आतंकवाद एक गंभीर समस्या है, इस बात से किसी को इंकार नहीं है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हज़ारों लोगों को भेड़-बकरियों की तरह जेलों में ठूंस दिया जाए, एक विशेष वर्ग को इसके लिए निशाना बनाया जाए, प्रतिशोध की भावना के तहत कार्यवाही की जाए और मीडिया को हथियार बनाकर देश में नफरत का माहौल पैदा किया जाए. इस पर ध्यान देना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि आज वे लोग बाइज्जत बरी हो रहे हैं, जिन्हें आतंकवाद के झूठे आरोपों में 10 या 12 वर्ष पहले गिरफ्तार किया गया था. निचली अदालतों ने जिन्हें फांसी या उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी, आज सुप्रीम कोर्ट द्वारा उन्हें सभी आरोपों से बरी किया जा रहा है. ऐसे में, सबसे बड़ा सवाल यही है कि अगर ये फर्ज़ी आतंकवादी थे, तो असली आतंकवादी कहां हैं? जिस समय ये लोग गिरफ्तार किए गए, उस समय पुलिस द्वारा बताई गई बातों पर विश्वास करते हुए मीडिया के एक बड़े हिस्से ने उन्हें लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हिजबुल मुजाहिदीन, इंडियन मुजाहिदीन और न जाने कौन-कौन से आतंकवादी संगठनों का सदस्य बताया था, लेकिन आज जब वे रिहा हो रहे हैं, तो कोई भी यह ख़बर चलाने को तैयार नहीं है. ऐसे में, चौथी दुनिया अपने पाठकों को उन पीड़ितों की दास्तां सुनाना चाहता है, जिन्हें निर्दोष होने की सज़ा मिली.
वर्ष 1975 में यश चोपड़ा के निर्देशन में बनने वाली फिल्म दीवार को ज़रा याद कीजिए, जिसमें विजय (अमिताभ बच्चन) के हाथ पर बचपन में ज़बरदस्ती लिख दिया जाता है कि मेरा बाप चोर है. इस कारण विजय को अपनी ज़िंदगी में तरह-तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है. फिल्म देखने वालों ने इसे बहुत अच्छी तरह महसूस किया. अगर ऐसा ही कुछ वास्तविक जीवन में किसी बच्चे के साथ हो, तो वह किन तकलीफ़ों और परेशानियों का सामना करेगा, उसका अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है. हमारे देश में यह कहानी बार-बार दोहराई गई और सरकारी मशीनरी के भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण हज़ारों बच्चों को ऐसा दर्द झेलने पर मजबूर किया गया. सरकार और प्रशासन में बैठे मुट्ठी भर लोगों ने पूरी मुस्लिम बिरादरी को आतंकवाद के आरोप में घसीटने और देश के बहुसंख्यक वर्ग का ज़हन ख़राब करने का प्रयास किया, लेकिन शुक्र है कि वे सफल नहीं हो सके, क्योंकि देश के बड़े वर्ग ने उनकी झूठी कहानियों पर विश्वास नहीं किया. आज उन्हीं में से कोई वकील है, कोई जज है, कोई पुलिस वाला है, जो आतंकवाद के झूठे आरोपों में फंसने वाले निर्दोष मुसलमानों की रिहाई की वजह बन रहे हैं. हैरानी की बात यह है कि उन निर्दोष मुसलमानों की रिहाई ऐसे समय में हो रही है, जब केंद्र में भाजपा की सरकार है, जिसे मुसलमान अपना दुश्मन समझते रहे हैं. दूसरी ओर एक सच्चाई यह भी है कि जिस समय उन मुसलमानों को गिरफ्तार किया जा रहा था, उस समय देश में कांग्रेस की सरकार थी, जिसे मुसलमान अपना हमदर्द समझते रहे हैं.
