महागठबंधन छोड़कर दोबारा भाजपा के साथ जाने के फैसले ने मुसलमानों के बीच नीतीश की लोक्रपियता के ग्राफ को नीचे गिरा दिया है. इसकी एक बानगी जोगबनी उपचुनाव के नतीजों में देखी जा सकती है. नीतीश कुमार के प्रवक्ता लगातार जद (यू) प्रत्याशी की जीत के दावे कर रहे थे. जदयू प्रत्याशी की जीत के लिए कई मौलानाओं की ओर से अपील भी जारी की गई. नए-नवेले एमएलसी भी मैदान में उतारे गए, लेकिन सब तैयारियां धरी की धरी रह गईं.

muslimइस साल बिहार में इफ्तार पार्टियों के जरिए एक दिलचस्प वाकया सामने आया. मुसलमानों का वोट पाने के दावेदार जद (यू) और राजद की ओर से एक ही दिन इफ्तार पार्टी का आयोजन किया गया. दोनों इफ्तार पार्टियों में पहुंचे मुसलमानों की संख्या चर्चा का विषय रही. दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही दलों ने ईद मिलन का ऐसा कोई आयोजन न तो किया और न ही वे ऐसे किसी आयोजन में दिखे. ऐसे में इस सवाल पर गौर करना जरूरी हो गया है कि मुसलमान आखिर किस ओर झुकेंगे और इनकी ओर कौन झुकेगा. मुसलमान किस पार्टी को अपनाएंगे और इन्हें अपनी नीतियों और योजनाओं से कौन अपना साबित करने की कोशिश करेगा.

राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद और जद (यू) अध्यक्ष नीतीश कुमार में मुसलमानों को लेकर सबसे बड़ा फर्क यह है कि लालू प्रसाद के बारे में कहा जाता है कि उनके पास एमवाई समीकरण है, जो सच भी हो सकता है, जबकि नीतीश कुमार के पास ऐसा कुछ नहीं है. लेकिन नीतीश कुमार को जो बात अलग करती है, वह यह है कि मुसलमानों ने उन्हें इसके बावजूद वोट दिया कि उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ राजद के खिलाफ लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की. इसे भी याद रखना जरूरी है कि गुजरात के गोधरा कांड और बाद के दंगों की भयावहता के बावजूद, नीतीश भाजपा के साथ बने रहे थे. दूसरी ओर, लोजपा सुप्रीमो अपने राजनैतिक लाभ के लिए ही सही, मगर नैतिकता की दुहाई देकर भाजपा सरकार से अलग हो गए थे.

मुस्लिम नेताओं को सियासी लॉलीपॉप

मुसलमानों को संदेश देने के लिहाज से बिहार के दो धार्मिक संगठनों को आरजेडी और जद (यू) दोनों अहमियत देते रहे हैं. हालांकि कई अन्य मुस्लिम संगठनों से संपर्क बनाने में या तो इनकी दिलचस्पी नहीं रही या इसमें वे कामयाब नहीं हुए. उदाहरण के लिए, इमारत-ए-अहल-ए-हदीस और जमात-ए-इस्लामी हिंद की बिहार शाखा से शायद ही इन दोनों दलों का कोई सार्वजनिक संपर्क हुआ हो. इमारत-ए-शरीया राजद और जद (यू) दोनों के लिए सबसे महत्वपूर्ण मुस्लिम संगठन रहा है. इस संदर्भ में यह भी याद रखना चाहिए कि नीतीश सरकार के एक मुस्लिम मंत्री को इमारत-ए-शरीया में वस्तुत: हाजिरी देनी पड़ी थी और अपने बयान के लिए माफी मांगनी पड़ी थी. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह काम मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इशारे पर हुआ था.

