संघ परिवार ने हर तरफ़ हर्ष का माहौल तैयार कर रखा है. संघ का कहना है कि नरेंद्र मोदी बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं. संघ के इस दावे का कोई आधार नहीं है. यह बात इसलिए कही जा रही है, क्योंकि विभिन्न राज्यों में सीटों और भाजपा द्वारा लड़ी जाने वाली कुल सीटों की संख्या में कोई समानता नहीं है. हालांकि, चुनाव अनुमान हमेशा अप्रत्याशित होते हैं और इस बात की भी पूरी संभावना है कि भाजपा चुनाव में अच्छी सीटें ला सकती है. यहां दो ऐसी परेशानियां हैं, जिन्हें समझने की ज़रूरत है. पहली तो यह कि नरेंद्र मोदी के साथ काम करने वाली वर्तमान भाजपा आरएसएस द्वारा निर्मित भाजपा नहीं है, क्योंकि आरएसएस अपने अनुशासन, समर्पण, गंभीरता एवं उत्तरदायित्व के लिए जाना जाता है. आप एक ऐसे व्यक्ति को नेतृत्व सौंप रहे हैं, जो अपनी इच्छानुसार टिकट दे रहा और काट रहा है. इस पूरे काम के दौरान कोई सामूहिक ज़िम्मेदारी नहीं है. आरएसएस को इस पर दु:ख प्रकट करना चाहिए या उसे यह काम दस साल बाद करना ही होगा. उसने भाजपा पर अपना नियंत्रण खो दिया है. संभव है, यह देश के लिए कोई बुरी बात न हो, क्योंकि ऐसी धारा पर चलकर भाजपा भी अन्य राजनीतिक पार्टियों की तरह हो जाएगी, जो अपने संस्कार और राष्ट्रीयता को भूल चुकी हैं.
एक अजीब और गंभीर बात यह भी है कि मोदी के सत्ता में आने की संभावना देख विदेशी काफी प्रसन्न हैं. आज ही मैंने एक अमेरिकन बैंकर को प़ढा. उस बैंकर का मानना है कि अगर नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बनते हैं, तो अमेरिकी डॉलर की क़ीमत 40 रुपये के बराबर आ जाएगी. मुझे यह नहीं समझ में आ रहा है कि आख़िर ऐसा होगा कैसे? क्या हम डॉलर अपने ही देश में छापना शुरू कर देंगे? आख़िर किस प्रकार यह 60 रुपये से 40 रुपये पर आ जाएगा? उनका तर्क यह है कि इसके बाद ब़डी मात्रा में विदेशी पूंजी भारत में आएगी और इस कारण रुपया मजबूत होगा. पहली बात तो यह है कि ऐसा होना संभव नहीं है, लेकिन चलिए मान लेते हैं कि ऐसा हो भी सकता है, तो क्या हमारे लिए सही है? क्या हमें इतनी ब़डी मात्रा में विदेशी पूंजी की आवश्यकता है? क्या हमारे देश के लिए यह अच्छा साबित होगा? दुर्भाग्य की बात तो यह है कि व्यवसायी स़िर्फ अपने धंधे और धन के बारे में सोचते हैं, देश के बारे में नहीं सोचते.
मेरे जैसे भारतीयों के लिए भारत एक देश है, पांच हजार सालों के इतिहास वाला एक गौरवान्वित देश. वहीं अमेरिका के लिए भारत एक बाज़ार ही नहीं, बड़ा बाज़ार है. वह हमारे राष्ट्रवाद की चिंता नहीं करता और भाजपा जो राष्ट्रवाद, महाभारत, रामायण और वेदों की दुहाई देती है, वह भी अमेरिकी धन की तरफ़ ललचाई हुई निगाहों से देख रही है. 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ था, तो अमेरिका ने भारत के समक्ष एक प्रस्ताव रखा था. उसने मिलिट्री बेस बनाने की बात कही थी. नेहरू जी ने इस बात को गहराई से समझा. यह प्रस्ताव उस भारत के लिए नहीं था, जिसने स्वतंत्रता के लिए लंबी लड़ाई लड़ी. अगर आप अमेरिका को बुलावा देना ही चाहते हैं, तो इंग्लैंड में क्या गड़बड़ी थी? आख़िरकार उस समय ब्रिटेन की रानी भारत पर शासन तो कर ही रही थीं. इतने लंबे समय के संघर्ष के बाद अब आप अमेरिका को देश में लाना चाहते हैं. उस समय पाकिस्तान ने अमेरिका को बेस दिया और यही कारण है कि अमेरिका हमेशा पाकिस्तान का पक्ष लेता नज़र आता रहा है. वहीं भारत ने रूस के साथ मित्रता बनाई, लेकिन यह अब इतिहास बन चुका है.