आइए, अब आपको कुछ फर्ज़ी आतंकवादियों की कहानी सुनाते हैं. मामला है गुजरात का, जहां 2002 के मार्च-अप्रैल महीने में गोधरा ट्रेन हादसे के बाद पूरे राज्य में सांप्रदायिक दंगे हुए और बड़ी संख्या में मुसलमानों की जान व माल की क्षति हुई. उसके लगभग पांच महीने बाद 24 सितंबर 2002 को गुजरात के ही गांधी नगर में स्थित प्रसिद्ध अक्षरधाम मंदिर पर आतंकवादी हमला हुआ था. उस दिन शाम को लगभग साढ़े चार बजे दो आतंकवादी (फिदायीन) हैंड ग्रेनेड्स और एके-56 राइफलों के साथ मंदिर के गेट नंबर 3 से अंदर दाख़िल होते हैं और वहां मौजूद बच्चों, औरतों एवं अन्य श्रद्धालुओं पर अंधाधुंध गोलियां चलाने लगते हैं. हमले की ख़बर पाते ही सीआरपीएफ़ के जवान, डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल (डीआईजी) गुजरात और दूसरे उच्च पुलिस अधिकारी एसआरपी कमांडोज़ के साथ वहां पहुंचते हैं और अतिरिक्त पुलिस बल को वहां पहुंचने का आदेश देते हैं. देर रात तक पुलिस बल और फिदायीन के बीच गोलीबारी का सिलसिला जारी रहता है. उसी दौरान रात लगभग बारह बजे नेशनल सिक्योरिटी गार्ड (एनएसजी) कमांडोज़ की एक टीम दिल्ली से वहां पहुंचती है. अगले दिन यानी 25 सितंबर, 2002 की सुबह दोनों फिदायीन मार दिए जाते हैं. उस हमले में 33 लोग, जिनमें एनएसजी कमांडोज़, स्टेट कमांडोज़ और एसआरपी गु्रप के तीन अन्य लोग भी शामिल थे, मारे गए. लगभग 23 पुलिस जवानों और अधिकारियों समेत 86 लोग गंभीर रूप से घायल हुए.
इन छह आरोपियों के बारे में एक जून, 2006 को अपना फैसला सुनाते हुए गुजरात हाईकोर्ट ने कहा था, कुछ अज्ञात विदेशी नागरिकों ने, जिनके बारे में संशय यह है कि वे सऊदी अरब और पाकिस्तान के थे, अक्षरधाम मंदिर पर हमला करने की साजिश रची थी. सऊदी अरब में रह रहे भारतीय मुसलमानों को मार्च-अप्रैल 2002 में होने वाले दंगों का बदला लेने के लिए उकसाया गया और उन्हें आतंकवादी हमले के लिए पैसा उपलब्ध कराने का विश्वास दिलाया गया.
एक नालिश (कंप्लेन) तत्कालीन एसीपी जीएल सिंघल (गवाह अभियोजन पक्ष पीडब्ल्यू-126) की ओर से 24 सितंबर, 2002 को गांधी नगर सेक्टर 21 के पुलिस स्टेशन में दर्ज कराई गई. एनएसजी कमांडोज़ द्वारा मंदिर परिसर को राज्य पुलिस के हवाले करने के बाद प्राथमिकी सीआर नंबर 314/2002 दिनांक 29/09/2009 को गवाह अभियोजन पक्ष नंबर 126 की ओर से भारतीय दंड संहिता 302, 307, 153-ए, 451, 120 बी के तहत दर्ज कराई गई. उक्त रिपोर्ट 20 से 25 वर्षीय अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ दर्ज की गई और गांधी नगर लोकल क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर वीआर तौलिया (पीडब्ल्यू-119) को जांच की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. उनके नेतृत्व में कुछ दिनों तक जांच प्रक्रिया चलती रही. उसके बाद डीजीपी (गुजरात) की ओर से आतंकवाद विरोधी दस्ते (एटीएस) को आदेश दिया गया कि वह इस केस की जांच करे, लेकिन लगभग 11 महीने तक भागदौड़ करने के बाद भी एटीएस यह पता लगाने में नाकाम रही कि कौन-कौन
लोग इस साजिश में शामिल थे और हमले में मारे गए फिदायीन मंदिर तक किसकी सहायता से पहुंचे और इसके अलावा किन-किन अपराधों को अंजाम दिया. लिहाज़ा, एटीएस के डीजीपी केके पटेल के निर्देश पर 28 अगस्त, 2003 को इस केस की जांच की ज़िम्मेदारी क्राइम ब्रांच के तत्कालीन एसीपी जीएल सिंघल (जो स्वयं इस केस के गवाह नंबर 126 थे और जिन्होंने इस मामले में पहली एफआईआर दर्ज कराई थी) को सौंपी गई.
यहीं से शुरू होती है, झूठे आतंकवादियों को गिरफ्तार करने की कहानी. कमाल की बात यह है कि जिस साजिश का पता लगाने में गुजरात एटीएस और दूसरे पुलिस अधिकारी 11 महीने तक हाथ-पैर चलाने के बावजूद नाकाम रहे, उसका पता क्राइम ब्रांच के एसीपी जीएल सिंघल ने एक दिन में ही लगा लिया और अगले ही दिन यानी 29 अगस्त, 2003 को अक्षरधाम मंदिर में फिदायीन की मदद करने वाले छह आरोपियों को गिरफ्तार करने का दावा करते हुए उन्हें न केवल गांधी नगर के ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के सामने हाजिर कर दिया, बल्कि सभी आरोपियों को मीडिया के सामने भी पेश किया. अब आइए देखते हैं कि वे छह झूठे आतंकवादी कौन थे और उन पर क्या-क्या आरोप लगाए गए थे?
