राई नृत्य कर दर्शकों का मनोरंजन करने वाली लोक नृत्यांगनाएं बेड़नी भाग्य को कोस रही हैं. हालात यहां तक बदतर हैं कि वे अपना शरीर बेचकर दो जून की रोटी जुटा रही हैं. गायन, वादन एवं नृत्य में अपना जीवन व्यतीत कर देने वाली जाति बेड़िया ने लोकनृत्य से शास्त्रीय नृत्य के मार्ग को देशी तरीक़ेसे पेश करने का रास्ता बनाया. लम्हा-लम्हा अपने अतीत के गौरवशाली व़क्त को भूलकर गर्त में गिरने को विवश राई नर्तकी की कहानी कभी हमें रुलाती है तो कभी करुणा के सागर में डुबो देती है. बुंदेलखंड के पठार वाले भू-भाग में रहने वाली बेड़िया जाति की ज़िंदगी पठार की तरह सख्त हो गई है.
बुंदेलखंड में प्राकृतिक कोप के कारण किसान दाने-दाने के लिए मोहताज हैं नर्तकी कलावती कहती हैं कि जब किसान ही भूखे हैं, तो शादी वगैरह में नृत्य के लिए कैसे बुलाएं? पेट की भूख के लिए शरीर की भूख मिटाने के अलावा कोई चारा नहीं है. ललितपुर जनपद के मंडावरा ब्लॉक मुख्यालय से सटे रनगांव में रहने वाली बेड़िया जाति की महिलाएं मनोरंजन के संसाधनों की बहुतायत तथा लोगों की बदलती पसंद के चलते हाल के वर्षों में जिस्मफरोशी के लिए विवश हुई हैं. आज की तारीख़ में रनगांव (ललितपुर) बिजावर (छतरपुर) पथरिया (सागर) आदि स्थानों पर बड़ी संख्या में रहने वाली बेड़िया जाति पर दुखों का पहाड़ टूटा है. बेड़िया अपनी उत्पत्ति गंधर्व से मानती हैं. इस समाज की भी अजब गाथा है. यदि किसी बेड़नी का बाक़ायदा ब्याह हो जाए तो वह धंधा नहीं करती है. मांग, बिंदी व दूसरे सुहाग चिन्ह तो हरेक बेड़नी धारण करती है. ऐसा नहीं है कि यहां की महिलाएं इस गर्त से बाहर निकलना नहीं चाहती हैं, समाज का संकुचित नज़रिया और सरकार की नाकाफी कोशिशें इन्हें आगे नहीं आने दे रही है. बेड़नियों से शादी करने वालों को मिलने वाली सहूलियतें महज़ काग़ज़ों तक ही सीमित है.
ग्राम रनगांव की बेड़नी लीला ललितपुर जिला पंचायत की सदस्य तक चुनी गई है, लेकिन राजनैतिक अधिकार मिल जाने के बाद भी वह अपने समाज को देह बेचने के दलदल से मुक्त नहीं कर पाई है. इस गांव की पिरितिया बताती हैं कि कुछ वर्ष पूर्व पुलिस चौकी के सिपाही डंडे के ज़ोर पर हमारे घर की युवा लड़कियों को मुफ़्त में हमबिस्तर करने के लिए ले जाने लगे, तो हम लोगों ने विरोध किया तो परिवार जनों को तत्कालीन पुलिस के आला अधिकारियों की सहमति से गैंगस्टर जैसी धाराओं में जेल में ठूंसने के साथ ग्राम की महिलाओं, पुरुषों के साथ पुलिस ने जमकर मारपीट की, वहशी दरिंदों ने ख़ूब शारीरिक शोषण किया, पुलिस पर आक्रमण करने का झूठा मुक़दमा पंजीकृत करा दिया गया. ज़िंदगी की कड़वी सच्चाई रोंगटे खड़े कर देने वाली हैं. रजस्वला होते ही युवा बेड़नी की नथ-उतराई की रस्म का रिवाज है. इस रस्म के लिए दो हज़ार से पांच हज़ार रूपए तक का सौदा होता है. अपना दुखड़ा सुनाते हुए दुलारी बताती हैं कि सोलह साल की उम्र में 60 वर्ष के व्यक्ति ने दो हज़ार रुपए में मेरे साथ यह रस्म की थी.
