रालोसपा जितनी बड़ी पार्टी है, उस हिसाब से गांधी मैदान में आए लोग काफी कम थे. कुछ और बेहतर किया जा सकता था, लेकिन संकट यह है कि रालोसपा अभी तक लोकसभा चुनाव के नतीजों के हैंगओवर से बाहर नहीं निकल पाई है. गांधी मैदान में दो लाख लोग इकट्ठा करने वाले हवाई दावे से बेहतर होता कि पार्टी विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र चुनिंदा सीटों पर अपना संगठन मजबूत करती. रालोसपा के नेता यह सच स्वीकार कर लेते कि लोकसभा चुनाव की जीत नरेंद्र मोदी की जीत थी और जीत के जो बाकी तत्व थे, वे महज बहाना भर थे.
पटना का ऐतिहासिक गांधी मैदान पांच अप्रैल को एक बड़ी राजनीतिक कहानी का गवाह बनने को बेताब था, लेकिन रालोसपा की फीकी रैली ने गांधी मैदान की यह हसरत पूरी नहीं होने दी. खैर, गांधी मैदान के लिए यह कोई पहली और अकेली घटना नहीं थी, इसलिए सूबे के राजनीतिक गलियारों में इसे लेकर चर्चा का बाज़ार नहीं सजा और गांधी मैदान ने रैली के आयोजकों से यह कहकर संतोष कर लिया कि अगर मेरे आंगन में बड़ी लाइन खींचनी हो, तो जतन भी बड़े करो, क्योंकि केवल हवा में तीर चलाकर और पुरानी परिस्थितिजन्य उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने से अब काम चलने वाला नहीं है. नरेंद्र मोदी के नाम ने रालोसपा की गाड़ी चला तो दी, पर अगर उसे मंजिल तक पहुंचना है, तो हवा-हवाई दावे छोड़कर ज़मीन पर मेहनत हर हाल में करनी ही होगी. रालोसपा की गांधी मैदान रैली पर आएं, उससे पहले इस पार्टी के गठन, इसके संगठन और इसके काम करने के तरीके पर एक छोटी-सी चर्चा ज़रूरी है. उपेंद्र कुशवाहा ने नीतीश कुमार के कामकाज के तौर-तरीकों पर सवालिया निशान लगाते हुए उनसे अलग होने और एक लोकतांत्रिक पार्टी खड़ी करने का सपना देखा. राजगीर के जदयू सम्मेलन में उपेंद्र कुशवाहा द्वारा दिया गया भाषण हर किसी को याद होगा, जिसमें उन्होंने कहा था कि बाहर के लोग आकर मलाई खाएं और पार्टी को खड़ा करने वाले कार्यकर्ता टकटकी लगाकर देखते रह जाएं, यह नहीं चलेगा. कार्यकर्ताओं के मान-सम्मान से कोई समझौता नहीं होगा और उन्हें उनका वाजिब हक़ देना ही होगा.
यह बात नीतीश कुमार को इतनी खटकी कि नतीजे के तौर पर उपेंद्र कुशवाहा को जदयू से बाहर होना पड़ा. लंबे समय से राजनीतिक बियावान में भटक रहे अरुण कुमार को भी उस समय एक मजबूत साथी की ज़रूरत थी और वक्त की नजाकत को समझते हुए दोनों ने एक साथ चलने का फैसला किया. लोकसभा चुनाव में पचास हज़ार से भी कम वोट मिलने का मलाल अरुण कुमार को इतना सता रहा था कि उन्होंने समय की ज़रूरत को समझते हुए उपेंद्र कुशवाहा को रालोसपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वीकार किया और खुद प्रदेश के प्रमुख हो गए. ग़ौरतलब है, किसान महापंचायत के दिनों में उपेंद्र कुशवाहा के राजनीतिक कद को लेकर अरुण कुमार की क्या राय थी, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है. खैर, पार्टी बनी और उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी टीम के साथ रात-दिन मेहनत करके रालोसपा को इस लायक बनाया कि दूसरी पार्टियां उसका नोटिस लेने लगीं. लोकसभा चुनाव आते-आते भाजपा जैसी पार्टी को भी लगा कि उपेंद्र कुशवाहा से सीटों का तालमेल किया जाए. तालमेल हुआ और रालोसपा ने अपने हिस्से में आईं तीनों सीटों पर जीत दर्ज की. पार्टी की असली दिक्कत उसके बाद से ही शुरू हुई. उपेंद्र कुशवाहा केंद्र में मंत्री बन गए और सरकारी कामकाज एवं पहला अनुभव होेने के कारण ज़्यादा से ज़्यादा समय दिल्ली में बिताना उनके लिए ज़रूरी हो गया. हालांकि, उपेंद्र कुशवाहा बीच-बीच में बिहार आते रहे, पर वह पहले की तरह पार्टी के कामों पर ध्यान देने में असमर्थ हो गए.