आरोपी नंबर-1 अल्ताफ़ मलिक पर आरोप लगाया गया कि उसने उन भारतीय मुसलमानों को एकत्र किया, जो सऊदी अरब गए हुए थे, प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के साथ संबंध स्थापित किए और जैश-ए-मोहम्मद से पैसा जुटाया. उसके बाद पोटा की धारा 22 (1) के तहत अल्ताफ़ मलिक को दोषी करार देते हुए उसे पांच वर्ष सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई गई.
आरोपी नंबर-2 आदम भाई अजमेरी पर आरोप लगाया गया कि उसने स्थानीय लोगों की सहायता से शहर का जायज़ा लिया और (अक्षरधाम मंदिर पर हमला करने वाले) फिदायीन के ठहरने आदि की जानकारी के लिए बात की, इस केस के अन्य दो आरोपियों से फिदायीन की मुलाक़ात कराई, हवाला द्वारा पैसा मंगाया, दोनों फिदायीन को रेलवे स्टेशन से लिया और उन्हें शरण दी. ऑटो रिक्शा द्वारा फिदायीन को शहर में लेकर घूमा और वे सारे स्थान दिखाए, जहां पर हमला किया जा सकता था तथा फिर रात में अपने भाई के घर पर फिदायीन के ठहरने की व्यवस्था की. हमले के समय अक्षरधाम पर मौजूद रहा और गोलीबारी शुरू होने के समय तक वहां सक्रिय था. उसे भी पोटा अदालत ने दोषी करार देते हुए फांसी की सज़ा सुनाई.
आरोपी नंबर-3 मोहम्मद सलीम हनीफ़ शेख़ पर आरोप लगाया गया कि उसने सऊदी अरब में काम कर रहे कुछ भारतीय मुसलमानों को अपने घर पर एकत्र किया और उन्हें उकसाने वाले वीडियो दिखाए. वह प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा का सदस्य है और उसने उक्त संगठनों से पैसा जुटाया. उसने भारत की अखंडता एवं संप्रभुता को ख़तरे में डालने के इरादे से भड़काऊ भाषण दिए. पोटा की विशेष अदालत ने उसे उम्रकैद (मृत्यु तक) की सज़ा सुनाई.
जस्टिस एके पटनायक एवं जस्टिस वी गोपाल गोडा की सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ ने 16 मई, 2014 को अक्षरधाम मामले में अपना ़फैसला सुनाते हुए क्या कहा था. अदालत ने कहा था कि ़फैसला सुनाने से पहले, देश की अखंडता एवं सुरक्षा को ख़तरे में डाल देने वाले इतने गंभीर मामले की जांच में एजेंसियों ने जिस अक्षमता का सुबूत दिया है, हम उस पर अपनी नाराज़गी का इज़हार करना भी आवश्यक समझते हैं.
आरोपी नंबर 4 अब्दुल कय्यूम मुफ्ती साहब मोहम्मद भाई पर आरोप लगाया गया कि उसने फिदायीन को शरण दी, उर्दू में दो पत्र लिखे, जो अक्षरधाम हमले में मारे गए फिदायीन की जेब से पाए गए. उन पत्रों में दंगे भड़काने और सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने की बात थी. लिहाज़ा पोटा अदालत ने मुफ्ती अब्दुल कय्यूम को भी दोषी करार देते हुए फांसी की सज़ा सुनाई.
आरोपी नंबर 5 अब्दुल्लाह मियां यासीन मियां को जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा का सदस्य बताते हुए उस पर आरोप लगाया गया कि उसने फिदायीन को अपने यहां शरण दी और एंबेसडर कार में बैठाकर अक्षरधाम मंदिर तक छोड़ा. लिहाज़ा, पोटा की धारा (3) 3 के तहत उसे उम्रकैद की सज़ा दी गई.
आरोपी नंबर 6 चांद ख़ान के बारे में कहा गया कि वह मरने वाले आतंकवादियों (फिदायीन) से मिला, एक एंबेसडर कार 40 हज़ार रुपये में ख़रीदी और विस्फोटक सामग्री एवं हथियार रखने के लिए एक ख़ुफिया घर बनाया. बरेली से विस्फोटक सामग्री लेकर अहमदाबाद आया, फिदायीन को ऑटो रिक्शा में घुमाया और हथियार लाने-ले जाने में मदद की. विशेष पोटा अदालत ने उसे भी दोषी करार देते हुए मृत्यु दंड दिया.
गुजरात की विशेष अदालत (पोटा) ने अक्षरधाम हमले से संबंधित पोटा केस नंबर 16/2003 की सुनावाई पूरी करते हुए ये तमाम निर्णय एक जुलाई, 2006 को सुनाए. उसके बाद सभी आरोपियों ने पोटा अदालत के ़फैसले को चुनौती देते हुए 31 जुलाई, 2006 को गुजरात हाईकोर्ट में अपील (नंबर 1328/2006 और 1675/2006) दायर की. गुजरात हाई कोर्ट ने चार वर्षों के बाद इन दोनों अपीलों से संबंधित फौजदारी केस नंबर 02/2006 के तहत एक जून, 2010 को अपना फैसला सुनाते हुए पोटा अदालत द्वारा दी गई सभी सज़ाओं को बरकरार रखा.
