एक तरफ सरकारें फेक न्यूज़ की महामारी से लड़ने का उपाय सोच रही हैं, वहीं सरकारें फेक न्यूज़ से लड़ने की आड़ में प्रेस की आज़ादी कुचल रही हैं. सरकारों के लिए फेक न्यूज़ एक तरह से दोनों हाथ में लड्डू है. मीडिया फेक न्यूज़ फैला रहा है. राष्ट्रपति प्रधानमंत्री फेक न्यूज़ फैला रहे हैं, प्रोत्साहित कर रहे हैं और अब आपने देखा सरकारी तंत्र के लोग यानि अफसरशाही भी नकली ख़बरों का जाल बिछा रही है. इसी मार्च में वाशिंगटन में रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने दुनियाभर में प्रेस की आज़ादी पर अपनी रिपोर्ट जारी की, जिसमें भारत की स्थिति बहुत खराब है. उसने फेक न्यूज़ से लड़ने के नाम पर सरकारों की हरकत पर भी चिंता ज़ाहिर की. संस्था का मानना है कि फेक न्यूज़ तानाशाहों के लिए वरदान है. जब से ट्रंप ने सीएनएन को फेक न्यूज़ कहा है, दुनिया के कई राष्ट्र प्रमुखों को मीडिया पर लगाम कसने का बहाना मिल गया है.
क्या आप फेक न्यूज़ से सावधान हैं? दुनियाभर में फेक न्यूज़ लोकतंत्र का गला घोंटने और तानाशाहों की मौज का ज़रिया बन गया है. राजधानी से लेकर ज़िला स्तर तक फेक न्यूज़ गढ़ने और फैलाने में एक पूरा तंत्र विकसित हो चुका है. यही नहीं संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी फेक न्यूज़ दे रहे हैं. कमज़ोर हो चुका मीडिया उनके सामने सही तथ्यों को रखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. पहले पन्ने पर राष्ट्र प्रमुख का बयान छपता है जिसमें फेक जानकारी होती और जब गलती पकड़ी जाती है, तो फिर वही अखबार अगले दिन उसी स्पेस में छापने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने झूठा बयान दिया है. मीडिया, पत्रकार और पाठक दर्शक के लिए पता लगाना बहुत जोखिम का काम हो गया है कि न्यूज़ असली है या नकली. पूरी दुनिया में इस बीमारी से लड़ने पर विचार हो रहा है. फेक न्यूज़ से कैसे बचा जाए.
इसी मार्च में अमेरिका में विपक्षी दल डेमोक्रेट के सांसदों ने फेक न्यूज़ के विरोध में एक बिल पेश किया. जिसमें कहा गया कि हालत यह हो गई कि अब जनता को राष्ट्रपति और उनके प्रवक्ताओं से ही फेक न्यूज़ मिल रही है. ट्रंप के शपथ के समय व्हाइट हाउस के प्रवक्ता स्पाइसर ने बयान दिया था कि इससे पहले कभी नहीं हुआ कि किसी शपथ ग्रहण समारोह में चलकर इतने लोग आए और इसे पूरी दुनिया में देखा जाय. इसमें तथ्य नहीं है. ट्रंप ने कहा कि कोई दस, साढ़े दस लाख लोगों की भीड़ नज़र आ रही थी. भारत में तो नेता कब से एक लाख की रैली को दस लाख बताते रहे हैं, मगर अमेरिका में लोगों ने चुनौती दे दी कि प्रवक्ता और राष्ट्रपति ने भीड़ की गिनती कैसे कर ली. इसलिए सदन से प्रस्ताव पास करने का अनुरोध किया गया कि व्हाइट हाउस के प्रवक्ता फेक न्यूज़ जारी न करें. यह बिल वहां की कमेटी ऑ़फ ज्यूडिशियरी में भेज दिया गया है.
आई फोन और आई पैड बनाने वाली एप्पल कंपनी के प्रमुख टिम कूक ने एक ब्रिटिश अखबार से कहा है कि फेक न्यूज़ लोगों के दिमाग़ की हत्या कर रहा है. उनके जैसी कंपनी को ऐसा कोई ज़रिया विकसित करना होगा, जिससे नकली ख़बरों को छांटा जा सके और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी प्रभावित न हो. ब्रिटिश अखबार को दिए इंटरव्यू में टिम कूक ने सरकारों से भी कहा कि वे फेक न्यूज़ से लड़ने के लिए सूचना अभियान चलाएं.
