तमिलनाडु के तिरुनेलवेली के रहने वाले 30 वर्षीय मुरुगन एक सड़क हादसे में बुरी तरह से ज़ख़्मी हो गए. एम्बुलेंस उन्हें लेकर सात घंटे तक केरल के कोल्लम और तिरुवनंतपुरम के कई अस्पतालों का चक्कर लगाती रही, लेकिन किसी अस्पताल ने उन्हें भर्ती नहीं किया. समय पर उपचार न मिलने से उनकी मौत हो गई. ख़बरों में बताया गया कि जिन अस्पतालों में उन्हें ले जाया गया, उन्होंने गवाहों के अभाव में मुरुगन को भर्ती करने से इंकार कर दिया.
इसी से मिलती-जुलती एक खबर राजधानी दिल्ली से आई, जहां एक नवजात, जिसके दिल में सुराख़ थी, के माता-पिता दिल्ली के अलग-अलग अस्पतालों में लेकर दौड़ते रहे. कहीं फीस नहीं चुका सकने के कारण भर्ती नहीं मिली तो कहीं ईडब्लूएस (आर्थिक रूप से कमज़ोर) कोटे के तहत बेड खाली नहीं होने का बहाना बना दिया गया. एक अस्पताल ने भर्ती भी किया तो केवल रात भर के लिए. ज़ाहिर है ये देश में कोई अनोखी घटनाएं नहीं हैं.
अस्पतालों की बेईमानी की कहानी अक्सर अखबारों की सुर्ख़ियों में रहती हैं. इन दो हालिया घटनाओं की तरफ ध्यान आकर्षित करने का मकसद यह है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (एनएचपी) 2017 को अनुमोदित कर दिया है. सरकार की ओर से जारी 30 पन्नों के इस दस्तावेज़ को देश के स्वास्थ्य क्षेत्र के इतिहास में बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश किया जा रहा है. यह भी दावा किया जा रहा है कि एनएचपी 2017 बदलते सामाजिक-आर्थिक, प्रौद्योगिकीय और महामारी-विज्ञान परिदृश्य में मौजूदा और उभरती चुनौतियों से निपटने के लिए अस्तित्व में आई है. यह नीति राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2002 का स्थान लेगी. इस दस्तावेज़ में यह भी कहा गया है कि एनएचपी 1983 और एनएचपी 2002 ने पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान स्वास्थ्य नीति को सही दिशा देने का कार्य किया.
नई स्वास्थ्य नीति की प्रस्तावना में जो तारीफ की गई है, उसेे समझने के लिए मेडिकल जर्नल ‘द लैंसेट’ में प्रकाशित ‘ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज स्टडी’ पर एक नजर डालनी होगी. इसके अनुसार, भारत स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी स्वास्थ्य सुविधाओं और सेवाओं के मामले में 195 देशों की सूची में 154 वें स्थान पर है. शर्मिंदगी की बात यह है कि स्वास्थ्य सुविधाएं देने में भारत अपने पड़ोसियों श्रीलंका, बांग्लादेश, चीन और भूटान से भी पीछे है. शिशु मृत्युदर के मामले में भारत की रैंकिंग सोमालिया और अफगानिस्तान से भी नीचे है. अब सवाल यह उठता है कि बेहतर ढंग से काम करने का यह नतीजा है तो नई स्वास्थ्य नीति से क्या उम्मीदें लगाई जा सकती हैं. यह स्थिति तब है, जब भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से आगे बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है.
नई स्वास्थ्य नीति में सबके लिए स्वास्थ्य के सिद्धांत पर काम करते हुए कमज़ोर वर्ग के लोगों को मुफ्त दवा और इलाज की सुविधा उपलब्ध कराना है. साथ ही स्वास्थ्य क्षेत्र में बजट को बढ़ाकर जीडीपी के 2.5 प्रतिशत के स्तर तक लाना, जो ़िफलहाल 1.5 प्रतिशत है. इसके अलावा बीमारियों, शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर में कमी लाने के साथ जीवन प्रत्याशा को बढ़ाने का भी लक्ष्य निर्धारित किया गया है. नई नीति में सरकार का ध्यान प्राथमिक स्वास्थ्य पर अपेक्षाकृत अधिक केंद्रित करने की बात कही गई है. बड़ी बीमारियों के इलाज के लिए निजी क्षेत्र पर भी निर्भर होने की बात की गई है, यानी इसके लिए प्राइवेट अस्पतालों का सहयोग लिया जाएगा. लेकिन प्राइवेट अस्पतालों से जुड़ी ऊपर दर्ज घटनाएं ये बताती हैं कि यह कम कितना मुश्किल है.