उसके बाद आरोपी नंबर 1 यानी अल्ताफ़ मलिक को छोड़कर शेष पांच आरोपियों ने छह अगस्त, 2010 को उच्चतम न्यायालय में एक विशेष अर्ज़ी लगाई और स्वयं को गुजरात की अदालतों द्वारा दोषी करार दिए जाने के निर्णय और सज़ाओं का संशोधन करने की अपील की. सुप्रीम कोर्ट में उसकी सुनवाई लगभग 4 वर्षों तक चली, जिसके बाद 16 मई, 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी लोगों को सभी आरोपों से बाइज्जत बरी कर दिया.
इन छह आरोपियों के बारे में एक जून, 2006 को अपना फैसला सुनाते हुए गुजरात हाईकोर्ट ने कहा था, कुछ अज्ञात विदेशी नागरिकों ने, जिनके बारे में संशय यह है कि वे सऊदी अरब और पाकिस्तान के थे, अक्षरधाम मंदिर पर हमला करने की साजिश रची थी. सऊदी अरब में रह रहे भारतीय मुसलमानों को मार्च-अप्रैल 2002 में होने वाले दंगों का बदला लेने के लिए उकसाया गया और उन्हें आतंकवादी हमले के लिए पैसा उपलब्ध कराने का विश्वास दिलाया गया. उपरोक्त मास्टर माइंड (आरोपी नंबर 6-चांद ख़ान) ने ट्रेन द्वारा कश्मीर से बरेली होते हुए अहमदाबाद का सफर किया, फिदायीन की भर्ती की. उन्हें राइफल्स, हैंड ग्रेनेड्स, बारूद और अन्य हथियार उपलब्ध कराए. उपरोक्त आरोपियों ने अहमदाबाद में ख़ुफिया स्थान की व्यवस्था करने में उनकी मदद की और अहमदाबाद के आसपास आने-जाने के लिए सवारी की भी व्यवस्था की. यहां तक कि हमला करने के लिए समय और जगह के चयन में भी मदद की. आरोपियों ने फिदायीन की सुरक्षा के मददेनज़र उन्हें नमाज़ पढ़ने का अंतिम अवसर भी उपलब्ध कराया.
यहां पर इस बात का जिक्र करना आवश्यक है कि गुजरात पुलिस ने जिस व्यक्ति को आरोपी नंबर 4 बनाया था यानी मुफ्ती अब्दुल कय्यूम, जिन्हें पोटा अदालत द्वारा फांसी की सज़ा सुनाई गई थी और फिर गुजरात हाईकोर्ट ने भी उस सज़ा को बरक़रार रखा था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया. उन्होंने 11 वर्ष सलाख़ों के पीछे शीर्षक से एक किताब लिखी है, जिसे जमीअत उलेमा हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने आठ मई, 2015 को दिल्ली के इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में मीडिया के सामने रिलीज किया. इस किताब में मुफ्ती अब्दुल कय्यूम ने सारी बातें विवरण सहित लिखी हैं कि कैसे क्राइम ब्रांच के एसीपी जीएल सिंघल ने 17 अगस्त, 2003 को अहमदाबाद से उन्हें अगवा किया, फिर मारपीट करने और एन्काउंटर का ड्रामा करके उनसे जबरन इक़बालिया बयान लेकर इस केस में फंसाया. साथ ही क्राइम ब्रांच वालों ने किस प्रकार उन दो पत्रों की नक़ल मुफ्ती अब्दुल कय्यूम से कराई, जिनके बारे में अदालत को बताया गया कि ये अक्षरधाम हमले में मारे गए फिदायीन की जेब से मिले थे. आश्चर्य की बात तो यह है कि फिदायीन के जो कपड़े अदालत में पेश किए गए, वे ख़ून से लथपथ थे, लेकिन जेब से मिले दोनों पत्रों पर ख़ून का एक भी धब्बा नहीं था.
