Santosh-Sirभारतीय जनता पार्टी देश में प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी को उम्मीदवार बनाकर जितने भी समाज के हिस्से हो सकते हैं, उन्हें जीतने की कोशिश में लगी है, लेकिन मजे की बात यह है कि इस काम में भारतीय जनता पार्टी कोई कोशिश स्वयं करती नहीं दिखाई दे रही है. ये सारी कोशिशें नरेंद्र मोदी के लिए स्वयं नरेंद्र मोदी कर रहे हैं. उन्होंने अपनी सरकार के सर्वश्रेष्ठ दिमाग को अपने चुनाव के काम में लगा दिया है और जो भी संभव हो सकता है, उसे वह चुनावी समर में मदद के लिए तलाश भी रहे हैं और पुकार भी रहे हैं. अब कोई क्या करे, जब लोगों को नरेंद्र मोदी के चेहरे या नरेंद्र मोदी के शरीर की भाषा में एक सख्त और अहंकारी व्यक्तित्व नज़र आता है. सार्वजनिक रूप से नरेंद्र मोदी कम मुस्कुराते हैं और अकेले में खुलकर ज़्यादा हंसते हैं.
नरेंद्र मोदी की इस समय सबसे बड़ी चिंता देश के मुसलमान हैं. पारंपरिक तौर पर मुसलमानों के मन में यह भावना घर कर गई है कि नरेंद्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों के शत्रु हैं. नरेंद्र मोदी से पहले भी भारतीय जनता पार्टी के साथ बड़े पैमाने पर मुसलमान कभी नहीं दिखाई दिए. भारतीय जनता पार्टी ने जनसंघ के दिनों में और जनसंघ के बाद जब जनता पार्टी बनी और उसके बाद जब भारतीय जनता पार्टी जनता पार्टी से टूटकर बनी, यानी हर दौर में किसी न किसी मुस्लिम चेहरे को आगे रखा है, लेकिन वह मुस्लिम चेहरा कभी मुसलमानों को अपने साथ ले नहीं पाया. मुसलमानों ने उसे मुसलमानों के बीच भारतीय जनता पार्टी के दलाल के रूप में देखा.
लेकिन इस बार भारतीय जनता पार्टी ने मुसलमानों को जीतने की मुहिम छेड़ रखी है. उसने मुसलमानों के नेताओं के एक वर्ग को जी-जान से लुभाने की कोशिश की है और उस कोशिश में मुसलमानों के काफी सारे नेता नरेंद्र मोदी के प्रति नरम दिखाई दे रहे हैं. नरेंद्र मोदी का साथ देने का कई बड़े मुस्लिम नेताओं ने वादा किया है, जिनमें महमूद मदनी और यूसुफ कछौछवी के नाम शामिल हैं.ये सारे लोग पहले तो शर्त रखते रहे कि नरेंद्र मोदी अगर मुसलमानों से माफी मांगें, तो मुसलमान उनके बारे में सोच सकते हैं. यहां तक कि मुसलमानों के एक बड़े संगठन जमाते इस्लामी ने भी अपने कई वक्तव्यों में जिक्र किया है.
मुसलमानों के भीतर दो वर्ग बनते जा रहे हैं, एक तो पुरानी पीढ़ी का है, जो 50-60 साल से ऊपर के हैं और जिन्हें भारतीय जनता पार्टी मानसिक रूप से विक्षिप्त दिखाई दे रही है, जो महात्मा गांधी की हत्या और विभाजन के बाद देश में मुसलमानों के हितों की ख़िलाफ़त करती रही है. आज़ादी से पहले जो दंगे हुए, उनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हाथ नज़र आया. आज़ादी के बाद भी जितने दंगे हुए, उनमें भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हाथ मुसलमानों को दिखाई दिया. इसीलिए मुसलमान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए हर संगठन को काफी संशय की नज़र से देखते रहे हैं. दूसरी तरफ़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी भारतीय जनता पार्टी में सकारात्मक परिवर्तन दिखाई दिए. जनसंघ के दिनों तक मुसलमानों एवं हिंदुओं के बीच में ध्रुवीकरण कराने की कोशिश कर जीतने की कोशिश करने वाला पुराना चेहरा अब नए चेहरे और नई भाषा के साथ मुसलमानों से संवाद करने की जुगत में बैठा है. सबसे पहले उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार एवं राज्यसभा सदस्य रहे शाहिद सिद्दीकी ने स़िर्फ इंटरव्यू लिया और मुसलमानों ने उन्हें अपने बीच मोदी का समर्थक मान लिया. समाजवादी पार्टी से उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा. वही मुस्लिम समाज अब नरेंद्र मोदी को स्वीकार करने में आगे बढ़ता दिखाई दे रहा है.
