प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र मोदी की कोई अंतरराष्ट्रीय छवि नहीं थी. ऐसे में अगर मोदी ने देशों को समझने और उन्हें जानने के लिए विदेशी दौरे किए, तो उनकी आलोचना नहीं होनी चाहिए. लेकिन, जनता को इस सवाल का जवाब ज़रूर मिलना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इन यात्राओं से भारत को हासिल क्या हुआ? मोदी ने अप्रवासी भारतीयों को अपने भाषण से सम्मोहित किया, बड़े शो और धमाल किए, लेकिन अपने बड़बोलेपन के चलते वह कुछ ऐसी बातें कह गए, जिनसे हर भारतीय का सिर शर्म से झुक गया. विदेश मसले पर अपनी कोई मौलिक दृष्टि न होने के कारण मोदी उस मुकाम को हासिल नहीं कर पाए, जहां से भारत के विश्व महाशक्ति बनने का कोई रास्ता तैयार हो सके.
प्रधानमंत्री बनने के बाद पहले ही साल में नरेंद्र मोदी ने जितनी विदेश यात्राएं की हैं, उतनी अब तक किसी प्रधानमंत्री ने नहीं कीं. पहले ही साल में मोदी पड़ोसी और शक्तिशाली देशों में तो हो आए, लेकिन उनकी यात्राओं के दौरान कोई ठोस नीतिगत क़दम नहीं दिखाई दिए. न तो दक्षिण एशिया के महासंघ की कोई पहल हुई, न विश्व राजनीति के किसी महत्वपूर्ण मसले पर हमने कोई क़दम उठाया और न सुरक्षा परिषद में हमारी स्थायी सीट का प्रबंध हुआ. अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद दक्षिण एशिया में जो संकट आने वाला है, उसके मुक़ाबले की भी कोई तैयारी नहीं है. मोदी सरकार ने अपनी अब तक की विदेश यात्राओं के दौरान कनाडा से यूरेनियम आपूर्ति, फ्रांस से राफेल एवं रेलवे पर समझौते के अलावा जर्मनी, अमेरिका, दक्षिण कोरिया और जापान जैसे देशों के साथ कुछ महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर ज़रूर किए, लेकिन कुल मिलाकर देखा जाए, तो मोदी की विदेश यात्रा पहले के प्रधानमंत्रियों की विदेश यात्राओं की तुलना में बहुत खास नहीं रही. मोदी के व्यवहार में दिखावा ज़्यादा है, जबकि नीतिगत दृष्टि का अभाव है. सही मायने में देखा जाए, तो हमारे प्रधानमंत्री सर्वश्रेष्ठ प्रचार मंत्री साबित हुए.
अपनी विदेश यात्राओं के दौरान नरेंद्र मोदी ने एक बड़ी भूल यह की कि अपनी जनसभाओं में उन्होंने एक-दो बार भारत की आंतरिक राजनीति को भी घसीट लिया. मोदी के इस क़दम को उचित नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि भले ही आप इसके माध्यम से थोड़ी-बहुत अपनी राजनीति चमका लें, लेकिन विदेशी मंचों पर आप अपने देश का नाम बदनाम होने से नहीं रोक सकते. चीन में उन्होंने यह कह दिया कि उनकी सरकार आने के पहले भारतीय होना कोई गर्व की बात नहीं थी. यह बयान घोर आपत्तिजनक है, लेकिन ज़ुबान से निकली हुई बात भला कहां वापस लौटती है. मोदी ने विदेशी राष्ट्रपतियों एवं प्रधानमंत्रियों को अपने हाव-भाव और लटकों-झटकों से प्रभावित तो किया, लेकिन अपनी इन यात्राओं के दौरान मोदी के व्यवहार में न तो जवाहर लाल नेहरू एवं पीवी नरसिम्हा राव जैसी गंभीरता देखने को मिली और न इंदिरा गांधी एवं अटल बिहारी वाजपेयी जैसा व्यक्तिगत आकर्षण देखने को मिला. मोदी को यह नहीं भूलना चाहिए कि विदेश नीति का धरातल बहुत सख्त होता है और उस ज़मीन पर कोरी भावुकता ज़्यादा काम नहीं आती, क्योंकि आ़िखरकार विदेशी आपके देश में उस माहौल को खोजने आएंगे, जिसका भरोसा आप उन्हें विदेशी धरती पर देकर आए हैं.