अब आइए देखते हैं कि जस्टिस एके पटनायक एवं जस्टिस वी गोपाल गोडा की सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ ने 16 मई, 2014 को अक्षरधाम मामले में अपना ़फैसला सुनाते हुए क्या कहा था. अदालत ने कहा था कि फैसला सुनाने से पहले, देश की अखंडता एवं सुरक्षा को ख़तरे में डाल देने वाले इतने गंभीर मामले की जांच में एजेंसियों ने जिस अक्षमता का सुबूत दिया है, हम उस पर अपनी नाराज़गी का इज़हार करना भी आवश्यक समझते हैं. इतनी अमूल्य ज़िंदगियों को मौत के घाट उतार देने वाले वास्तविक दोषियों को पकड़ने के बजाय पुलिस ने निर्दोष लोगों को पकड़ लिया और उन पर गंभीर आरोप लगा दिए, जिसके नतीजे में उन्हें आरोपी करार देकर कड़ी सज़ाओं का पात्र बना दिया गया. लिहाज़ा, हम विशेष पोटा अदालत के 2003 के मुक़दमा नंबर 16, दिनांक 01-07-2006 के फैसले और आदेश को ख़ारिज करते हैं और अहमदाबाद स्थित हाईकोर्ट ऑफ गुजरात के दिनांक 01-06-2010 को दिए गए उन ़फैसलों और
आदेशों को ख़ारिज करते हैं, जो 2006 के क्रिमिनल कंफरमेशन केस नंबर 2, 2006 की क्रिमिनल अपील नंबर 1675 और 2006 की आपराधिक अपील नंबर 1328 के बाबत हैं. लिहाज़ा, हम सभी अपीलकर्ताओं को उन पर लगाए गए सभी आरोपों से बाइज्जत बरी करते हैं.
इस ़फैसले के आने के बाद सबसे बड़ा सवाल यही है कि अगर ये फर्ज़ी आतंकवादी थे, तो असली आतंकवादी कहां हैं? क्या यह हमारे देश की निचली अदालतों, केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के लिए सोचने का विषय नहीं है कि सिस्टम में कहां चूक हो रही है, जिसके कारण असली आतंकवादियों की जगह फर्ज़ी आतंकवादी गिरफ्तार किए जा रहे हैं? अगर असली आतंकवादी अब भी ज़िंदा हैं और हमारे देश के ख़िलाफ़ षड्यंत्र कर रहे हैं, तो क्या यह हम सबके लिए ख़तरे की घंटी नहीं है? आख़िर उन्हें कब पकड़ा जाएगा? अपनी अक्षमता छिपाने के लिए पुलिस और इंटेलिजेंस के लोग कब तक चोर-पुलिस का खेल खेलते रहेंगे? उनकी जवाबदेही आख़िर कब तय होगी? जब हम उन फर्ज़ी आतंकवादियों की असली कहानी सुनते हैं, तो विश्वास नहीं होता कि हमारा सिस्टम इतना बेरहम भी हो सकता है. अंग्रेज़ों ने पुलिस से भारतीयों को डराने और उनके ऊपर अत्याचार करने का काम लिया था, लेकिन अब तो हमारा देश आज़ाद है, हम एक लोकतांत्रिक देश हैं, तो फिर पुलिस अपने ही नागरिकों पर इतने अत्याचार क्यों कर रही है?
शिवराज पाटिल की भूमिका
चौथी दुनिया से फोन पर एक लंबी बातचीत के दौरान जमीअत उलेमा हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने बताया कि शिवराज पाटिल ने अपने दौर में साबित करना चाहा कि धार्मिक दृष्टिकोण से मुसलमान आतंकवादी हैं. हो सकता है कि इससे पहले भी लोग आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार किए गए हों, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर यह साबित करना कि मुसलमान आतंकवादी हैं, इसकी शुरुआत शिवराज पाटिल के ज़माने से हुई. मैंने यह बात सोनिया गांधी को भी लिखकर भेजी थी कि आपके गृहमंत्री ने ऐसी जगह पर लाकर खड़ा कर दिया है, जिससे लगता है कि पूरी मुस्लिम बिरादरी आतंकवादी है, तो उन्होंने मुझे जवाब दिया कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की सोच ऐसी नहीं है. जहां कहीं भी बम धमाका होता था, बिना किसी जांच के तुरंत ही गृह मंत्रालय से घोषणा हो जाती थी कि लश्कर-ए-तैयबा वालों ने यह सब किया है, हुजी (हिजबुल मुजाहिदीन) वालों का काम है और फिर उसके बाद मुसलमानों की धरपकड़ शुरू हो जाती थी. जितने लोग इस समय जेलों में बंद हैं, उनमें ज़्यादातर संख्या उन लोगों की है, जो शिवराज पाटिल के गृहमंत्री रहते हुए गिरफ्तार किए गए थे.
शिवराज पाटिल पर यह आरोप इसलिए भी सही लगता है, क्योंकि 2004 से 2008 के बीच, जब वह देश के गृहमंत्री थे, तो आतंकवाद की अनगिनत घटनाएं सामने आईं और जांच की दिशा स़िर्फ और स़िर्फ मुसलमानों की ओर मोड़ दी गई. चाहे वह 2004 का गेटवे ऑफ इंडिया (मुंबई) धमाका हो, 2006 का मुंबई लोकल ट्रेनों में सीरियल ब्लास्ट हो, 2006 का ही मालेगांव बम ब्लास्ट हो, 2006 का औरंगाबाद असलहा ज़ब्ती का मामला हो, 2007 में पश्चिमी बंगाल की विभिन्न आतंकवादी घटनाओं में मुसलमानों की गिरफ्तारियों का मामला हो, 2008 में उत्तर प्रदेश के रामपुर में सीआरपीर्ऐं कैंप पर हमले का मामला हो, 2008 में ही दिल्ली के सरोजनी नगर, लाजपत नगर एवं अन्य जगहों पर होने वाले बम धमाके हों या फिर बटला हाउस एन्काउंटर का मामला हो, ये सारी घटनाएं देश में उसी समय हुई थीं, जब केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी और शिवराज पाटिल गृहमंत्री थे.