इस बीच सीमा सक्सेना के राष्ट्रीय सचिव के तौर पर धमाकेदार प्रवेश ने रालोसपा की लड़ाई पर्दे के बाहर लाकर खड़ी दी. बीस वर्षों से उपेंद्र कुशवाहा के साथ रहे नागेश्वर स्वराज ने इस पर अपना कड़ा विरोध जताया और पार्टी से इस्ती़फा दे दिया. ग़ौरतलब है कि सीमा सक्सेना नीतीश कुमार के खासमखास मंत्री श्याम रजक की साली हैं. स्वराज का विरोध इस बात को लेकर था कि जिस पैराशूट कल्चर का हम लोग विरोध करते रहे हैं, अब पार्टी धीरे-धीरे उसी को आत्मसात कर रही है.
प्रदेश में रालोसपा को विधानसभा चुनाव के लिए खड़ा करने की ज़िम्मेदारी अरुण कुमार पर थी, पर उनका सारा ध्यान दिल्ली की राजनीति में लगा रहा. रालोसपा बिहार में केवल अ़खबारी बयानों तक सीमित रह गई. उपेंद्र कुशवाहा ने हालात को समझा, तो फिर से ज़िला स्तरीय सम्मेलनों का आगाज किया गया, लेकिन गाड़ी का एक ही चक्का चल रहा था, दूसरा चक्का या तो चलना नहीं चाह रहा था या फिर पंक्चर था. जैसे-तैसे ज़िला स्तर के कार्यक्रम निपटाए गए और बिना किसी ठोस रणनीति के गांधी मैदान की रैली का ऐलान कर दिया गया. सभी जानते हैं कि गांधी मैदान की रैली को किसी भी राजनीतिक पार्टी की ताकत का मापदंड माना जाता है. इसलिए चुनावी साल में यह ज़रूरी था कि पूरी पार्टी को भरोसे में लेकर रैली की तैयारियां होतीं और गांधी मैदान में एक बड़ी लाइन खींचने की कोशिश की जाती. लेकिन, दुर्भाग्यवश ऐसा कुछ नहीं हुआ और उपेंद्र कुशवाहा अकेले अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए जो कुछ कर सकते थे, करने लगे. इस बीच सीमा सक्सेना के राष्ट्रीय सचिव के तौर पर धमाकेदार प्रवेश ने रालोसपा की लड़ाई पर्दे के बाहर लाकर खड़ी दी. बीस वर्षों से उपेंद्र कुशवाहा के साथ रहे नागेश्वर स्वराज ने इस पर अपना कड़ा विरोध जताया और पार्टी से इस्ती़फा दे दिया.
ग़ौरतलब है कि सीमा सक्सेना नीतीश कुमार के खासमखास मंत्री श्याम रजक की साली हैं. स्वराज का विरोध इस बात को लेकर था कि जिस पैराशूट कल्चर का हम लोग विरोध करते रहे हैं, अब पार्टी धीरे-धीरे उसी को आत्मसात कर रही है. स्वराज को तो रैली के ठीक पहले कुछ आश्वासनों के साथ मना लिया गया, लेकिन मन खट्टा करके लौटा कार्यकर्ता क्या करेगा, यह सबको पता है. रालोसपा के प्रदेश अध्यक्ष अरुण कुमार को भी सीमा सक्सेना की एंट्री रास नहीं आई और उन्होंने अपना सारा गुस्सा पार्टी प्रवक्ता अभयानंद सुमन पर निकाल दिया. बताया जाता है
अरुण कुमार उस घटना से इतने नाराज़ हुए कि रैली के अगले ही दिन उन्होंने अभयानंद सुमन को पार्टी से बाहर कर दिया. सुमन का मामला अब उपेंद्र कुशवाहा की अदालत में है. पार्टी के लोग कहते हैं कि हम यह कहकर नीतीश कुमार से अलग हुए थे कि जदयू में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. लेकिन, कोई यह तो बताए कि बिना किसी नोटिस के अभयानंद सुमन को बाहर निकाल देना किस आंतरिक लोकतंत्र का उदाहरण है. पार्टी में कई ऐसे बड़े नेता हैं, जिन्हें अब तक कोई पद नहीं मिला और सीमा सक्सेना अचानक आती हैं और राष्ट्रीय सचिव बन जाती हैं.
