यह प्रश्न निश्चय ही बहुत महत्वपूर्ण है कि 80 संसदीय सीटों, जिनमें 63 सामान्य एवं 17 सुरक्षित हैं, वाले देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 18.5 प्रतिशत मुस्लिम आबादी 16वीं लोकसभा के चुनाव में क्या रुख अख्तियार करने जा रही है और किधर जा रही है. उल्लेखनीय है कि राज्य के कुल 80 संसदीय क्षेत्रों में कम से कम 45 क्षेत्र ऐसे हैं, जहां जनसंख्या के लिहाज से मुस्लिम वोट बहुत महत्वपूर्ण और असाधारण हैं. राज्य में मुस्लिम वोट राजनीति का रुख तय करने की स्थिति में है. यह अलग बात है कि 2009 में हुए 15वीं लोकसभा चुनाव में यहां से मात्र सात मुस्लिम सदस्य निर्वाचित हुए थे, परंतु सामूहिक तौर पर उनके वोट का महत्व कम से कम 45 क्षेत्रों में है. यही कारण है कि पूरे देश की निगाह संसदीय सीटों की सबसे बड़ी संख्या होने के कारण इस राज्य पर रहती है, वहीं विभिन्न राजनीतिक पार्टियों एवं अन्य निर्दलीय उम्मीदवारों का निशाना वे क्षेत्र होते हैं, जहां जनसंख्या के लिहाज से मुस्लिम मतदाता महत्वपूर्ण हैं.
ज्ञात रहे कि 15वीं लोकसभा में राज्य से जो सात मुस्लिम सदस्य निर्वाचित हुए थे, उनमें बसपा के चार उम्मीदवार, जैसे कैराना से तबस्सुम बेगम, मुजफ्फरनगर से कादिर राणा, संभल से डॉ. शफीकुर्रहमान बर्क एवं सीतापुर से कैसर जहां और कांग्रेस के तीन उम्मीदवार, जैसे मुरादाबाद से मुहम्मद अजहरुद्दीन, खीरी से जफर अली नकवी एवं फर्रुखाबाद से सलमान खुर्शीद थे. अतएव यहां इस प्रश्न का उठना स्वाभाविक है कि इस बार 16वीं लोकसभा चुनाव के दौरान मुस्लिम नुमाइंदगी का यह रुझान पिछली बार वाला ही रहेगा या बदलेगा? और क्या 2012 के विधानसभा चुनाव में अधिकतर मुस्लिम वोट पाने वाली सपा मुस्लिम उम्मीदवारों के लिहाज से इस बार अपना खाता खोल भी पाएगी? आम आदमी पार्टी, जिसने भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के विरुद्ध अरविंद केजरीवाल को खड़ा करके राज्य के मुसलमानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया है, किसी मुस्लिम उम्मीदवार को इस बार भेज भी पाएगी?
आइए देखते हैं कि इस बार राज्य में मुसलमानों के बीच क्या हो रहा है? देवबंद स्थित मदरसा दारुल उलूम, जिसे इस्लामिक जगत में प्रसिद्धि हासिल है, के कुलपति मुफ्ती अबुल कासिम नोमानी बनारसी ने एक असाधारण विज्ञप्ति में खुले तौर पर कहा है कि 2014 के संसदीय चुनाव के दौरान तमाम राजनीतिक पार्टियों के नुमाइंदों एवं उम्मीदवारों के मदरसा परिसर में आने पर पाबंदी लागू कर दी गई है. इसके अनुसार, चुनाव पूर्व किसी पार्टी के समर्थन या विरोध में कोई बयान जारी नहीं किया जाएगा और न नेताओं या पार्टियों की सफलता के लिए दुआ कराई जाएगी. इस संबंध में यह भी कहा गया है कि दुआ कराने के ध्येय से भी कोई उम्मीदवार इस संस्था में न आए.
उल्लेखनीय है कि आम तौर पर चुनाव के दौरान यह मदरसा राजनीतिज्ञों के लिए आकर्षण का केंद्र बन जाता है और उलेमा से आशीर्वाद एवं दुआ लेने के लिए बड़े-छोटे नेताओं की भीड़ लग जाती है. ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार की इच्छा रखने वाले नेताओं को निराशा हाथ लगेगी और मदरसा के इस सख्त निर्णय से विभिन्न राजनीतिक पार्टियों को जबरदस्त धक्का पहुंचेगा. कहा जाता है कि दारुल उलूम देवबंद के इतिहास में इस तरह का निर्देश पहली बार जारी किया गया है. यह वही दारुल उलूम है, जिसने स्वाधीनता संग्राम में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और जिसके हजारों उलेमा इस सिलसिले में शहीद भी हुए थे. यहां से जारी किए गए किसी निर्देश को मुसलमानों में बहुत ही महत्व एवं निष्ठा के साथ देखा जाता है. अतएव राज्य में हो रहे संसदीय चुनाव पर इस निर्देश का प्रभाव तो निश्चित रूप से पड़ेगा.