राहुल गांधी चाहते, तो समस्या हल हो जाती
2006 में जब मौलाना अरशद मदनी जमीअत उलेमा हिंद के अध्यक्ष चुने गए, तो आतंकवाद के आरोपों में गिरफ्तार किए गए मुस्लिम युवकों के कुछ रिश्तेदारों ने उनसे मुलाकात करके इस ओर उनका ध्यान दिलाया. यह वह ज़माना था, जब बड़ी संख्या में मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया जा रहा था. जमीअत उलेमा हिंद ने महसूस किया कि पहले सांप्रदायिक दंगे में लोगों के घर जला दिए जाते थे, कुछ लोगों को मार दिया दिया जाता था, लेकिन कुछ दिनों के बाद लोग मरने वालों को भूल जाते थे और दु:ख कम हो जाता था. पर अब जिस तरह और जितनी संख्या में मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया जा रहा है, उससे ऐसा लगता है कि पूरी बिरादरी को आतंकवादी साबित करने का प्रयास किया जा रहा है. अपनी इसी चिंता के चलते जमीअत उलेमा हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने उस समय मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, पी. चिदंबरम, अहमद पटेल और के रहमान ख़ान जैसे कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से मुलाका़त की, लेकिन कोई हल नहीं निकल सका.
उसके बाद 2009 में राजस्थान के गोपालगढ़ में हुए सांप्रदायिक दंगे के समय मौलाना अरशद मदनी की मुलाक़ात राहुल गांधी से हुई. उल्लेखनीय है कि उस समय राजस्थान में कांग्रेस की सरकार थी और अशोक गहलोत मुख्यमंत्री थे. मौलाना ने राहुल गांधी से उस दंगे के संबंध में कहा कि मुसलमानों पर इतने अत्याचार हुए हैं, आपको इसकी सीबीआई जांच करानी चाहिए. राहुल गांधी ने उस समय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से फोन पर बात की, जिस पर उन्होंने गोपालगढ़ मामले की सीबीआई जांच कराने की घोषणा कर दी. 2011 में मौलाना अरशद मदनी ने दोबारा राहुल गांधी से दिल्ली में उनके आवास पर मुलाकात की और आतंकवाद के नाम पर देश भर में हो रही मुसलमानों की गिरफ्तारियों पर उनके सामने अपनी चिंता व्यक्त की. इस पर राहुल गांधी ने मौलाना से पूछा कि क्या आपके पास कोई लिस्ट है, जिससे यह पता चल सके कि कितने मुसलमान आतंकवाद के आरोप में अब तक गिरफ्तार किए जा चुके हैं?
मौलाना ने कहा कि हमारे पास उन लोगों की सूची तो है, जिनके म़ुकदमे जमीअत उलेमा हिंद लड़ रही है, पूरे भारत की सूची नहीं है. यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि जो सूची सरकार (उस समय कांग्रेस) के पास होनी चाहिए थी, वह सूची राहुल गांधी मौलाना अरशद मदनी से मांग रहे थे. ख़ैर, मौलाना ने राहुल गांधी से कहा कि वह एक सप्ताह या दस दिनों के अंदर सूची उन्हें ज़रूर दे देंगे. वहां से वापस आने के बाद मौलाना ने कई मुस्लिम संगठनों और जेलों में बंद निर्दोषों के मुक़दमे लड़ने का दावा करने वाले विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओज़) से संपर्क किया और उनसे निवेदन किया कि अगर उनके पास आतंकवाद के आरोप में बंद किसी भी व्यक्ति के बारे में कोई जानकारी है, तो वे उन्हें मुहैया कराएं. लेकिन अ़फसोस! किसी ने भी ऐसा कोई विवरण जमीअत उलेमा हिंद को उपलब्ध नहीं कराया.
