भारत की आज की राजनीति दो ध्रुवीय हो गई है. हालांकि हिन्दी पट्टी के कुछ राज्यों सहित देश के कुछ अन्य क्षेत्रों में अब भी राजनीति के इस चक्र को पूरा होना है. पर ऐसी राजनीति कमोवेस हर जगह है, कहीं पूरे शबाब में, तो कहीं प्रयोग की स्थिति में. दक्षिण भारत के दो राज्यों तमिलनाडु और केरल में ऐसी राजनीतिक व्यवस्था दशकों से चल रही है. पार्टियां अपनी राजनीति के अनुरूप राजनीतिक ध्रुव में शामिल हो रही हैं. महाराष्ट्र में भी ऐसी व्यवस्था बनी है. हालांकि दक्षिण के उक्त राज्यों की तरह यह सुगठित तो नहीं है, पर है. यहां एनडीए के समानांतर कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए है. कर्नाटक, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में भी ऐसी कोशिश हो रही है.
पश्चिम बंगाल में एक ध्रुव- वाम मोर्चा तो है, पर इसके प्रतिरोध में कोई मोर्चा नहीं बन पा रहा है. शायद यह स्थिति वाम मोर्चा के निरंतर कमजोर होते जाने के कारण है. हिन्दी पट्टी में ऐसे स्पष्ट राजनीतिक ध्रुवीकरण का अभाव ज्यादा महसूस किया जा रहा है. राजस्थान व मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में मुख्यतः दो ही पार्टियां मैदान में दिखती हैं. हरियाणा में भी ऐसी ही स्थिति बनती जा रही है पर, बिहार में ऐसा ध्रुवीकरण राजनीतिक प्रक्रिया में है और अब तक यह सही दिशा में बढ़ता दिख रहा है. यहां एनडीए के समानांतर तीन दलों का महागठबंधन केवल आकार ही नहीं लिया है, सरकार भी चला रहा है.
अब इसकी जरूरत उत्तर प्रदेश में भी महसूस की जा रही है. वस्तुतः राजनीति बदल रही है और भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के समानान्तर किसी ठोस राजनीतिक ध्रुव की जरूरत हिन्दी पट्टी में अधिक शिद्दत से महसूस की जा रही है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि मुलायम सिंह यादव जैसे दबंग और बुजुर्ग नेता भी इसे महसूस कर रहे हैं.
मुलायम की राजनीतिक पारी देश के अनेक बड़े नेताओं की उम्र से भी बड़ी है और उन्हें उत्तर प्रदेश के बड़े सामाजिक समूहों का अखंड समर्थन मिलता रहा है. इसी समर्थन के बूते उन्होंने सपा जैसी पार्टी खड़ी की जो पिछले ढाई दशक से उत्तर प्रदेश की सत्ता का महत्वपूर्ण हिस्सा रही है- पक्ष हो या विपक्ष. अब उसी मुलायम सिंह यादव ने जनता परिवार के दलों को एकजुट करने और गैर भाजपाई दलों का फ्रंट तैयार करने की कोशिश शुरू की है. समाजवादी पार्टी की स्थापना के रजत जयंती समारोह को उन्होंने इसका मंच बनाने का प्रयास किया. इस समारोह में तत्कालीन जनता दल कुल के सभी दलों के
नेताओं को बुलाया गया. हालांकि इस कुल के कई नेता समारोह में शामिल नहीं हुए, पर वे भी राष्ट्रीय स्तर पर गैर भाजपाई फ्रंट की जरूरत को शिद्दत से महसूस करते हैं और इसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार भी करते हैं. बिहार विधानसभा चुनाव में इसी राजनीतिक जरूरत के तहत बने महागठबंधन की जीत और भाजपा की करारी शिकस्त के बाद इस दिशा में इन दलों की सक्रियता बढ़ी भी है. हालांकि इन दलों की यह सक्रियता कई अगर-मगर से बंधी हुई है, पर गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी खेमा का कोई भी नेता इसकी जरूरत से इंकार नहीं कर रहा है. कम से कम सार्वजनिक तौर पर तो नहीं ही.
भाजपा विरोधी मोर्चे की जरुरत बिहार के नेताओं- नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने सवा दो साल पहले महसूस की थी. इसी जरूरत को पूरा करने के ख्याल से इस राज्य में जद(यू), राजद और कांग्रेस- अपनी अनेक राजनीतिक मतभेदों और दूरी के बावजूद- एक साथ आए. विधानसभा उपचुनावों में गठबंधन बनाया और भाजपा के नेतृत्व में एनडीए को कड़ी शिकस्त दी.