अब आख़िर क्या होगा? अगर अमेरिका को इस बात की अनुमति दी जाती है कि वह अपनी नीतियों को लेकर भारत सरकार को सलाह दे सकता है और भारत सरकार भी अमेरिकी नीतियों को मानने के लिए तैयार हो जाती है, तो अमेरिकी नीतियां एक दिन भारत को तोड़ देंगी. वे चाहेंगे कि देश समस्याओं से घिर जाए, वे चाहेंगे कि भारत उनके वशीभूत हो जाए. वास्तव में वे इतनी अधिक पूंजी देते ही इसलिए हैं. उन देशों को देखिए, जिन्हें अमेरिका ने पैसा दिया है. उनमें से कोई भी देश बड़ा नहीं बन पाया. इसका कारण यह है कि उन्हें मजबूत बनाना अमेरिका का लक्ष्य ही नहीं है. अमेरिका केवल इतना चाहता है कि वह देश उनके वशीभूत हो जाए और उसके लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाए.
क्या भाजपा में कोई ऐसा व्यक्ति है, जिसने इन सारे मुद्दों पर कभी बात की हो? क़रीब छह महीने पहले से ही मोदी के नाम की घोषणा प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर हो चुकी है, लेकिन मैंने आज तक उनका कोई भी साक्षात्कार नहीं प़ढा. वह अपना साक्षात्कार अपने मनपसंद अख़बार को भी दे सकते थे, इसे लेकर भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है. प्रश्नोत्तर के रूप में ही अपना रुख बता सकते हैं कि वह क्या चाहते हैं? वह किस तरह के भारत का निर्माण करना चाहते हैं? भूल जाइए कि कांग्रेस ने 10 सालों में क्या किया. इसके बाद मैं उनके इन विचारों से सहमत हो जाऊंगा कि स्फीति की सीमा होती है, सब कुछ सही चल रहा है. मुझे यह बताएं कि जब आप बतौर प्रधानमंत्री नियुक्त हो जाएंगे, तो अगले पांच वर्षों में किस तरह से भारत का विकास करेंगे? आपको स्वतंत्र भारत को एक राष्ट्र की समिति के तौर पर खड़ा करने में गर्व होगा या आप एक ग़रीब भारत का निर्माण करना चाहते हैं, जो थो़डे से पैसों के लिए भी तरसे. 1991 में अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हुआ था. उस समय मनमोहन सिंह वित्तमंत्री थे. उस समय की अर्थव्यवस्था का 300 मिलियन आज के 1.8 ट्रिलियन के बराबर है.
इस तरह से हम देखें, तो 22-23 वर्षों में कुल विकास दर ब़ढकर 6 गुना हो गई है. इस दरम्यान एनडीए सहित कई सरकारें आईं. 6 गुना आपने विकास किया, लेकिन इन वर्षों में कितना हमने कर्ज लिया? 37 गुना हमने कर्ज लिया. क्या यही हमारी ताकत है? क्या पाश्चात्य देश इससे इत्तेफाक रखेंगे कि आप 6 गुना विकास करें और 37 गुना कर्ज ले लें? आप मुंबई में नई पी़ढी के लिए मेट्रो को कैसे सही ठहरा सकते हैं? एक छोटे से मेट्रो पर 3000 करो़ड रुपये का खर्च आता है. इतने ब़डे पैमाने पर कौन खर्च वहन करेगा?
हम स़िर्फ विश्व के अन्य देशों का अनुसरण करते हैं. अगर हमारा यही हाल रहा, तो हम जल्द ही बंदर की तरह दिखने लगेंगे. हमें खुद को देखना चाहिए, अपने देश और उसके लोगों की ज़रूरतों को देखना चाहिए. भाजपा इसके लिए क्या कर रही है? लेकिन, मैं सोचता हूं कि सत्ता में आने की जल्दबाजी में वे अपनी अच्छाइयों को जनता के सामने रखने का भरसक प्रयास कर रहे हैं और अब वे अपने नेताओं को सामने ला रहे हैं. सभी विश्वासी और ब़डे नेता टिकट लेने से इंकार करते रहे हैं, क्योंकि सभी वरिष्ठ नेताओं को मोदी से जूनियर होना होगा, अन्यथा मोदी बतौर प्रधानमंत्री कैसे शासन कर सकते हैं?
जनता तो जनता है. मैं आशा करता हूं कि वह अपने स्वविवेक का ठीक से प्रयोग करेगी और किसी के बहकावे में नहीं आएगी. मैं यह भी आशा करता हूं कि आने वाले दिनों में कोई परेशानी नहीं आएगी. अगर कोई परेशानी आती है, तो हम उसे बेहतर तरीके से दूर करने का प्रयास करेंगे. ऐसा कुछ ही सप्ताहों में देखने को मिल सकता है.
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