिक्षकों को छात्रों को प्रिंट और दृश्य संस्कृति से लेकर डिजिटल संस्कृति तक कई साक्षरताओं में संलग्न होने के लिए सक्षम बनाना चाहिए। उन्हें सीमाओं को पार करने वाले बनना चाहिए जो द्वंद्वात्मक रूप से सोच सकते हैं, और यह सीख सकते हैं कि न केवल संस्कृति का उपभोग करें, बल्कि इसे उत्पन्न भी करें।

7. श्रम की प्रकृति पर नियंत्रण करने, शासन की नीतियों को आकार देने, और सुरक्षित रोजगार और शैक्षणिक स्वतंत्रता और मुक्त वातावरण के संरक्षण की गारंटी करनी चाहिए।

 

रणधीर कुमार गौतम , समाजवादी गांधीवादी कार्यकर्ता
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