पूरी दुनिया में सरकारों, संगठनों और विश्वविद्यालयों में फेक न्यूज़ को लेकर चर्चा हो रही है. भारत में अंग्रेज़ी के कुछ वेबसाइट ने फेक न्यूज़ से लड़ने का प्रयास शुरू किया है. अल्ट न्यूज डॉट इन, इंडिया स्पेंड, बूम, होएक्स स्लेयर, हिंदी में मीडिया विजिल हिन्दी में बहुत कम प्रयास हैं. फिलिपिन्स में फेक न्यूज़ बहुत बड़ी समस्या बन गई है. वहां के राष्ट्रपति पर आरोप है कि वो सत्ता पर पकड़ बनाए रखने के लिए फेक न्यूज़ को खूब प्रोत्साहित कर रहे हैं. इसके बाद भी वहां कुछ लोगों ने फेक न्यूज़ से लड़ने की बहस छेड़ दी है.
22 जून 2017 के फिलस्टार डॉट कॉम पर छपी ख़बर के अनुसार फिलिपिन्स के सिनेटर जोयल विलानुयेवा ने एक बिल पेश किया कि नकली ख़बरों के फैलते संसार से चिंता हो रही है. मीडिया के अलग-अलग माध्यमों में फेक न्यूज़ छप रही हैं और उन्हें फैलाया जा रहा है. इसलिए उन पर जुर्माना होना चाहिए. सिनेट बिल 1942 उस बिल का नाम है, जिसमें फेक न्यूज़ फैलाने वाले सरकारी अधिकारियों पर भी भारी जुर्माने या सज़ा की वकालत की गई है. इसमें एक से पांच साल की सज़ा का भी प्रावधान किया गया है. इसमें ये भर कहा गया है कि अगर कोई मीडिया हाउस फेक न्यूज़ फैलाता है, तो उसे बीस साल की सज़ा हो.
फिलिपिन्स के पत्रकारों ने कहा कि फेक न्यूज़ रोकने के लिए अवश्य कुछ किया जाना चाहिए. मगर बिल में जो प्रावधान हैं, वो प्रेस की स्वतंत्रता के ख़िला़फ हैं. सिनेटर का कहना है कि हम फेक न्यूज़ को हल्के में नहीं ले सकते हैं. यह लोगों को भीड़ में बदल रही है. फिलिपिन्स में ही एक साल पहले 24 नवंबर 2016 को फिलिपिन्स यूनिवर्सिटी ने फेक न्यूज़ से लड़ने के लिए एक ऑनलाइन चैनल टीवीयूपी लांच कर दिया था. यूनिवर्सिटी के कार्यकारी निदेशक ने बयान दिया था कि इसके ज़रिये वे उम्मीद करते हैं कि ऑनलाइन में फैले ख़बरों के कबाड़ का विकल्प तैयार हो सकेगा. ताकि नागरिकों के पास असली लेख, असली ख़बर जानने के अवसर उपलब्ध रहें. भारत में क्या हो रहा है. रिसर्च के दौरान एक और बात सामने आई.
एक तरफ सरकारें फेक न्यूज़ की महामारी से लड़ने का उपाय सोच रही हैं, वहीं सरकारें फेक न्यूज़ से लड़ने की आड़ में प्रेस की आज़ादी कुचल रही हैं. सरकारों के लिए फेक न्यूज़ एक तरह से दोनों हाथ में लड्डू है. मीडिया फेक न्यूज़ फैला रहा है. राष्ट्रपति प्रधानमंत्री फेक न्यूज़ फैला रहे हैं, प्रोत्साहित कर रहे हैं और अब आपने देखा सरकारी तंत्र के लोग यानि अफसरशाही भी नकली ख़बरों का जाल बिछा रही है. इसी मार्च में वाशिंगटन में रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने दुनियाभर में प्रेस की आज़ादी पर अपनी रिपोर्ट जारी की, जिसमें भारत की स्थिति बहुत खराब है, तो उसने फेक न्यूज़ से लड़ने के नाम पर सरकारों की हरकत पर भी चिंता ज़ाहिर की. संस्था का मानना है कि फेक न्यूज़ तानाशाहों के लिए वरदान है. जब से ट्रंप ने सीएनएन को फेक न्यूज़ कहा है, दुनिया के कई राष्ट्र प्रमुखों को मीडिया पर लगाम कसने का बहाना मिल गया है.