अंत में विवश होकर जमीअत उलेमा हिंद ने अपने कार्यालय में एक बैठक बुलाकर यह निर्णय लिया कि उर्दू अख़बारों में विज्ञापन प्रकाशित कराकर आतंकवाद के आरोप में फंसे लोगों की जानकारी इकट्ठा की जाए. यह विज्ञापन कुछ हिंदी अख़बारों में भी प्रकाशित हुआ, जिस पर जमीअत उलेमा हिंद के लगभग 15 लाख रुपये ख़र्च हुए. उसका नतीजा यह हुआ कि लगभग 15 दिनों के अंदर ही जमीअत उलेमा हिंद के पास ऐसे एक हज़ार से अधिक लोगों की सूची नाम, पता, मोबाइल नंबर, वकील का नाम एवं अन्य विवरण के साथ तैयार हो गई. इस सूची में एक नाम ऐसा भी था, जो पिछले 18 वर्षों से जेल के अंदर बंद था और अब भी है. मामला अदालत के सामने विचाराधीन होने के कारण हम उसका नाम ज़ाहिर नहीं कर सकते. इसी तरह कुछ लोग पिछले 15 वर्षों, 12 वर्षों, 10 वर्षों और पांच वर्षों से आतंकवाद के आरोप में जेलों में बंद थे. दो-तीन वर्ष पहले गिरफ्तार हुए लोगों की संख्या तो सबसे अधिक थी.
ख़ैर, उसके बाद मौलाना अरशद मदनी उस सूची को लेकर एक बार फिर राहुल गांधी के पास गए. राहुल गांधी ने सूची देखकर काफी हैरानी जताई कि जो काम गृह मंत्रालय नहीं कर सका, उसे आपने कैसे अंजाम दिया? बहरहाल, राहुल गांधी ने तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह से फोन पर बात करके उन्हें उस सूची से संबंधित जानकारी दी. जितेंद्र सिंह ने उस समय मौलाना अरशद मदनी से अपने कार्यालय में इंटेलिजेंस ब्यूरो एवं अन्य जांच एजेंसियों के अधिकारियों की उपस्थिति में बातचीत की. उक्त सभी अधिकारियों ने मौलाना अरशद मदनी से पूछा कि आपकी नज़र में इसका हल क्या है? जवाब में मौलाना अरशद मदनी ने दो महत्वपूर्ण हल बताए. पहली बात तो उन्होंने यह कही कि आतंकवाद जैसे गंभीर मामले में भारतीय मुसलमानों की किस्मत का ़फैसला करने का पूर्ण अधिकार पुलिस को न दिया जाए, बल्कि केंद्रीय स्तर पर एक ऐसी समिति गठित की जाए, जिसमें साफ़-सुथरी छवि के क़ानूनविद्, सेवानिवृत्त जज एवं अन्य प्रसिद्ध हस्तियां शामिल हों. आतंकवाद के आरोप में जब भी पुलिस किसी को गिरफ्तार करे, तो उसके ख़िलाफ़ एकत्र किए गए सभी सुबूतों और अन्य विवरण पर आधारित फाइल वह पहले इस समिति को भेजे. फिर समिति उस फाइल का अध्ययन करने के बाद, अगर उसमें सच्चाई है, तो गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के ख़िलाफ़ आगे की क़ानूनी कार्यवाही जारी रखने की अनुमति दे, वरना पुलिस को केस आगे बढ़ाने से मना कर दे.
दूसरा हल मौलाना अरशद मदनी ने गृह मंत्रालय के उन अधिकारियों को यह बताया कि आम तौर पर ऐसा देखा जाता है कि जब भी किसी को आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है, तो पुलिस उसके ख़िलाफ़ सैकड़ों की संख्या में फर्ज़ी गवाहों के नाम दे देती है और जब अदालत में उन्हें पेश करने का समय आता है, तो पुलिस कोई न कोई बहाना कर देती है. इस प्रकार गवाह के हाज़िर न होने की वजह से तारीख़ पर तारीख़ पड़ती रहती है और फैसला आने में काफी देर हो जाती है. मौलाना ने उन अधिकारियों से कहा कि एक वर्ष, दो वर्ष या फिर तीन वर्ष की अवधि तय की जाए और फिर पुलिस से कहा जाए कि वह इस अवधि के अंदर सभी गवाहों को अदालत में पेश करे. अगर पुलिस तय अवधि के अंदर गवाहों को अदालत में पेश करने में नाकाम रहती है, तो आरोपी को उसका फ़ायदा देते हुए ज़मानत पर रिहा कर दिया जाए, भले ही उसके ख़िलाफ़ मुक़दमे की सुनवाई अदालतों में ज़िंदगी भर चलती रहे.