नई नीति में जो सिद्धांत और लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, वो कागज़ पर देखने में तो बहुत शानदार लगते हैं, लेकिन उनका ज़मीन पर उतरना बहुत मुश्किल है. सबके लिए स्वास्थ्य को ही ले लीजिए. सबके लिए स्वास्थ्य पर हमेशा से जोर दिया जाता रहा है, लेकिन इस नीति में प्राइवेट सेक्टर को भी इससे जोड़ दिया गया है. गौरतलब है कि बड़े निजी अस्पतालों में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लोगों के लिए मुफ्त इलाज की व्यवस्था है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि दिल्ली जैसे शहर में भी इस आदेश का पालन नहीं होता.
बहरहाल केवल ज़िक्र मात्र कर देने से समस्या का समाधान नहीं हो जाता. गोरखपुर की घटना इसकी सबसे ज्वलंत मिसाल है. सच्चाई यह है कि देश में जिला स्तर की स्वास्थ्य सेवा चरमरा गई है. अस्पताल तो हैं, लेकिन डॉक्टर और दवाइयां नहीं हैं. बुनियादी ढांचा नहीं है. इन तमाम कमियों का एकमात्र इलाज प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी को बता कर सरकारें अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाती हैं.
दरअसल ज़रूरत इस बात की है कि सबके लिए स्वास्थ्य को कारगर बनाने के लिए कानून बनाया जाए और उसे सख्ती से लागू किया जाए. कई क्षेत्रों से शिक्षा और खाद्य सुरक्षा की तरह स्वास्थ्य को भी बुनियादी अधिकार बनाने की मांग उठ रही है. यहां तक कि 2015 में जारी इस पॉलिसी के ड्राफ्ट में इसे अधिकार बनाने का प्रस्ताव था, लेकिन बाद में उसे हटा दिया गया. दूसरी, स्वास्थ्य क्षेत्र में जो सबसे बड़ी कमी नज़र आती है और जिसका जवाब इस नीति में नहीं मिलता है, वो है सरकारी फंडिंग के इस्तेमाल करने की क्षमता का अभाव. उसी तरह डॉक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए 2001 से 2015 के बीच मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की सीटें बढाई गईं, लेकिन इससे नीति में स्थापित लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता है.
आंकड़े बताते हैं कि केवल 11.3 प्रतिशत एलोपैथिक डॉक्टर ही सार्वजानिक क्षेत्र में काम करते हैं. चौथी दुनिया ने पिछले अंक में राष्ट्रीय मेडिकल आयोग बिल पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसमें प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की स्थापना पर जोर दिया गया है. उसमें यह भी प्रावधान रखा गया है कि आयोग केवल 40 प्रतिशत सीटों की फीस को ही नियंत्रित कर सकता है. अब जिन कॉलेजों में कैपिटेशन फीस के नाम पर लाखों की उगाही की जाती है, वहां से निकलने वाले डॉक्टरों से मुफ्त इलाज की आशा कैसे की जा सकती है?
दरअसल केवल नीति बना देने मात्र से देश में स्वास्थ्य की समस्या का समाधान नहीं हो सकता है. इसके लिए ज़रूरी है कि स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को प्राथमिक स्तर पर चुस्त-दुरुस्त किया जाए. निजी क्षेत्र की बजाय सार्वजनिक क्षेत्र को इसकी जिम्मेदारी दी जाए और सरकारी क्षेत्र में अधिक से अधिक मेडिकल कॉलेज खोले जाएं. ज़रूरत इस बात की भी है कि इसके क्रियान्वयन के लिए सख्त कानून बनाया जाए.
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (एनएचपी) 2017 के प्रमुख लक्ष्य
- 2025 तक पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्यु दर कम कर 23 तक लाना.
- जीवन प्रत्याशा को 5 से बढ़ा कर 2025 तक 70 वर्ष करना
- नवजात शिशु मृत्यु दर को घटाकर 16 करना तथा मृत पैदा होने वाले बच्चों की दर को 2025 तक घटाकर ‘एक अंक’ में लाना.
- 2018 तक कुष्ठ रोग, 2017 तक कालाजार का उन्मूलन करना.
- क्षयरोग (टीबी) के नए रोगियों में 85 प्रतिशत से अधिक को रोगमुक्त करना तथा नए मामलों की व्याप्तता में कमी लाना, ताकि 2025 तक इसका उन्मूलन किया जा सके.
- 2025 तक दृष्टिहीनता के मामलों को वर्तमान स्तर से घटाकर एक-तिहाई करना.
- हृदवाहिका रोग, कैंसर, मधुमेह या सांस के पुराने रोगों से होने वाली अकाल मृत्यु को 2025 तक घटाकर 25 प्रतिशत तक करना.