इस रस्म को उत्सव के रूप में मनाया जाता है लेकिन इस उत्सव के साथ ही अंधेंरे दिनों की शुरुआत होते ही रूह कांप उठती है. दुलारी कहती है कि एक दिन में पांच से दस पुरुषों को ख़ुश करने में अंग-अंग दुखने लगता है. समाज के चलन के आगे सारी ज़िंदगी दैहिक शोषण के जाल में मछली की तरह तड़पने के अलावा कुछ नहीं बच जाता है. मन, कामनाएं, सपने, सोच और सेक्स की आज़ादी समाप्त हो जाती है. चंद पैसों के कारण आयातित लोगों द्वारा शारीरिक शोषण ग़ुलामों की तरह होता है. भय, भूख और परंपरा के नाम पर देह के दावानल से मुक्ति का मार्ग मौत आने तक अनवरत चलता रहता है.
राई: रात भर चलने वाला बुंदेली लोकनृत्य
बुंदेली लोकनृत्य राई में बेड़नियों (एक विषेश जाति की महिलाएं) द्वारा फुर्ती के साथ रेंगड़ी, झमका, दपु, ढोलकी, मृदंग, नगड़िया, झांझ और झींके जैसे वाद्ययंत्रों के समवेत तालों पर नृत्य किया जाता है. दीपावली के बाद प्रारंभ होकर आठ माह तक चलने वाला यह नृत्य रातों में होली के अवसर पर किया जाता है. राई नृत्य की समय सीमा तय नहीं है. नृत्यकारा की क्षमता ही पैमाना मात्र है कभी-कभी राई नृत्य 22-24 घंटे तक लगातार चलता है और शादी-विवाह की रस्म इसके बिना अधूरी मानी जाती है. लोग एक घेरा बनाकर खड़े हो जाते हैं. बीच में ग्राम्य नर्तकी ख्याल नामक गीत गाते हुए चक्राकार नाचती है और मयूर की भांति रह-रहकर अंगड़ाई लेती है. पुरुष ढोलकी बजाता है और यही ढोलकिया नर्तकी के साथ विषेश रंगत पैदा करता है. इस नृत्य में तकली की तरह घूमना, शरीर की लचक और हाथों का घुमाव प्रमुख है. राई नर्तकी के चेहरे पर घूंघट पड़ा रहता है. घूघंट के बीच लय-ताल बनाकर वह मस्ती के साथ नृत्य करती है. राई नृत्य प्रतिस्पर्धा गायक एवं नर्तकी के बीच होती है. चूड़ीदार पाजामे के ऊपर लंबा घाघरा, कंचुकी या ब्लाउज-साड़ी नर्तकी की पोशाक है. दो प्रतिद्वंदी फाग मंडलियों के बीच में नर्तकी फाग गाते हुए एक फड़ से दूसरे फड़ की ओर लगातार आती-जाती रहती है. इसके साथ गति से मशाल चलती है, ताकि नर्तकी के हाव-भावों को लोग देख सकें. राई नृत्य मणिपुरी में जैगोई नृत्य के भांगी, पारंग से काफी साम्य रखता है. डा. नर्मदा प्रसाद गुप्त का मत है कि बुंदेली में राई- दामोदर प्रचलित है जिसका अर्थ होता है कि राधाकृष्ण. इस प्रकार राई शब्द राधिका से आया है और राधिका के नृत्य से राई नृत्य बना जिसमें केवल राधा ही कृष्ण को रिझाने के लिए नृत्य करती हो. कालांतर में इस नृत्य में गाया जाने वाला गीत राई कहलाने लगा. मगर दूसरे विद्वान इसे विशुद्ध रूप से आदिवासी नृत्य मानते हैं. चूंकि यह नृत्य मशाल की रोशनी में होता था और मशाल को बुझने न देने के लिए इसमें राई डाली जाती थी, इसीलिए यह राई नृत्य कहलाया.
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