एक बेहद चौंकाने वाली खबर सामने आई है. एनआईए की टीम ने 18 जनवरी को नगालैंड में कुछ सरकारी विभागों में छापेमारी की थी. इस दौरान एनआईए टीम के हाथ कुछ ऐसे दस्तावेज लगे, जो बेहद गंभीर किस्म के थे. जब्त दस्तावेजों में कुछ उग्रवादी संगठनों को रकम दिए जाने से संबंधित रसीद मिले. पता चला कि 14 सरकारी विभाग नियमित रूप से स्थानीय उग्रवादी समूहों को एक निश्चित रकम देते थे. इसमें एक ऐसा उग्रवादी समूह भी है, जो नगा शांति समझौते में शामिल था. यह समझौता आज भी लोगों के लिए एक अबूझ पहेली बना है. किन शर्तों पर समझौता हुआ, क्या डील हुई, मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट क्या था, इस पर सरकार चुप है. इनमें से कुछ बातें ही पब्लिक डोमेन में आ सकीं. अगर दोनों घटनाओं को एक साथ देखें, तो स्थिति की भयावहता समझ में आती है. अब सवाल उठता है कि क्या सरकारी विभाग नियमित रूप से उग्रवादी समूहों को एक्सटॉर्शन मनी दे रहे थे या इसके तार शांति समझौते की शर्तों से भी जुड़े हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि डेढ़ साल बीत जाने के बाद भी नगा शांति समझौता की शर्तों पर रहस्य बना है. क्या शर्तों में इन उग्रवादी संगठनों को आर्थिक मदद दिए जाने की भी बात थी? अगर नहीं, तो फिर छापेमारी के दौरान इन सरकारी विभागों से जब्त रसीदें किस ओर इशारा कर रही हैं?
एनआई को जानकारी मिली कि कुछ नगा उग्रवादी समूह एनसीएनसी (के), सीएससीएल (आईएम) और नगा नेशनल काउंसिल को सरकारी विभागों द्वारा नियमित रूप से एक्सटॉर्शन मनी दी जाती है. इनमें से एनएससीएन (आईएम) नगालैंड शांति समझौता का भी हिस्सा रह चुका है. अब एक-एक कर उन सरकारी विभागों की जानकारी भी ले लेते हैं, जो इन संगठनों को पैसा दे रहे थे. इन सरकारी विभागों में हैं-सूचना प्रौद्योगिकी विभाग, मृदा एवं जल संरक्षण विभाग, सिंचाई विभाग, ग्रामीण विकास विभाग, शहरी विकास विभाग, पीडब्ल्यूडी, सड़क एवं भवन निर्माण, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग आदि. छापे के दौरान एनआईए ने सरकारी विभागों द्वारा नगा संगठनों को दो करोड़ रुपए दिए जाने के रसीद भी जब्त किए थे. एनएससीएन के एक प्रमुख कैडर खितोशी सूमी को दिमापुर में असम राइफल्स ने 31 जुलाई 2016 को गिरफ्तार किया था. सूमी कोहिमा और दिमापुर क्षेत्र में सरकारी विभागों से एनएससीएन के संगठन के लिए पैसे जमा करता था. इस सूचना के आधार पर ही सरकारी विभागों में छापेमारी की गई थी.
यह बात सामने आई कि नगा शांति समझौते में सरकार ने एनएससीएन (आईएम) के चार हजार सशस्त्र कैडरों के लिए एक नया पारा मिलिट्री बटालियन बनाने की बात की थी. गृह मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि अगर यह समझौता पूरी तरह से लागू हुआ, तब केवल एनएससीएन (आईएम) के नेताओं को ही फायदा होगा. अन्य नगा संगठनों के सदस्यों को इस बटालियन में शामिल करने की बात नहीं की गई थी. ऐसे में इस समझौते का टूटना लगभग तय ही था. लेकिन, सच्चाई यह है कि एनएससीएन (आईएम) भी सरकार के टालू रवैये से खुश नहीं है. न तो उसके सशस्त्र कैडरों को बटालियन में शामिल किया गया और न ही उसे कोई अन्य सुविधाएं मिली. वहीं, खबर है कि एनएससीएन आईएम नगालैंड में अपने सशस्त्र कैडरों को फिर से संगठित करने में जुटा है. सूत्रों के अनुसार, शांति समझौते पर हस्ताक्षर के बाद एनएससीएन आईएम ने अपने सशस्त्र कैडरों की संख्या 5000 तक बढ़ा ली है.