सवाल यह है कि क्या राजनीति और दूरी इतनी बढ़नी चाहिए कि संवाद ही न हो सके. मुस्लिम समाज को अपने सवालों को लेकर देश के सभी राजनीतिक दलों से संवाद करना चाहिए. इसमें भारतीय जनता पार्टी या उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं. अगर मुसलमान नरेंद्र मोदी के सामने अपने सवाल रखते हैं, अपनी चिंताएं रखते हैं और उनसे यह मांग करते हैं कि वह उनके समाज को रोजी-रोटी के लिए विशेष कार्यक्रम की घोषणा करें और उन्हें यह एहसास दिलाएं कि वे भारत में दोयम दर्जे के रूप में नहीं देखे जाएंगे, तो यह परंपरागत सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की बहस को तो चोट पहुंचाएगी, लेकिन मुसलमानों के लिए हित में होगी. हिंदुस्तान में आर्थिक रूप से कमजोर हर तबके को अपनी स्थिति सुधारने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है.
यह अफ़सोस की बात है कि मुसलमानों के बीच राजनीतिक रूप से इतने बंटवारे हो चुके हैं कि उनकी ताकत काफी कम होती दिखाई दे रही है. अगर मुसलमानों की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की संख्या ही देखें, तो पाएंगे कि नाम के लिए ये संख्या हैं, लेकिन कोई भी इन्हें वोट नहीं देता. शायद मुसलमानों के हित में इन पार्टियों का बनना घोषित रूप से तो सही है, पर ये राजनीतिक दल मुसलमानों के सवाल ग़ैर-मुसलमानों को नहीं समझा पा रहे हैं और चूंकि जब तक मुसलमानों को ग़ैर-मुस्लिम वोट नहीं देते, तब तक मुसलमानों की ताकत राजनीतिक रूप से कमजोर होती नज़र आएगी.
दूसरी विडंबना यह है कि मुसलमानों के भीतर कोई ऐसी शख्सियत है ही नहीं, जो मुसलमानों को बैठाकर, उन्हें उनके बुनियादी सवालों पर एकजुट कर सके. परस्पर संदेह, अविश्‍वास, ईर्ष्या और जलन आदि ही मुसलमानों की ताकत को कभी बनने नहीं दे रहे हैं. इसीलिए यह मानना कि मुसलमान राजनीतिक तौर पर अपने लिए देश में कुछ हासिल कर पाएगा, हाल-फिलहाल तो संभव नहीं दिखाई देता. बल्कि स्थिति तो यह आ रही है कि हर चुनाव में राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों से वोट लेने के लिए वादे करती हैं और बाद में उन वादों को पूरा नहीं करतीं. जो लोग ये वादे मुसलमानों से करते हैं, वे अगले चुनाव में फिर नए वादे कर देते हैं और मुसलमान अपना वोट उन्हें फिर दे देता है. इस बार के चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी यह मानकर बैठी है कि मुसलमानों के वोटों का एक बड़ा हिस्सा उसे बतौर समर्थन मिलेगा. आम तौर पर देश में ऐसा माना जा रहा है कि इस बार मुसलमान कांग्रेस को वोट नहीं देंगे और कांगे्रस के रणनीतिकार कहते हैं कि इतना बड़ा देश है और हर जगह मुसलमान हैं, तो मुसलमान आख़िर वोट देंगे किसे? उनके पास कांग्रेस के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है.
आवश्यकता इस बात की है कि मुसलमान, मुसलमानों के राजनीतिक संगठन, उनके धार्मिक-राजनीतिक संगठन अपने-अपने एजेंडे को एक-दूसरे के बीच सर्कुलेट करें और बैठकर सोचें कि देश में उनका एक एजेंडा कैसे बने. अल्पसंख्यक होने के नाते और धार्मिक रूप से भेदभाव के शिकार तबके में इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है और तभी चाहे समाजवादी पार्टी हो, राष्ट्रीय जनता दल हो, जनता दल यूनाइटेड हो, कांग्रेस हो या फिर भारतीय जनता पार्टी हो, मुसलमान अपने लिए कुछ हासिल कर पाएंगे. लेकिन, चुनाव के समय चंद पैसों के लिए कद्दावर मुस्लिम संगठन और उनके नेता अलग-अलग पार्टियों के लिए अपीलें करते हैं और यह हर चुनाव में होता है. नतीजे के तौर पर मुसलमान किसी भी प्रकार खुद को बंटा हुआ देख पाते हैं और यही कन्फ्यूजन मुसलमानों को संगठित नहीं होने देता, इसीलिए मुस्लिम नेतृत्व की बात भी मुसलमानों का आम वर्ग नहीं सुनता. एक तरह की अपीलें होती हैं और चुनाव में नतीजे दूसरे आते हैं, पर यह चुनाव महत्वपूर्ण चुनाव है. मुसलमानों को एक बार संगठित होकर न केवल कांग्रेस, बल्कि भाजपा सहित तमाम दलों से अपने हक़ों के लिए मांग करनी चाहिए और अपनी रोजी-रोटी, शिक्षा के सवाल पर साफ़ मांगें रखकर कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी समेत सभी राजनीतिक दलों से साफ़ जवाब लेना चाहिए.

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