कि अरुण कुमार उस होर्डिंग से नाराज़ थे, जिसमें सीमा सक्सेना एवं उपेंद्र कुशवाहा की तस्वीर बड़ी थी और नीचे अभयानंद सुमन एवं ललन पासवान के साथ उनकी (अरुण) तस्वीर लगा दी गई थी. अरुण कुमार उस घटना से इतने नाराज़ हुए कि रैली के अगले ही दिन उन्होंने अभयानंद सुमन को पार्टी से बाहर कर दिया. सुमन का मामला अब उपेंद्र कुशवाहा की अदालत में है. पार्टी के लोग कहते हैं कि हम यह कहकर नीतीश कुमार से अलग हुए थे कि जदयू में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. लेकिन, कोई यह तो बताए कि बिना किसी नोटिस के अभयानंद सुमन को बाहर निकाल देना किस आंतरिक लोकतंत्र का उदाहरण है. पार्टी में कई ऐसे बड़े नेता हैं, जिन्हें अब तक कोई पद नहीं मिला और सीमा सक्सेना अचानक आती हैं और राष्ट्रीय सचिव बन जाती हैं.
जानकार सूत्र बताते हैं कि रालोसपा के अंदर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. उपेंद्र कुशवाहा और अरुण कुमार में बेहतर तालमेल न होने का खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ रहा है. जहां तक रैली का सवाल है, तो राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि एक लाख, दो लाख और पांच लाख की हवा-हवाई बातें करना बेमानी है. रालोसपा जितनी बड़ी पार्टी है, उस हिसाब से गांधी मैदान में जितने लोग आए, वे ठीकठाक ही थे. कुछ और बेहतर किया जा सकता था, लेकिन संकट यह है कि रालोसपा अभी तक लोकसभा चुनाव के नतीजों के हैंगओवर से बाहर नहीं निकल पाई है. गांधी मैदान में दो लाख लोग इकट्ठा करने वाले हवाई दावे से बेहतर होता कि पार्टी विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र चुनिंदा सीटों पर अपना संगठन मजबूत करती. रालोसपा के नेता यह सच स्वीकार कर लेते कि लोकसभा चुनाव की जीत नरेंद्र मोदी की जीत थी और जीत के जो बाकी तत्व थे, वे महज बहाना भर थे. अगर ऐसा न होता, तो जहानाबाद में राजपूतों एवं भूमिहारों ने एक साथ मिलकर वोट न किया होता और रामकुमार शर्मा जैसा एक सामान्य कार्यकर्ता सीतामढ़ी जैसी यादव बाहुल्य सीट से भारी मतों से न जीतता. इसी तरह भाजपा और लोजपा के भी कई नेता नरेंद्र मोदी लहर में गंगा नहा गए. इसलिए उस राजनीतिक हालात को आज के विधानसभा चुनाव के हालात से मिलाना राजनीतिक बेमानी है.
प्रस्तावित महाविलय के बाद लालू और नीतीश एक नई ताकत के साथ एनडीए के सामने होंगे. इसलिए रालोसपा के लिए यह वक्त संभलने का है. गांधी मैदान की रैली में जुटी भीड़ ने रालोसपा नेताओं को आगाह कर दिया है कि ज़मीनी सच्चाई समझने का वक्त आ गया है. पैर उतने ही फैलाए जाएं, जितनी बड़ी चादर है. अन्यथा परिणाम विपरीत जा सकते हैं. उपेंद्र कुशवाहा संगठन के माहिर खिलाड़ी हैं, इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि वह समय रहते पार्टी को फिर पटरी पर ले आएंगे. अगर ऐसा न हो पाया, तो फिर रालोसपा में गदर मचना तय है.