नीतीश कुमार का इमारत-ए-शरीया से मधुर संबंध रहा है. हालांकि दोनों ओर से इसे बहुत प्रचारित करने की कोशिश नहीं की गई है. इस बात को समझने के लिए यह याद दिलाना जरूरी है कि यहां के एक सीनियर ओहदेदार को सरकार नियंत्रित कमेटी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई थी. दूसरी ओर, फिलहाल इदारा शरीया से जुड़े रहे मौलाना गुलाम रसूल बलियावी जद (यू) के एमएलसी हैं और राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं. बिहार में पसमांदा सियासत के पुरोधा अली अनवर के शरद यादव के साथ चले जाने के बाद से नीतीश कुमार के पास गुलाम रसूल बलियावी को बेहद भरोसेमंद मुस्लिम चेहरे के रूप में देखा जाता है.

हालांकि बलियावी के माध्यम से इदारा शरीया में जद (यू) की पकड़ मजबूत बनाए रखने की नीति को हाल के दिनों में गहरा धक्का लगा है. वास्तव में शासन चाहे राजद का हो या जद (यू) का, राज्य सरकार के पास ऐसे कुछ बोर्ड या कमेटी हैं, जिनके अध्यक्ष पद पर बहाली लॉलीपॉप का काम करती है. दोनों दल अपनी सरकार में इन पदों पर ऐसे लोगों को बहाल करते हैं, जो इन्हें हर तरह की आलोचनाओं से बचाने में ढाल का काम करें. जाहिर है, ऐसे लोगों को अपनी लाल बत्ती की चिंता में कौम की चिंता तभी तक होती है, जब तक इनकी लाल बत्ती की लाली कम न होती हो. लेकिन अब वो समय नहीं रहा, जब ऐसे लोगों से अवाम प्रभावित होती थी. सत्तासीन नेतृत्व के लिए समय आ गया है कि वो लाल बत्ती से उपकृत कौम के ऐसे नेताओं के सहारे मुस्लिम वोट लेने की बात भूल जाए.

नीतीश के फैसले का उल्टा असर

महागठबंधन छोड़कर दोबारा भाजपा के साथ जाने के फैसले ने मुसलमानों के बीच नीतीश की लोक्रपियता के ग्राफ को नीचे गिरा दिया है. इसकी एक बानगी जोगबनी उपचुनाव के नतीजों में देखी जा सकती है. नीतीश कुमार के प्रवक्ता लगातार जद (यू) प्रत्याशी की जीत के दावे कर रहे थे. जदयू प्रत्याशी की जीत के लिए कई मौलानाओं की ओर से अपील भी जारी की गई. नए-नवेले एमएलसी भी मैदान में उतारे गए, लेकिन सब तैयारियां धरी की धरी रह गईं. इस उपचुनाव के नतीजे को राजद उम्मीदवार की जीत से ज्यादा नीतीश कुमार की हार के तौर पर याद रखा जाएगा.

नीतीश कुमार या इनके रणनीतिकारों ने क्या सोचकर यह फैसला लिया, यह तो किसी ने साफ तौर पर नहीं बताया, लेकिन जिस तरह इनके दल ने दीन बचाओ-देश बचाओ कार्यक्रम के खत्म होते-होते, एक अनजान से व्यक्ति को एमएलसी बनाने की घोषणा की, उसकी जबर्दस्त आलोचना होने लगी. इसे साफ तौर पर मुस्लिम समुदाय को धोखा देने और मुर्ख समझने वाला कदम माना गया. यह इस हद तक हुआ कि इमारत-ए-शरीयत के अमीर को भी तीखी आलोचना का सामना करना पड़ा था, जिन्हें बेहद श्रद्धा के साथ देखा जाता है. अमीर-ए-शरीयत हजरत मौलाना वली रहमानी पर कौम को बेचने तक का इल्जाम लगा.