तीसरा मशविरा उन्होंने ऐसे मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में कराने का दिया, ताकि आतंकवाद से संबंधित मामलों का निबटारा शीघ्र से शीघ्र हो सके. जो लोग दोषी पाए जाएं, उन्हें उम्रकैद या फांसी हो सके और जो निर्दोष हों, उन्हें शीघ्र से शीघ्र रिहा किया जा सके. इस पर राहुल गांधी ने कहा कि हर राज्य में चूंकि कांग्रेस पार्टी सत्ता में नहीं है, इसलिए फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन संभव नहीं है. इसके जवाब में मौलाना ने उनसे कहा कि कांग्रेस इसकी शुरुआत उन राज्यों से तो कर ही सकती है, जहां पर उसकी सरकार है. लेकिन, उसके कुछ दिनों के बाद ही जितेंद्र सिंह को खेल मंत्रालय भेज दिया गया. राहुल गांधी या कांग्रेस अगर मुसलमानों को लेकर वाकई गंभीर होते, तो वह इस संबंध में कोई अच्छी पहल कर सकते थे, क्योंकि उस समय केंद्र में उनकी सरकार थी. लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया. मौलाना अरशद मदनी ने उसके बाद यही सारी बातें पत्र द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी कहीं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एवं तत्कालीन अल्पसंख्यक मंत्री के रहमान ख़ान से भी कहीं और सबने उन्हें इन मशविरों पर गंभीरता से विचार करने का आश्वासन दिया, लेकिन व्यवहारिक रूप से किया कुछ भी नहीं.
आरोप जो साबित नहीं हुए
आरोपी नंबर-1 : अल्ताफ़ मलिक पर आरोप लगाया गया कि उसने उन भारतीय मुसलमानों को एकत्र किया, जो सऊदी अरब गए हुए थे, प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के साथ संबंध स्थापित किए और जैश-ए-मोहम्मद से पैसा जुटाया. उसके बाद पोटा की धारा 22 (1) के तहत अल्ताफ़ मलिक को दोषी करार देते हुए उसे पांच वर्ष सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई गई.
आरोपी नंबर-2 : आदम भाई अजमेरी पर आरोप लगाया गया कि उसने स्थानीय लोगों की सहायता से शहर का जायज़ा लिया और (अक्षरधाम मंदिर पर हमला करने वाले) फिदायीन के ठहरने आदि की जानकारी के लिए बात की, इस केस के अन्य दो आरोपियों से फिदायीन की मुलाक़ात कराई, हवाला द्वारा पैसा मंगाया, दोनों फिदायीन को रेलवे स्टेशन से लिया और उन्हें शरण दी. ऑटो रिक्शा द्वारा फिदायीन को शहर में लेकर घूमा और वे सारे स्थान दिखाए, जहां पर हमला किया जा सकता था तथा फिर रात में अपने भाई के घर पर फिदायीन के ठहरने की व्यवस्था की. हमले के समय अक्षरधाम पर मौजूद रहा और गोलीबारी शुरू होने के समय तक वहां सक्रिय था. उसे भी पोटा अदालत ने दोषी करार देते हुए फांसी की सज़ा सुनाई.
आरोपी नंबर-3 : मोहम्मद सलीम हनीफ़ शेख़ पर आरोप लगाया गया कि उसने सऊदी अरब में काम कर रहे कुछ भारतीय मुसलमानों को अपने घर पर एकत्र किया और उन्हें उकसाने वाले वीडियो दिखाए. वह प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा का सदस्य है और उसने उक्त संगठनों से पैसा जुटाया. उसने भारत की अखंडता एवं संप्रभुता को ख़तरे में डालने के इरादे से भड़काऊ भाषण दिए. पोटा की विशेष अदालत ने उसे उम्रकैद (मृत्यु तक) की सज़ा सुनाई.
आरोपी नंबर-4 : अब्दुल कय्यूम मुफ्ती साहब मोहम्मद भाई पर आरोप लगाया गया कि उसने फिदायीन को शरण दी, उर्दू में दो पत्र लिखे, जो अक्षरधाम हमले में मारे गए फिदायीन की जेब से पाए गए. उन पत्रों में दंगे भड़काने और सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने की बात थी. लिहाज़ा पोटा अदालत ने मुफ्ती अब्दुल कय्यूम को भी दोषी करार देते हुए फांसी की सज़ा सुनाई.
आरोपी नंबर-5 : आरोपी नंबर 5 अब्दुल्लाह मियां यासीन मियां को जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा का सदस्य बताते हुए उस पर आरोप लगाया गया कि उसने फिदायीन को अपने यहां शरण दी और एंबेसडर कार में बैठाकर अक्षरधाम मंदिर तक छोड़ा. लिहाज़ा, पोटा की धारा (3) 3 के तहत उसे उम्रकैद की सज़ा दी गई.
आरोपी नंबर-6 : चांद ख़ान के बारे में कहा गया कि वह मरने वाले आतंकवादियों (फिदायीन) से मिला, एक एंबेसडर कार 40 हज़ार रुपये में ख़रीदी और विस्फोटक सामग्री एवं हथियार रखने के लिए एक ख़ुफिया घर बनाया. बरेली से विस्फोटक सामग्री लेकर अहमदाबाद आया, फिदायीन को ऑटो रिक्शा में घुमाया और हथियार लाने-ले जाने में मदद की. विशेष पोटा अदालत ने उसे भी दोषी करार देते हुए मृत्यु दंड दिया.