उस समय विधानसभा की चौदह सीटों पर उपचुनाव हुए थे और इसमें भाजपा अपनी सीटों को भी नहीं बचा सकी. इस प्रयोग की सफलता ने राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे भाजपा विरोधी मोर्चे को हालात की जरुरत साबित कर दिया. बिहारी राजनीति में इसी तालमेल ने महागठबंधन को ठोस बुनियाद दी. 2014 के संसदीय चुनावों में नरेन्द्र मोदी के नाम पर गैर एनडीए दलों की पराजय ने बिहार के नेताओं- राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद और जद(यू) में तब भी सुप्रीमो की हैसियत प्राप्त नीतीश कुमार
को एकजुट होने की सबसे बड़ी राजनीतिक सीख दी थी. इन्होंने इसे समझा और एकजुट होने का तय किया. अल्पसंख्यक वोट बंटे नहीं, इसलिए कांग्रेस को भी साथ लिया गया. इस प्रयोग की सफलता ने सूबे की भाजपा विरोधी राजनीति को आगे के रास्ते दिखाये और भाजपा विरोधी दलों के नेताओं ने इसे आगे चलाने का फैसला लिया. यही प्रयोग आगे चला और बिहार विधानसभा चुनावों में इस महागठबंधन की ऐतिहासिक जीत ने भाजपा और उसके नेतृत्व के एनडीए को करारी शिकस्त दी. बिहार विधानसभा चुनावों की इस हार से मिली पस्तहिम्मति से भाजपा अब तक उबर नहीं सकी है. पटना से लेकर दिल्ली तक का इसका नेतृत्व अभी तक बिहार चुनाव की हार मन से स्वीकार नहीं कर सका है. यह पस्तहिम्मति भाजपा में सभी स्तर पर देखी जा सकती है.
बिहार के उपचुनावों में महागठबंधन की जीत ने नीतीश कुमार – लालू प्रसाद को जनता परिवार के दलों को एक छतरी में लाने की प्रेरणा दी, क्योंकि कांग्रेस के साथ ऐसा गठबंधन देश के सभी राज्यों, खास कर हिन्दी पट्टी, में असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है. सो, जनता परिवार के दलों को एक छतरी के नीचे लाने या उनके विलय की पहल बिहार उपचुनाव के कुछ महीनों बाद आरंभ हुई. सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने इस पहल पर हामी भरी. तय हुआ कि नई पार्टी और नए निशान पर ही बिहार चुनाव लड़े जाएंगे.
विचार-विमर्श की लंबी प्रक्रिया के बाद सब कुछ तय हो गया- प्रस्तावित दल का अध्यक्ष मुलायम सिह को घोषित किया गया, ससंदीय बोर्ड का अध्यक्ष भी उन्हें ही बनाया गया, पार्टी का नाम और निशान तय करने को उन्हें ही अधिकृत कर दिया गया, कमिटी बनाने की जिम्मेवारी भी उन्हें ही सौंप दी गई. पर विलय की प्रक्रिया निरन्तर लंबी खिंचती जा रही थी. ऐसी हालत में तय किया गया कि बिहार में फिलहाल महागठबंधन बना कर चुनाव लड़ा जाए. बिहार में चुनाव का माहौल गरमा रहा था और दिल्ली से लेकर लखनऊ तक खेल चल रहा था. अंत में यह हुआ कि मुलायम सिंह यादव और उनकी सपा इस अभियान से अलग हो गई.
सपा की ओर से उसके महासचिव रामगोपाल यादव ने कहा- हम डेथ-वारंट पर दस्तखत नहीं कर सकते, हम किसी के साथ विलय नहीं करेंगे. इसके साथ ही सपा नेताओं ने बिहार चुनाव में अपनी पार्टी को इस महागठबंधन से भी अलग कर लिया. यह बात सपा के नेताओं ने तब कही जब बिहार में सीटों का बंटवारा चल रहा था. सीटों के बंटवारे पर सपा को एतराज था. यहां तक भी चल सकता था. पर मुलायम सिंह यादव की सपा और इसके नेताओं ने और आगे बढ़ कर सूबे में एक नया मोर्चा बनाया. इस मोर्चे की चुनाव में क्या स्थिति रही यह बताने की जरूरत नहीं- इस मोर्चे के सबसे बड़े दल सपा को एक प्रतिशत से भी कम वोट मिले थे.
यह आम धारणा बनी कि सपा का फैसला केंद्र में सत्तारूढ़ एनडीए के दबाव में स्वार्थ से प्रेरित था और इसका मकसद महागठबंधन के वोट को बिगाड़ना था. असलियत जो भी हो, पर आज भी लोग उस प्रकरण को इसी तरह याद करते हैं. जद(यू) की राष्ट्रीय परिषद के राजगीर अधिवेशन में नीतीश कुमार ने एक बार फिर इस घटना की याद बिहार के लोगों को दिला दी. इस घटना का उल्लेख कर नीतीश कुमार सपा सुप्रीमो को कुछ याद दिला रहे थे. नीतीश कुमार ने तो यहां तक कह दिया कि मुलायम के परिवार में जो कुछ हो रहा है, वह बिहारियों की आह का असर है.
नीतीश कुमार ने जिस राजनीति को दो-ढाई वर्ष पहले महसूस कर जमीन पर उतारने की पहल की थी और जिसके लिए अपनी विधानसभा व विधान परिषद की सीटों की कुर्बानी दी, उसे मुलायम सिंह यादव अब महसूस और स्वीकार कर रहे हैं. नीतीश कुमार ने भाजपा विरोधी मोर्चा को आकार देने के लिए विधानसभा उपचुनावों के समय अपनी जीती हुई पांच सीटों को छोड़ा था.
इसके कुछ महीनों बाद हुए विधान परिषद के स्थानीय निकाय क्षेत्र की सीटों को भी अपने मित्र दल के लिए छोड़ दी थी. विधानसभा चुनावों में तो जद(यू) ने बड़ी कुर्बानी दी. पिछली विधानसभा में उसके 119 सीटें थीं. पर, गठबंधन को बनाए रखने के लिए नीतीश कुमार ने 19 सीटों से अपना दावा छोड़ दिया. इतना ही नहीं कोई एक दर्जन उन सीटों को भी उन्होंने सहयोगी दलों के लिए त्याग दिया जिन पर उनके विधायक थे.
पिछली विधानसभा में राजद के मात्र चौबीस सदस्य थे. इसके बावजूद चुनावों में उसके खाते में एक सौ से अधिक सीटें गईं. कांग्रेस के पांच विधायक थे, लेकिन उसको चालीस सीटें दी गई. बिहार विधानसभा में महागठबंधन को एकजुट और मजबूत बनाए रखने के लिए नीतीश कुमार ने वह सब कुछ किया, जो किया जा सकता था. ऐसा इसलिए कि वह भाजपा को बिहार के मैदानों में पराजित करना सबसे बड़ी राजनीतिक जरूरत मानते थे. इसके बरअक्स मुलायम सिंह यादव की मौजूदा पहल अब भी साफ नहीं है. उन्होंने गठबंधन की जरुरत को तब स्वीकार किया है, जब उनकी सपा और खुद का घर विभाजित है.
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हालात तो पहले से ही सपा के बहुत अनुकूल नहीं थे, अब मुलायम के घर में ही विरासत पर वर्चस्व की जंग के सड़कों पर आ जाने से उनकी छह दशक से भी पुरानी राजनीति की किरकिरी हुई है. अब अपने पिछड़ा आधार को बचाना उनकी सबसे बड़ी जरूरत है. इस आधार में कोई सेंध न लगे और इस कारण अल्पसंख्यक मतदाता समूह उनके साथ जुड़े, यह उनकी फौरी मजबूरी है. कई बड़े राजनेता मानते हैं कि ये जरूरतें उन्हें गठबंधन को प्रेरित कर रही है. पर, ऐसा कोई गठबंधन होने की सूरत में अपने सहयोगियों को देने के लिए मुलायम के पास बहुत कुछ नहीं बचा है. अधिकांश सीटों पर सपा के प्रत्याशी पहले से घोषित हैं.
मुलायम सिंह यादव की इस पहल में एक और पेंच है. नीतीश कुमार के जद(यू) ने इसी पेंच को मुलायम सिंह के न्योता को न मानने का आधार बनाया है. जद(यू) का मानना है कि सपा के भीतर जो घमासान है, उसमें रैली में भाग लेने से गलत संदेश जाएगा. इस रजत जयंती समारोह का आयोजन मुलायम सिंह यादव ने किया है, जिनके साथ अखिलेश यादव नहीं हैं. हम इस गुटबंदी का हिस्सा नहीं बनना चाहते.
सपा के घर की आग में कोई अपना हाथ क्यों जलाए! सपा सीधे-सीधे चाचा-भतीजा के बीच बंट गई है. चाचा शिवपाल यादव को नेताजी का साथ है, तो भतीजा अखिलेश यादव के साथ अपनी छवि के साथ-साथ सूबे के युवा का बड़ा तबका. हालांकि अभी वहां माहौल को सहज बनाने की कोशिश सपा सुप्रीमो खुद ही कर रहे हैं. इतना तो साफ है कि सपा में अखिलेश की राह आसान नहीं है, लेकिन नेताजी की भी अब वह हैसियत नहीं रही, जो कुछ वर्ष पहले हुआ करती थी. सपा के किसी गुट के किसी आयोजन में जाने का मतलब उसका समर्थन है. जद(यू) फिलहाल इसके लिए तैयार नहीं है.
यह इसलिए भी कि पिछले आठ-नौ महीनों के अभियान के बाद, दल का मानना है, उत्तर प्रदेश में नीतीश कुमार ने जद(यू) के लिए जमीन तैयार की है. उनके लोग उत्तर प्रदेश में जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं और नीतीश कुमार के शराबबंदी व महिला सशक्तीकरण तथा महादलित सशक्तीकरण के अनेक कार्यक्रमों को लेकर चुनावी अभियान का आधार तैयार कर रहे हैं. हालांकि अखिलेश यादव को लेकर नीतीश कुमार अपने सकारात्मक रूख को बार-बार अभिव्यक्त कर चुके हैं. सपा और उत्तर प्रदेश में आनेवाले समय में अखिलेश यादव की वक़त निर्विवाद बढ़ेगी. सो, उगते सूर्य की उपेक्षा कोई कैसे कर सकता है!