चुनाव और एग्जिट पोल के बाद भी मध्य प्रदेश की तस्वीर साफ नहीं हो सकी है. इससे यह भी स्पष्ट नहीं हो सका है कि वोटरों का झुकाव किस तरफ है. मामला कांटे की टक्कर का दिखाई दे रहा है और हंग असेंबली की सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है. कुल मिलाकर, इस बार यहां का चुनावी माहौल काफी जटिल और उलझा हुआ दिखाई पड़ता है. हालांकि हमेशा की तरह इस बार भी मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही है. मप्र में जनता के बीच बदलाव का मूड साफतौर पर नजर आ रहा है, लेकिन कांग्रेस इसे कितना भुना पाई है, यह देखना अभी बाकी है.
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मध्य प्रदेश में कांग्रेस 15 सालों बाद पहली बार सत्ता में वापसी के जतन करती हुई दिखाई पड़ी है. कमलनाथ की अगुवाई में मध्य प्रदेश कांग्रेस में कसावट देखने को मिली है, दूसरी तरफ लगातार तीन बार से मुख्यमंत्री रहने और भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बावजूद, शिवराज सिंह चौहान ही कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती थे. ऐसे में कांग्रेस कमलनाथ और सिंधिया की जोड़ी को सामने रखते हुए चुनावी मैदान में उतरी, दिग्विजय सिंह को परदे के पीछे रखते हुए उन्हें चुनावी अभियान से दूर रखा गया. इन सबके बीच राहुल गांधी भाजपा-संघ की इस दूसरी प्रयोगशाला में नरम हिन्दुत्व के रास्ते पर आगे बढ़ते हुए माहौल बनाने में काफी हद तक कामयाब रहे हैं.
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इस चुनाव में कांग्रेस का सबसे बड़ा सहारा शिवराज सरकार के खिलाफ असंतोष था, अगर कांग्रेस इस असंतोष को भुनाने में नाकाम साबित हुई, तो मध्य प्रदेश में उसके अस्तित्व पर भी सवाल खड़ा हो जाएगा. दरअसल, 2003 से सत्ता पर काबिज भाजपा को एंटी इनकंबेंसी का सामना करना पड़ रहा है. एक तरफ जहां उसे अपने मंत्रियों और विधायकों के खिलाफ लोगों में गुस्सा देखने को मिल रहा है, वहीं किसानों और सवर्णों की सरकार के प्रति नाराजगी भी उसे परेशान किए हुए है. ऐसे में भाजपा की सारी उम्मीदें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर ही टिकी हुई हैं, जिनकी सहज और सरल छवि के सहारे भाजपा अपनी चुनावी नैय्या पार करने की उम्मीद लगाए बैठी है.
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कुल मिलाकर, मध्य प्रदेश में चुनावी परिदृश्य इतना उलझा और बिखरा हुआ नजर आ रहा है कि इसको लेकर अंत समय तक कोई पेशगोई करना आसान नहीं है. कोई भी विश्लेषक पूरे यकीन के साथ कह पाने की स्थिति में नहीं है कि इस बार बाजी कौन मारेगा. ऐसे में सभी को अब इंतजार 11 दिसम्बर का है.