मौलाना रहमानी खुद लंबे समय तक कांग्रेस के एमएलसी रह चुके हैं. आलोचकों को लगा कि नीतीश कुमार ने उनके ही इशारे पर उनके एक कथित चहेते को एमएलसी बना दिया. उनके जैसी अनुभवी और श्रद्धेय मानी जानी वाली शख्सियत को इस पूरे घटनाक्रम में जिस फजीहत का सामना करना पड़ा, वह पहले शायद ही हुआ हो. यहां तक कि उन्हें अपनी व्यक्तिगत जिंदगी को लेकर भी सवालों का सामना करना पड़ा. ऐसे हालात में इमारत-ए-शरीया ने नीतीश कुमार से दूरी बनाने की नीति अपनाई. इसी का नतीजा था कि नीतीश कुमार को इमारत के किसी कार्यक्रम प्रोग्राम में या इमारत के किसी रहनुमा को नीतीश कुमार के साथ मंच साझा करते नहीं देखा गया.

इन सारे विवादों और भाजपा से हाथ मिलाने के इल्जाम के बाद नीतीश कुमार ने मुसलमानों के बारे में या इनकी शिकायतोें के बारे में खुलकर शायद ही कुछ कहा हो. लेकिन हाल के दिनों में इनकी ओर से की गई घोषणाएं काबिल-ए-गौर हैं. लंबे समय से बिहार में उर्दू ट्रांसलेटरों की बहाली बंद थी. राज्य सरकार ने हर प्रखंड में उर्दू ट्रांसलेटरों की वेकेंसी का ऐलान किया. इसी तरह हज यात्रा पर लगने वाली जीएसटी को खत्म करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखने की घोषणा की. साथ ही इनके सिपहसालारों ने यह सुनिश्चित किया कि ये घोषणाएं अखबारों के पहले पन्ने पर जगह पाएं.

राजद की निश्चिंतता

दूसरी ओर, आरजेडी की ओर से मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए कोई विशेष पहल नहीं देखी जा रही है. शायद इन्हें इस बात पर भरोसा हो कि मुसलमान भाजपा की ओर झुक नहीं सकते और नीतीश से तो वे वैसे भी खार खाए बैठे हैं. लेकिन राजद का संकट यह है कि इसके मुखिया फिलहाल सक्रिय राजनीति में नहीं दिख सकते. जेल से बाहर रहने का उनका समय भी बहुत कम बचा है. उनके दोनों बेटों में अनबन की खबरें भी सुर्खियां बन चुकी हैं. ऐसे में इतने महत्वपूर्ण मामले में कोई ठोस फैसला इनकी प्राथमिकता में भी नहीं दिख रहा. यह सही है कि परंपरागत रूप से मुसलमानों का वोट राजद को मिलता रहा है, लेकिन मुसलमानों का युवा वर्ग अब मुखर होकर यह पूछने लगा है कि राजद के पास मुसलमानों के लिए क्या एजेंडा है.

टिकट देने की बात तो अभी दूर है, लेकिन राजद के संगठनात्मक ढांचे में इन्हें क्या रोल दिया गया है. एक अकेले अब्दुल बारी सिद्दीकी का नाम लेकर राजद इस युवा पीढ़ी को संतुष्ट कर लेगी, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है. वैसे लोग तो यह भी पूछ रहे हैं कि अब्दुल बारी सिद्दीकी को इनकी वफादारी के बदले में क्या मिल गया? दोनों सदनों में फिलहाल विपक्ष के मुखिया का पद किसके पास है? इसमें कोई शक नहीं कि मुसलमान नीतीश कुमार को लेकर शायद ही नरमी दिखाएं, लेकिन इनके एजेंडे में सुरक्षा की बात अब अकेली प्राथमिकता नहीं रही. अब वे भी राजनैतिक भागीदारी के लिए आवाज बुलंद कर रहे हैं. इसके साथ ही आर्थिक बेहतरी, रोजगार और तालीम इनके एजेंडे में टॉप पर हैं. ऐसे में मुसलमानों का मुफ्त में साथ पाने की परंपरा इस बार शायद ही चले.

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