टर्की के राष्ट्रपति एरदोगन ने फेक न्यूज़ से लड़ने के नाम पर कई पत्रकारों को जेल भेज दिया. कंबोडिया के प्रधानमंत्री ने भी कहा कि ट्रंप ठीक कहते हैं कि मीडिया अराजकतावादी है. उन्होंने कंबोडिया में काम कर रहे विदेशी मीडिया को शांति और स्थायित्व के लिए ख़तरा बता दिया. रूस में भी फेक न्यूज़ से लड़ने के लिए कानून बनाने की तैयारी हो चुकी है. ब्रिटेन की संसद की खेल मीडिया और संस्कृति कमेटी जांच कर रही है कि लोकतंत्र पर फेक न्यूज़ का क्या असर पड़ता है.
इस तरह आप देख रहे हैं कि लोकतंत्र का गला घोंटने और अपनी कुर्सी परमानेंट करने के लिए सरकारें फेक न्यूज़ का दोतरफा लाभ उठा रही हैं. एक तरफ सरकार फेक न्यूज़ फैला रही हैं, दूसरा उससे लड़ने के नाम पर उन पत्रकारों का गला घोंट दे रही हैं, जिनसे मामूली चूक हो जाती है. ग़लती हो जाने और फेक न्यूज़ में भारी अंतर है. तानाशाहों के लिए फेक न्यूज़ से लड़ना प्रोपेगेंडा का नया हथियार है. किसी भी सरकार का मूल्यांकन इस बात से भी होना चाहिए कि उसके दौर में आज़ाद मीडिया था या गोदी मीडिया था. इसी 4 मार्च को संयुक्त राष्ट्र संघ की एक समिति ने बयान जारी कर कहा था कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग मीडिया को झूठा बता रहे हैं या फिर उसे विपक्ष करार दे रहे हैं. जबकि सरकारों का काम है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के माहौल को बनाए रखे. फेक न्यूज़ के बहाने एक नए किस्म का सेंसरशिप आ रहा है. आलोचनात्मक चिंतन को दबाया जा रहा है.
इजिप्ट और टर्की में कई पत्रकार मामूली चूक को फेक न्यूज़ बताकर जेल भेज दिए गए. फेक न्यूज़ की तरह टीवी में फेक डिबेट भी हो रहा है. जैसे आपने देखा होगा, अमरनाथ यात्रियों पर हुए हमले को लेकर सवाल यह नहीं था कि सुरक्षा में चूक कैसे हो गई, इसकी जगह कई और दूसरे सवाल पैदा कर दिए गए. इस तरह सवाल को शिफ्ट कर देना फेक डिबेट का काम होता है. फेक न्यूज़ आपके जानने के अधिकार पर हमला है. आप हर महीने पांच सौ से हज़ार रुपए तक न्यूज़ पर खर्च करते हैं. इसमें अख़बार, चैनल और डेटा पैक का खर्चा शामिल है. क्या आप फेक न्यूज़ के लिए भी पैसा दे रहे हैं. फेक न्यूज़ ने राजनीति को भी जटिल बना दिया है.
फेक न्यूज़ के ज़रिए ताकतवर दल कम ताकतवर दल को बर्बाद कर देता है. इस खेल में कम संसाधन वाले दल फेक न्यूज़ की जाल में फंस जाते हैं. बड़े दलों के आईटी सेल या समर्थक फेक न्यूज़ फैलाने में लगे रहते हैं. अब एक दल दूसरे दल के फेक न्यूज़ को पकड़ने के लिए टीम बना रहा है. फ्रांस के चुनाव में नेशनल फ्रंट ने फेक न्यूज़ अलर्ट टीम का गठन किया था. जल्दी ही भारत के दलों को भी फेक न्यूज़ अलर्ट टीम का गठन करना पड़ेगा. अभी हर दल के पास फेक न्यूज़ बनाने की ही सुविधा नहीं है. कमज़ोर दल मारे जाएंगे.
जहां कहीं भी चुनाव आते हैं, फेक न्यूज़ की भरमार हो जाती है. पिछले साल इटली में जनमत संग्रह हुआ तो वहां फेसबुक पर जो स्टोरी शेयर हुईं, उनमें से आधी नकली थीं. यूरोपियन यूनियन ने तो रूस से आने वाले फेक न्यूज़ का सामना करने के लिए एक टास्क फोर्स बनाया है, जिसका नाम है, इस्ट स्टार्टकॉम टास्क फोर्स. फ्रांस और नीदरलैंड में हुए चुनाव के लिए इस टास्क फोर्स को काफी पैसा और संसाधन दिया गया, ताकि वह रूस के प्रोपेगेंडा को रोक सके. रूस पर आरोप है कि वह फेक न्यूज़ पर काफी पैसा खर्च करता है. आपने देखा कि फेक न्यूज़ को लेकर कूटनीतिक युद्ध भी छिड़ा हुआ है. फेक न्यूज़ का एक बड़ा काम है, नकली खबरों के ज़रिए नफरत फैलाना, हिंसा के लिए उकसाना.
इसी जुलाई महीने में जर्मनी की संसद ने एक कानून पास किया, जिसके अनुसार अगर किसी सोशल मीडिया नेटवर्क ने ऩफरत फैलाने वाली सामग्री 24 घंटे के भीतर नहीं हटाई, तो 50 मिलियन यूरो तक का जुर्माना लग सकता है. इस कानून को लेकर भी चिंता है कि कहीं यह अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने का ज़रिया न बन जाए. जर्मन जस्टिस मिनिस्टर ने कहा है कि इंटरनेट पर जंगल का कानून चल रहा है, उसी को समाप्त करने के लिए यह कानून लाया गया है.
रॉयटर की इस खबर में ये भी था कि फेसबुक जैसे सोशल मीडिया नेटवर्क ने इस कानून पर चिंता जताते हुए कहा था कि ऐसी संदिग्ध सामग्री को हटाने के लिए दुनियाभर में 3000 लोगों की टीम बनाएंगे. अभी 4500 लोगों की टीम पोस्ट की समीक्षा कर रही है. आप सोच सकते हैं कि जब एक नेटवर्क को ऩफरत फैलाने वाली सामग्री पकड़ने में हज़ारों लोग तैनात करने पड़ रहे हैं, तो इस वक्त दुनिया में फेक न्यूज़ कितनी बड़ी समस्या होगी. न्यूज़ रूम में अब हर मसले को कवर करने के लिए रिपोर्टर की संख्या में लगातार कमी होती जा रही है. आप जिन एंकरों को देखकर स्टार समझते हैं, दरअसल वो पत्रकारिता के संकट के जीते जागते प्रतीक हैं. ख़ाली न्यूज़ रूम में फेक न्यूज़ का भूत नहीं घूमेगा तो कहां घूमेगा.
पश्चिम बंगाल में आसनसोल के बीजेपी आईटी सेल के सचिव तरुण सेनगुप्ता को कथित रूप से फेक फोटो पोस्ट करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. तरुण ने रामनवमी के दौरान एक फेक वीडियो अपलोड किया था कि एक मुस्लिम पुलिस अफसर हिन्दू आदमी को मार रहा है. इस वीडियो के साथ आपत्तिजनक और सांप्रदायिक टिप्पणी की गई थी. उन पर गैर ज़मानती धाराएं लगाई गईं हैं. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष का कहना है कि पुराने वीडियो को लेकर गिरफ्तारी हुई है और ये बीजेपी को बदनाम करने के लिए किया गया है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बीजेपी नेताओं पर आरोप लगाया था कि सोशल मीडिया पर फेक तस्वीरें जारी कर तनाव बढ़ा रहे हैं.
(लेखक जाने माने टीवी पत्रकार हैं)