केवल नाम बदल देने और उन्हें अलग रूप दे देने से योजनाओं की कार्यनीति नहीं बदल जाती. यही हो रहा है प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के साथ. 2015 में जब प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की शुरुआत हुई, तो इसे कृषि क्षेत्र और किसानों के लिए एक क्रांतिकारी कदम के रूप में प्रचारित किया गया. लेकिन शुरुआत से लेकर अब तक के इसके प्रभाव का आकलन करें, तो निराशा हाथ लगती है. इस योजना का हाल भी पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा शुरू की गईं फसल बीमा योजनाओं के जैसा ही है.
पिछले महीने आई सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) की रिपोर्ट में ये बात सामने आई है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत अनुबंधित कंपनियों ने 10 हजार करोड़ रुपए का लाभ कमाया. इस रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल, 2017 तक किसानों ने कुल 5,962 करोड़ रुपए का दावा किया था लेकिन बीमा कंपनियों ने कुल दावों में से केवल एक-तिहाई का ही निपटारा किया है. सीएसई की मानें तो, इन बीमा कंपनियों ने प्रीमियम के रूप में किसानों और सरकारों से कुल 15,891 करोड़ रुपए हासिल किए. बीमा कंपनियों को हुए सरकारी भुगतान का एक आंकड़ा खुद कृषि राज्य मंत्री पुरुषोतम रुपाला ने बताया था. 28 मार्च 2017 को लोकसभा में एक प्रश्न का जवाब देते हुए मंत्री जी ने कहा था कि 2016 के ख़री़फ सीज़न के लिए 9000 करोड़ का प्रीमियम बना था. इसमें किसानों को 1643 करोड़ जबकि सरकार को 7,438 करोड़ का प्रीमियम भुगतान करना था. सरकार ने अपने हिस्से के पूरे प्रीमियम का भुगतान बीमा कंपनियों को कर दिया. इन्हीं मंत्री जी ने मई महीने में राज्यसभा को एक और आंकड़े से अवगत कराया, जिससे सीएसई की रिपोर्ट का दावा सही साबित होता है. कृषि राज्य मंत्री ने बताया था कि अप्रैल 2017 तक मात्र 714.14 करोड़ के दावे ही निपटाए गए, जबकि 2016 की खरीफ फसलों के लिए 4270 करोड़ के दावे आए थे.
यानि स्पष्ट है कि सरकार ने तो प्रीमियम का भुगतान बीमा कंपनियों को कर दिया, लेकिन बीमा कंपनियां किसानों के दावे निबटाने के बजाय पूरी राशि दबा कर बैठ गईं. इस योजना के द्वारा बीमा कंपनियों को फायदा पहुंचाने का सवाल जब संसद में उठा, तो कृषि मंत्री जी गोलमाल जवाब देकर बच निकले. 21 जुलाई को कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने सदन में इस सवाल का बस इतना ही जवाब दिया कि राज्यों को भी कहा गया है कि वे अपनी बीमा कंपनी बना सकते हैं. गौरतलब है कि फसल बीमा योजना के पैनल में अभी 5 सरकारी और 13 निजी बीमा कंपनियां हैं. तमिलनाडु के किसानों के साथ हुई ज्यादती भी बीमा कंपनियों की मनमानी का एक उदाहरण है. रबी के सीजन में तमिलनाडु में पिछले 140 साल का सबसे भयंकर सूखा पड़ा. पहले से कर्ज से दबे किसानों के लिए ये भयावह स्थिति थी. फसल बीमा योजना किस तरह से इन किसानों के लिए नकाफी साबित हुई, उसे इससे समझा जा सकता है कि अब तक इन किसानों को सिर्फ 22 करोड़ रुपए के मुआवजे का ही भुगतान हुआ है. जबकि बीमा कंपनियां 954 करोड़ रुपए का प्रीमियम वसूल चुकी हैं.
ये तो हुआ प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को लेकर किए जा रहे दावों और उनकी वास्तविकता का एक पहलू. भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट तो फसल बीमा के नाम पर निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के एक बड़े खेल का पर्दाफाश करती है. हालांकि ये रिपोर्ट 2011 से 2016 तक की फसल बीमा को लेकर है. यानि इसमें पूववर्ती सरकार के कार्यकाल की फसल बीमा योजनाओं के गड़बड़झाले का भी उल्लेख है. ये रिपोर्ट बताती है कि 2011 से लेकर 2016 के बीच बीमा कंपनियों को 3,622.79 करोड़ की प्रीमियम राशि बिना किसी गाइडलाइन को पूरा किए ही दे दी गई. सीएजी ने इसे लेकर भी सवाल उठाया है कि निजी बीमा कंपनियों को प्रीमियम के रूप में भारी भरकम फंड देने के बाद भी, सरकारों ने आखिर क्यों उनके खातों की ऑडिट नहीं कराई. सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में ये भी कहा है कि राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना के 7,010 करोड़, संशोधित राष्ट्रीय किसान बीमा योजना के 332.45 करोड़ और मौसम आधारित फसल बीमा योजना के 999.28 करोड़ रुपए प्रीमियम का भुगतान अब तक राज्यों ने बीमा कंपनियों को किया ही नहीं है. गौरतलब है कि ये सभी योजनाएं अब खत्म हो चुकी हैं. कंपनियों और राज्य सरकारों के इस पेंच में नुकसान हुआ किसानों का, जो कंपनियों को तो पहले ही भुगतान कर चुके हैं, लेकिन उनके दावों का निबटारा अब तक नहीं हुआ है.
कर्ज़ से दबे हैं बीमा कराने वाले 80 फीसदी किसान
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत बीते साल कुल 5.39 करोड़ किसानों ने अपनी फसलों का बीमा करवाया. इनमें से खरीफ सीजन में 3.86 करोड़ जबकि रबी सीजन में 1.53 करोड़ किसानों ने योजना का लाभ लिया. गौर करने वाली बात ये है कि इन 5.39 करोड़ किसानों में से 4.08 करोड़ किसान ऐसे हैं, जो पहले से कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं. केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने भी इसे स्वीकार किया है कि फसल बीमा योजना का लाभ लेने वाले 5.39 करोड़ किसानों में से 80 फीसदी किसानों पर कर्ज का बोझ है. स्पष्ट है कि इन किसानों ने मजबूरीवश खुद को फसल बीमा योजना के लिए इनरॉल कराया है. बताया जाता है कि बिना मजबूरी के केवल 1.25 करोड़ (20 फीसदी) किसानों ने ही इस योजना के प्रति अपनी रुचि जाहिर की. हालांकि ऐसा भी नहीं है कि ये खेल प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के साथ ही हुआ है. वर्षों से चल रही पूर्ववर्ती फसल बीमा योजनाओं में भी किसानों के नाम पर बैंक और बीमा कंपनियों का भला करने का ये काम होता रहा है. हाल में सीएजी द्वारा जारी की गई, 2011 से 2016 तक की फसल बीमा योजनाओं की ऑडिट रिपोर्ट बताती है कि बीमा धारकों में 95 प्रतिशत से अधिक किसान वो थे, जिन्होंने बैंकों से ऋण लिया था. इसमें गौर करने वाली बात ये है कि अधिकतर मामलों में बीमे की राशि ठीक उतनी ही थी, जितना बैंक का बकाया ऋण था. यानि बैंक मैनेजरों ने ऋण की वापसी सुनिश्चित करने के लिए किसानों का बीमा करवा दिया.