ऐसे में सवाल ये है कि 14 सरकारी विभागों द्वारा कुछ नगा उग्रवादी समूहों को पैसा दिया जाना एक सोची-समझी रणनीति के तहत तो नहीं किया जा रहा है. शांति वार्ता में शामिल और सरकारी विभागों द्वारा पोषित कुछ नगा समूह और उग्रवादी नगा समूह के विभाजन का असर मणिपुर में भी दिखने लगा है. नगा उग्रवादी समूहों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की रणनीति का ही ये नतीजा है कि मणिपुर में नगालैंड से जुड़े नगा समूहों ने कई महीनों से बैरिकेडिंग कर रखी है. मणिपुर में चुनाव नजदीक हैं और केंद्र व राज्य सरकार बैरिकेडिंग हटाने के लिए न तो नगा उग्रवादी समूहों से बातचीत को तैयार है और न ही कोई समाधान निकालने को तत्पर दिख रही है. वहीं राजनीतिक जानकारों का कहना है कि केंद्र सरकार मणिपुर में चुनाव हो जाने तक इस मुद्दे पर चुप रहने में ही भलाई समझ रही है. वृहत् नगालैंड की मांग दो से अधिक राज्यों मणिपुर, आसाम, अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड की टेरिटरी से जुड़ी है.
यही कारण है कि इस क्षेत्र में दीर्घकालिक रणनीति अपनाने की जगह तात्कालिक समाधान खोजे जा रहे हैैं. मणिपुर में शांतिपूर्ण चुनाव के लिए अर्द्धसैनिक बलों की संख्या बढ़ा दी गई है. साथ ही नगालैंड में नए साल पर अफस्पा को फिर से छह महीने के लिए बढ़ा दिया गया है. लेकिन ये सरकारी कवायद नगाओं की मांग को अनसुना कर निरर्थक ही साबित होंगे.
यहां एक बात ध्यान देने की है कि नगालैंड की राजनीतिक स्थिति थोड़ी अलग है. यहां विपक्ष नहीं है. हालत ये है कि 60 सदस्यों की विधानसभा में 59 विधायक मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग के साथ हैं. सत्तारूढ़ नगालैंड पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) नीत डेमोक्रेटिक अलायंस ऑफ नगालैंड (डीएएन) का साथ कांग्रेस व निर्दलीय भी दे रहे हैं. इस सरकार में भाजपा भी सहयोगी है. ऐसे में इन सरकारी विभागों द्वारा पैसा दिया जाना कहीं न कहीं केंद्र सरकार को भी कटघरे में खड़ा करता है.
गुप्त समझौतों से मुश्किल है शांति की राह
नगा समझौते को कभी प्रधानमंत्री मोदी और नगा नेता मोइवा गुट ने ऐतिहासिक बताया था. सरकार ने एग्रीमेंट पर साइन करते समय यह आश्वासन दिया था कि छह महीने के भीतर समझौते की शर्तों को सार्वजनिक किया जाएगा. अब सरकार यह कहकर टालमटोल कर रही है कि एनएससीएन के विभिन्न धड़ों के बीच सहमति नहीं बन पा रही है. नगा जनजातियों के अन्य गुट जब इस पर सवाल उठाने लगे, तब गृह मंत्रालय ने कहा कि यह समझौता एग्रीमेंट टू एग्री यानी सहमत होने का समझौता है. राहुल गांधी ने सदन में इस समझौते के बारे में कहा था कि यहां तक गृह मंत्री को भी समझौते की शर्तों की जानकारी नहीं दी गई है. अब हालत ये है कि शांति समझौते में शामिल उग्रवादी समूह भी समझौते की शर्तों पर सवाल उठाने लगे हैं. नगालैंड के नगा समूहों का कहना है कि (एनएससीएन आईएम) के नेता टी मुइवा मणिपुर के नगा हैं. उनकी चिंताएं मणिपुर के नगाओं तक ही सीमित हैं, इसलिए नगालैंड से ज़ुडे उग्रवादी समूह उनके विरोध में हैं.
नगा समूहों को एक मंच पर ला रहा चीन
हाल में आईबी की एक गोपनीय रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया था कि चीन नॉर्थ ईस्ट बॉर्डर इलाके में उल्फा व नगा उग्रवादी समूहों को शह देकर सुरक्षा बलों पर हमला कराने की फिराक में है. इसमें उसकी मदद नगालैंड सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड- खापलांग (एनएनसीएन-के) कर रहा है. यह गुट शांति समझौते में शामिल था और बाद में पीछे हट गया था. कुछ साल पहले नॉर्थ ईस्ट के नौ उग्रवादी गुटों ने एक कॉॅमन प्लेटफॉर्म यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ वेस्ट साउथ ईस्ट एशिया बनाया था. बताया जा रहा है कि इन उग्रवादी गुटों को एकजुट करने में भी चीन का हाथ था. कुछ वर्ष पूर्व 18 भारतीय सैनिकों की हत्या में भी खापलांग गुट (एनएससीएन-के) का नाम सामने आया था. इसके बाद गृह मंत्रालय ने आनन-फानन में खापलांग गुट को पांच साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया.