आजकल राहुल गांधी की बल्ले बल्ले हो रही है । जहां देखो वहां । राहुल गांधी ने वाकई एक कारनामा कर दिखाया है। एक लंबे अरसे से राहुल गांधी की स्तुति में लगे लोग उनकी जिसके लिए तारीफ में किसी भी विरोधी से लड़ जाते थे उसमें तो वाकई राहुल ने ‘डिस्टिंग्शन’ पा ली है । और वह क्या था । वह था राजनीति को छोड़ बाकी सारे गजब के हुनर जो राहुल गांधी के व्यक्तित्व में मौजूद हैं । इस नौजवान ने साबित किया है कि उनकी ऊर्जा का कोई सानी नहीं है। चाहे वह रोजाना बाईस चौबीस किलोमीटर मस्ती और मुहब्बत के साथ चलना हो या कड़कड़ाती सर्दी में एकमात्र टीशर्ट से हर किसी को चौंकाना हो । कहना होगा ‘मान गये गुरु !’ इसलिए मान गये कि सबसे ज्यादा हमें ही दो चीजों पर शंका थी , बल्कि हर किसी को रही होगी कि यह यात्रा कितने दिनों तक चलेगी और बीच में राहुल कहां भाग जाएंगे या क्या बोल कर सब कुछ किये धरे पर पानी फेर देंगे । पर नौजवान ने तो नया पाठ लिख भी दिया और पढ़ा भी दिया और कल से शुरु होने वाले यात्रा के दूसरे चरण के लिए सबको आश्वस्त ही नहीं कर दिया बल्कि यह विश्वास भी दिला दिया कि श्रीनगर में झंडा फैलाया तो मोदी सरकार में कन्याकुमारी से कश्मीर तक कंपन तो जरूर आएगा । ट्रोल आर्मी के सारे पैंतरे फेल हो रहे हैं। ‘पप्पू से महात्मा तक’ एक इंसान के सफर को हर कोई देख रहा है।
राहुल गांधी की यह नयी भूमिका क्या कहती है। अगर वाकई वे कांग्रेस में खुद को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देख रहे हैं जो जेपी की भूमिका में आएगा तो हमारे मत में वे सही दिशा में हैं। और उन्होंने खुद का मूल्यांकन बेहतर तरीके से किया है । हालांकि गयी इकत्तीस दिसंबर को उन्होंने जो प्रैस कांफ्रेंस की उसमें वे राजनीतिक तौर पर ‘थोड़े’ परिपक्व होते दिखे और चूंकि कुछ गड़बड़ या अटपटा नहीं बोले तो उस कांफ्रेंस से राहुल और कांग्रेस को इन दिनों पसंद करने वालों की तो बांछें ही खिल गयीं। उस प्रैस कांफ्रेंस में मस्ती , मजाक और सटीक जवाब भी थे। मजा आया उस कांफ्रेंस को देख कर और संतोष भी हुआ । लेकिन दो पुराने सवाल अपनी जगह खड़े हैं क्या राहुल गांधी में राजनीतिक तौर पर इतनी परिपक्वता आयी है कि वे मोदी को स्वयं अकेले चुनौती दे सकें और दूसरा कि यह यात्रा इस साल होने वाले चुनावों में कुछ कमाल कर पाएगी ? राजनीतिक हलकों में इन्हीं दो सवालों पर चर्चा है । राहुल में महात्मा की छवि हम इसीलिए देख रहे हैं कि वे यात्रा और चुनावों को एक समन्वय के साथ नहीं देख रहे । लगता है यह सब उन्होंने मल्लिकार्जुन खड़गे पर छोड़ दिया है । और खुद को इन सबसे मुक्त कर लिया है । यात्रा में मिली मुहब्बत ने राहुल को मजबूती दी है । लेकिन जो भी है इस यात्रा से कांग्रेस और बीजेपी के भीतर की लड़ाई अलग रंग लायी है । देश में 2014 से एक ‘युद्ध सा’ जारी है और किसी भी युद्ध में कई छोटी बड़ी लड़ाईयां होती हैं यह युद्ध की एक बड़ी लड़ाई है जिसे कांग्रेस जीतती दिख रही है । परिणाम चुनाव समर में दिखेंगे। लेकिन यदि राहुल कांग्रेस को मजबूत होते भी देखना चाहते हैं तो उन्हें इस यात्रा के बाद दिल्ली से मुक्त होकर पूरे देश की यात्रा (पदयात्रा नहीं) पर जुट जाना चाहिए। चाहें तो पहले केवल चुनावी राज्यों की यात्रा करें या फिर एक सिरे से पूरे देश की । महात्मा गांधी को याद करते हुए केवल ट्रेन से यात्रा करें तो बीजेपी की चूलें हिल सकती हैं ।
मैंने पिछली बार सोशल मीडिया के लिए एक शब्द प्रयोग किया था कि सोशल मीडिया के चैनलों ने आखिर मोदी सरकार का क्या ‘उखाड़ लिया’ । इस ‘उखाड़ लिया’ पर मेरे एक मित्र ने नाराजगी व्यक्त की । उनका कहना था आपकी गम्भीर समीक्षा में ये शब्द या ऐसी शैली फिट नहीं बैठती । बहुत सही कहा। लेकिन उन्होंने मेरे भीतर गुस्से से भरी भड़ास को नहीं देखा । मेरा मानना है कि इस वक्त जो कुछ हम सोशल मीडिया और उसके यूट्यूब चैनलों में देख रहे हैं वह सब मदारी के खेल के सिवा और कुछ नहीं । सोमवार से शुक्रवार तक हम क्या देखते हैं। ट्रोल आर्मी के द्वारा षड़यंत्रकारी तरीकों से परोसी जा रही बातों पर चर्चा । यकीन कीजिए यदि राहुल गांधी को लगातार कुछ छींके आ जाएं और ट्रोल आर्मी इसी को मुद्दा बना लें तो हमारे चैनलों पर भी यही चर्चा होने लगेगी । आजकल ‘सत्य हिंदी’ तो इस सब में अव्वल होता दिख रहा है । इन्हें मालूम है कि राजनीति से हटें तो समाज में विषय ही विषय हैं । यह साल क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल अर्थव्यवस्था की नजर से भयानक साबित होने वाला है । देश के और अनेक दूसरे विषय हैं लेकिन फूहड़ हो चुकी राजनीति से ये लोग बाहर निकल ही नहीं पा रहे । इसीलिए पिछले हफ्ते जब ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर अभय दुबे शो नहीं आया तो मैंने संतोष भारतीय जी को एक मैसेज भेजा कि ‘संतोष जी आज का रविवार सूना सूना सा रहा’ । यह मैसेज संतोष जी के दिल को छू गया ऐसा इस हफ्ते संतोष जी ने अभय दुबे शो के दौरान बताया। और उन्होंने कहा कि शायद मैं यह प्यार के या स्नेह के अतिरेक में कह गया । नहीं, संतोष जी यह प्यार और स्नेह के अतिरेक में नहीं कहा गया यह सोच समझ कर जो दिल से निकला वह था । सोम से शुक्र के बाद शनिवार को छोड़ कर एक शांति और सन्नाटा सा रहता है और सारे चैनलों का सो जाना सुकून देता है लेकिन उस दिन बहुत शिद्दत से तीन का इंतजार रहता है जो मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं। ग्यारह बजे का इंतजार रहता है आपके टीवी पर अभय दुबे शो का । उसके बाद ‘सिनेमा संवाद’ का और रात ‘ताना बाना’ का । तीनों में सोम से शुक्र तक का जो फूहड़पन हम देखते हैं उससे निजात मिलती है । इनमें से एक ताजगी के साथ अभय दुबे का राजनीतिक संवाद सुनने की इच्छा होती है । आप दोनों ने इस बार भी मेरी चंद लफ्जों में प्रशंसा की , उससे मैं अभिभूत हूं। और आपका आभारी भी । अभय जी ने देश के मतदाता के बदलते व्यवहार, उत्तर पूर्व के प्रदेशों की राजनीतिक स्थितियां और कांग्रेस की मौजूदा स्थिति का जो आकलन किया वह सुनने लायक था । लेकिन मतदाता के व्यवहार पर कुछ सवाल जरूर होने चाहिए, ऐसा मुझे लगता है । अभय जी इतने विशाल देश के किस मतदाता वर्ग की बात कर रहे थे । पूरे देश के मतदाता के लिए यह बात थोड़ी समझ से परे है कि हमारा मतदाता समझदार हुआ है। क्या ऐसा वे उस मतदाता के लिए भी कहेंगे जो हाशिए से नीचे का है और जो मोदी जी का सबसे पहले नंबर का या सबसे प्रिय मतदाता है । जिसे आजादी के बाद पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने शिद्दत से और बड़ी कुटिलता के साथ ‘एड्रेस’ किया है । इस हाशिए पर पड़े मतदाता से लेकर उच्च वर्ग तक हमारे देश में मतदाता श्रेणियों में बंटा हुआ है । जिस दिन एक नजर से पूरे देश का मतदाता जागरूक हो जाएगा क्या वह दिन मोदी सरकार का आखिरी दिन नहीं होगा । हाशिए पर धकेला गया मतदाता तो वास्तव में हांका जाता है । वह अपनी समझ से वोट देता ही कहां है । अभय जी इस पर खुल कर कुछ बताएं तो बेहतर हो । दूसरा उन्होंने संतोष जी के उस सवाल का जवाब नहीं दिया जो एनडीटीवी और रवीश कुमार से जुड़ा था। कम से कम रवीश कुमार पर हम उनसे सुनना चाहते थे। रवीश उनके प्रिय रहे हैं । श्रवण गर्ग साहब ने रवीश कुमार के बारे में जो टिप्पणी की होगी वह अपनी जगह बहुत ठीक है लेकिन वे यह भी बताते कि पत्रकारों की भीड़ से निकल कर कोई पत्रकार ‘स्टार’ कैसे बन जाता है । यदि किसी संस्थान से श्रवण गर्ग या कोई भी इस्तीफा देता है तो क्या वह रातों रात वह शोहरत पा सकता है जो रवीश ने पायी । इस शोहरत के पीछे कोई प्रायोजित वर्ग नहीं है बल्कि वे स्थितियां हैं जो कई दिनों से बन रही थीं । उन स्थितियों का मैं इस रूप में गवाह रहा हूं कि एक बार मैंने रवीश कुमार पर हैडिंग लगा कर अपना लेख लिखा था तो उस पर मेरी और रवीश की लंबी व्हाट्सएप चैट हुई थी । एनडीटीवी से अलग हुए बाकी पत्रकारों को हम देख ही रहे हैं । बेशक यह सत्य है कि रवीश के संदर्भ में कुल मिला कर स्थितियां विस्फोटक सी रहीं । पर उसमें भी रवीश कुमार ही प्रेशक की भूमिका में दिखेंगे । इस सरकार के लिए रवीश कुमार आखिर क्यों आंख का कांटा बने हुए थे । यह सब क्या तमाम विश्लेषणों से परे की बात है ? अभय जी रवीश पर चर्चा करते तो अच्छा लगता
इस बार ‘सिनेमा संवाद’ अपने विषय और पैनल में आये लोगों की दृष्टि से बढ़िया और दिलचस्प लगा। सौम्या बैजल और विनय शुक्ला को सुनना मन को भाया । सौम्या पहले भी आयी हैं और बहुत खुल कर स्पष्ट विवेचन करती हैं । कट्टरवाद तो हिंदी सिनेमा के लिए खतरा है ही और यह साजिशन है इससे भी इंकार नहीं है । इस बार ज्यादातर चर्चा के केंद्र में अमिताभ बच्चन का भाषण रहा यह अच्छा लगा । इरा भास्कर पहली बार आयीं और अच्छा लगा उन्हें सुन कर । यह सच है कि अमिताभ बच्चन का भाषण समाज के ऊपरी तबके तक ही सीमित रह गया । मुझे लगता है इसके पीछे ट्रोल आर्मी का इस भाषण के प्रति उदासीन होना रहा । अमिताभ ट्रोल होते तो जम कर चर्चा होती । पर उन्हें ट्रोल करना भी आसान तो नहीं । कार्यक्रम के लिए अमिताभ श्रीवास्तव को बधाई ! इसी तरह अच्छे विषयों के साथ पैनल बदलते रहें । इस बार आरफा खानम शेरवानी ने जावेद जाफरी से बढ़िया इंटरव्यू लिया । उसे देखा जाना चाहिए ।
‘ताना बाना’ के साथ न्याय नहीं हो पा रहा । उसे देर रात देखना नहीं हो पाता । लेकिन इस बार का विषय बहुत अच्छा था इतिहास और साहित्य का संबंध । और इसमें भी असगर वजाहत का शरीक होना । मुकेश जी को दयानंद सिन्हा को हर बार घसीटने से बचना चाहिए । सही है कि उन्हें जो साहित्य अकादमी का काफी पहले पुरस्कार मिला वह आपत्तिजनक रहा पर बार बार उसका उल्लेख लगता है जैसे कोई और उदाहरण नहीं है । असगर वजाहत के उपन्यास पर इसी माह फिल्म आ रही है – ‘गांधी गोडसे संवाद’ । कुछ ऐसा ही शीर्षक है । खूब देखी जाएगी ।

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