प्रश्न यह भी है कि आख़िर इस असाधारण निर्देश का कारण क्या है और इसे जारी करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? ग़ौरतलब है कि इस निर्देश को जारी करने के चार दिन पहले 20 मार्च को आम आदमी पार्टी नेता मनीष सिसोदिया दारुल उलूम देवबंद पहुंचे. दूसरे दिन यह ख़बर जंगल की आग की तरह फैल गई कि उन्होंने अपनी पार्टी के लिए मदरसे से समर्थन मांगा और वह उपकुलपति मौलाना अब्दुल खालिक मद्रासी से भी मिले. कहा जाता है कि इस समाचार से मदरसा के कुलपति एवं अन्य ज़िम्मेदार परेशान हो गए और फिर उपरोक्त निर्देश जारी किया गया. ग़ौरतलब यह भी है कि दारुल उलूम में चुनाव के अवसर पर राजनीतिज्ञ हमेशा आते रहे हैं. 25 साल पहले चार मार्च को भी सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव यहां पधारे थे और उस समय के तक़रीबन 100 वर्षीय कुलपति मौलाना मरगूबुर्रहमान से आशीर्वाद लिया था और वापस लौटकर उनके साथ खींची गई तस्वीर को घनी आबादी वाले मुस्लिम क्षेत्रों में खूब फैलाकर मुस्लिम मतों को अपने हक़ में करने की चेष्टा की थी. उन दिनों यह ख़बर भी आई थी कि मुलायम ने स्वर्गीय मौलाना एवं दीगर ज़िम्मेदारों से पूर्व भाजपा मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से उन दिनों सपा से की गई संधि के संबंध में सफाई पेश की थी. उसके बाद कल्याण सिंह ने भी मदरसा के ज़िम्मेदारों से मिलने की इच्छा व्यक्त की थी, मगर ऐसा संभव नहीं हो सका था. यह बात भी कही जा रही है कि दारुल उलूम के वर्तमान कुलपति मुफ्ती अबुल कासिम नोमानी बनारसी से भेंट के बाद यह ख़बर भी गश्त करने लगी कि सपा प्रमुख इस बार भी कुलपति एवं अन्य ज़िम्मेदारों से मिलने मदरसा पधार रहे हैं और इसके लिए मंत्री पद का दर्जा हासिल किए सहारनपुर के प्रसिद्ध व्यापारी एवं सपा वफादार आशु मलिक मदरसा के शिक्षक एवं जमीयतुल उलेमा हिंद के एक धड़े के अध्यक्ष मौलाना सैयद अरशद मदनी की सहायता से कोशिश कर रहे हैं.
इससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि इस निर्देश का निशाना आप नेता के साथ-साथ सपा प्रमुख भी हैं. सपा के लिए एक मुसीबत और हो गई कि बीते 26 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की अखिलेश सरकार को मुजफ्फरनगर दंगों के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया और कहा कि अगर सरकार ने लापरवाही न बरती होती, तो दंगे रोके जा सकते थे. उच्चतम न्यायालय ने इसी के साथ-साथ राजनीतिक संबंधों से हटकर कुसूरवारों के ख़िलाफ़ कार्रवाई और प्रभावितों को सुरक्षा प्रदान करने की हिदायत दी. उसने राज्य सरकार को समय पर सावधान करने में असफल रहने पर केंद्रीय एवं राज्यस्तरीय खुफिया एजेंसियों की भी आलोचना की और निर्देश दिया कि जिन लोगों के विरुद्ध मुकदमे दर्ज किए गए हैं, उन्हें गिरफ्तार किया जाए. राज्य के मुसलमान, जो मुजफ्फरनगर एवं उससे लगे हुए क्षेत्रों में भड़के दंगों, प्रभावितों की सहायता करने और उनके असल मुकाम पर पहुंचाने में असफल रही सपा से नाराज़ थे ही, अदालत के इस निर्णय से और भी ज़्यादा छिटक गए.
ऐसा प्रतीत होता है कि दारुल उलूम देवबंद के निर्देश एवं सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त ़फैसले से सबसे ज़्यादा प्रभावित सपा होने जा रही है, जिसका साफ़ मतलब यह है कि सपा उम्मीदवारों को मुस्लिम मत अधिकतर नहीं मिलेगा और यही हाल कमोबेश आम आदमी पार्टी का होगा, जिसके नेता मनीष सिसोदिया के मदरसे में जाने के बाद यह बवाल शुरू हुआ है. स्पष्ट है कि मुस्लिम मत इस स्थिति में अधिकतम कांग्रेस और उसके बाद बसपा को ही जाएगा. विभिन्न क्षेत्रों के मुस्लिम नेताओं एवं अन्य लोगों से हुई बातचीत और मौजूदा स्थिति बताती है कि राज्य में मुस्लिम मतों के मामले में इस बार कांग्रेस सबसे ज़्यादा फ़ायदे में रहेगी.
मुसलमान किधर जाएंगे
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