सोलहवीं लोकसभा का चुनाव जोरों पर है. मीडिया लोगों को अपने सबसे बड़े लोकतांत्रिक अधिकार का प्रयोग यानी मतदान करने के लिए प्रेरित कर रहा है. राजनीतिक दल एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते हुए जनता को अपने पक्ष में मत देने के लिए मनाते नज़र आ रहे हैं, लेकिन इसी हो-हल्ले के बीच एक वर्ग ऐसा भी है, जिसे कोई भी सरकार जनता मानने के लिए तैयार नहीं है. वे लोग अपनी सूनी आंखों से देश के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक पर्व को देख तो रहे हैं, लेकिन चाहकर भी इसमें हिस्सा नहीं ले सकते. यहां हम उन लोगों की बात कर रहे हैं, जो 1947 से आज तक यानी 67 वर्ष बीत जाने के बाद भी देश में शरणार्थी बने हुए हैं. पश्चिमी पाकिस्तान से आए उक्त शरणार्थी आज भी भारतीय कहलाने को तरस रहे हैं और हर मूलभूत अधिकार से वंचित हैं. वे बंटवारे के वक्त पाकिस्तान से विस्थापित होकर भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य में आकर बस गए थे. 67 वर्ष बीत जाने के बाद भी उन्हें जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं माना जाता, सरकारी नौकरियां नहीं मिलतीं. उन्हें राज्य में जमीन खरीदने का अधिकार नहीं है. उनके बच्चों को तकनीकी शिक्षा संस्थानों में प्रवेश नहीं मिल रहा है.
अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद का मानना है कि देश के सामाजिक एवं आर्थिक विकास में तकनीकी शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, लेकिन इसके ठीक उलट पश्चिमी पाकिस्तान से आए उक्त शरणार्थियों के बच्चे जम्मू-कश्मीर सरकार के अमानवीय नज़रिए का भार ढोने को विवश हैं. वर्ष 2007 में राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री गुलाम नबी आज़ाद ने शरणार्थियों की समस्याओं के समाधान के लिए जी डी वाधवा के नेतृत्व में एक समिति गठित की थी. इस समिति ने शरणार्थियों के पक्ष में कई सिफारिशें भी की थीं, लेकिन उक्त सिफारिशें आज तक लागू नहीं हो पाईं. सुनीता देवी नामक एक दलित बालिका ने 12वीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद पॉलिटेक्निक में प्रवेश लेकर कुशलता आधारित पढ़ाई का सपना देखा था, लेकिन स्थायी निवास प्रमाणपत्र के अभाव में उसका सपना महज एक सपना बनकर रह गया. इस प्रमाणपत्र के बिना कोई भी विद्यार्थी किसी भी पॉलिटेक्निक कॉलेज या औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान में प्रवेश नहीं ले सकता.
एक तरफ़ राजकीय महिला पॉलिटेक्निक जम्मू की वेबसाइट यह कहती है, हमारा लघुकोणीय लक्ष्य है, हम तकनीकी शिक्षा के जरिये महिलाओं में आत्मनिर्भरता और सशक्तिकरण लाते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ सुनीता जैसी छात्राएं दाखिले से वंचित रह जाती हैं, क्योंकि वे अभी भी राज्यरहित हैं. सुनीता का मामला अकेला नहीं है, ऐसी बहुत सी छात्राएं हैं, जो रोज़गारप्रद प्रशिक्षण एवं तकनीकी शिक्षा के जरिये अपना जीवन स्तर सुधारना चाहती हैं, लेकिन वे इस सुविधा से वंचित हैं. ग़ौरतलब है कि 25 अप्रैल, 2008 को केंद्रीय रोज़गार एवं श्रम मंत्रालय ने प्रधानमंत्री द्वारा घोषित एक विशेष पैकेज के तहत जम्मू-कश्मीर समेत देश भर के युवाओं के लिए कुशलता उन्नयन की कई योजनाएं शुरू की थीं. केंद्र सरकार पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों की हालत से वाकिफ है, इसलिए इस कार्यक्रम में साफ़-साफ़ उल्लेख किया गया है कि कुछ मानदंड राज्य सरकारों द्वारा स्वयं तय किए जा सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. यदि ऐसा हो जाता, तो शरणार्थियों के बच्चे औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों में प्रवेश से वंचित न रहते.
पश्चिमी पाक शरणार्थी कार्यसमिति के अध्यक्ष लाभ राम गांधी का कहना है कि राज्य के 15 निर्वाचन क्षेत्रों की सात तहसीलों में ऐसे 18,428 परिवार हैं. दूसरों की तरह हम भी इस देश के नागरिक हैं, लेकिन हमारे साथ अलग तरह से पेश आया जाता है. घारू राम के तीन लड़के हैं, जिनमें से दो 12वीं पास हैं और एक नवीं पास है, लेकिन वे सब दिहाड़ी मज़दूरी कर रहे हैं. घारू राम ने बताया कि उनके सबसे बड़े बेेटे ने सीमा सुरक्षा बल में भर्ती के लिए प्रयास किया था, लेकिन वह भर्ती नहीं हो सका, क्योंकि उसके पास स्थायी निवास प्रमाणपत्र नहीं था.
वह कहते हैं कि राज्य सरकार के निजी हितों के चलते उन्हें मूलभूत अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है. अपने देश में बंधुआ मज़दूरी करने से बेहतर था कि हम अंग्रेजों के गुलाम रहते. हमारे बच्चे अपनी पहचान और शांतिपूर्ण जीवन जीने के सभी अवसर खो चुके हैं. हमारे पुरखों ने जम्मू-कश्मीर आकर बसने की सबसे बड़ी गलती की, वरना हम भी किसी अन्य राज्य में भारत के दूसरे नागरिकों की तरह सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे होते.
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