मोदी की विदेश नीति का संचालन नौकरशाह कर रहे हैं. क्या इसके पीछे कारण यह है कि मोदी की विदेश नीति पर अपनी कोई दृष्टि नहीं है, अनुभव नहीं है. अनुभव के बारे में इसलिए कहा जा रहा है कि मोदी न तो विदेश नीति के अध्येता रहे हैं और न वह कभी विदेश मंत्री रहे हैं, जबकि जवाहर लाल नेहरू आज़ादी मिलने के पहले से कांग्रेस का विदेश विभाग संभाले हुए थे. अटल बिहारी वाजपेयी 1977 से लेकर 1979 तक विदेश मंत्री रह चुके थे और नरसिम्हा राव भी दो बार विदेश मंत्रालय संभाल चुके थे. दूसरी तऱफ मोदी का स्वभाव भी अनुभवी विशेषज्ञों से ़फायदा उठाने का नहीं है. मोदी की विदेश यात्राओं से ऐसा कोई विशेष ़फायदा नहीं हुआ, जो पहले की यात्राओं से न हुआ हो. जापान, चीन, दक्षिण कोरिया एवं अमेरिका आदि देशों ने लगभग 70-80 अरब डॉलर के निवेश का वादा किया है. आतंकवाद पर लगभग हर देश ने भारत के साथ सहमति जताई है. द्विपक्षीय व्यापार में वृद्धि की संभावनाएं बढ़ी हैं. यानी वही हुआ, जो प्राय: हर प्रधानमंत्री की यात्रा में होता है.
भारत के लिए ऊर्जा और रेलवे काफी अहम हैं. जर्मनी के साथ ऊर्जा, कौशल विकास, विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने पर सहमति बनी. वहीं कनाडा भारत को तीन हज़ार मीट्रिक टन यूरेनियम देने के लिए तैयार हो गया है. कनाडा रेलवे के आधुनिकीकरण में भी भारत को सहयोग देगा, लेकिन इन मुद्दों पर अभी बातचीत का दौर जारी है. भारत को तत्काल परमाणु ऊर्जा मिल जाएगी, लेकिन कई क्षेत्रों में सहयोग को लेकर बातचीत का लंबा दौर चलेगा. निवेश और तकनीकी हस्तांतरण के मामले में इन देशों की भी अपनी मांगें होती हैं. वे चाहते हैं कि उन्हें भारत में सस्ती ज़मीन मिले, करों में छूट दी जाए. ये देश कई क्षेत्रों में एफडीआई की सीमा बढ़ाना चाहते हैं. क्या मोदी सरकार इन देशों की मांगें पूरी करने की स्थिति में है? देश की आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत नहीं है. बेरोज़गारी और ग़रीबी किसी से छिपी नहीं है. भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर सरकार असमंजस की स्थिति में है, क्योंकि उसके पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है. इतना ही नहीं, भूमि अधिग्रहण को लेकर पूरे भारत में जो माहौल है, उसके बारे में सभी जानते हैं. श्रम सुधार जैसे जटिल मसले भी सामने हैं. इन सबका तात्कालिक समाधान मुश्किल है. सरकार कई देशों के साथ संबंधों को मजबूत करके बदलाव लाने की कोशिश कर रही है, लेकिन परेशानी यह है कि लोकतंत्र में बदलाव आने में समय लगता है. ऐसे में इन देशों की मांगों को पूरा करना मुश्किल है.
भारत के लिए ऊर्जा और रेलवे काफी अहम हैं. जर्मनी के साथ ऊर्जा, कौशल विकास, विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने पर सहमति बनी. वहीं कनाडा भारत को तीन हज़ार मीट्रिक टन यूरेनियम देने के लिए तैयार हो गया है. कनाडा रेलवे के आधुनिकीकरण में भी भारत को सहयोग देगा, लेकिन इन मुद्दों पर अभी बातचीत का दौर जारी है. भारत को तत्काल परमाणु ऊर्जा मिल जाएगी, लेकिन कई क्षेत्रों में सहयोग को लेकर बातचीत का लंबा दौर चलेगा. निवेश और तकनीकी हस्तांतरण के मामले में इन देशों की भी अपनी मांगें होती हैं. वे चाहते हैं कि उन्हें भारत में सस्ती ज़मीन मिले, करों में छूट दी जाए.
जर्मनी की चांसलर ने प्रधानमंत्री का गर्मजोशी से स्वागत तो किया, लेकिन जर्मनी का भारत प्रेम यानी भारत के साथ साझीदारी का मसला सिरे नहीं चढ़ा है. यूरोपीय साझा बाज़ार यानी ब्रूसेल से मुक्त व्यापार करार के बाद ही गति बनेगी. फ्रांस, जर्मनी एवं कनाडा तीनों विकसित पश्चिमी देश हैं. फ्रांस और जर्मनी यदि भारत को अपना मानते हुए नीति बनाएं, तो यूरोपीय साझा बाज़ार और निवेश में बहुत ़फायदा होगा. सवाल यह उठता है कि क्या प्रधानमंत्री की यात्रा से इन देशों की सोच बदली होगी? यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हर विदेश यात्रा पर चाहे कितना भी बड़ा धमाल या शो क्यों न हुआ हो, लेकिन भारत में उनकी विदेश यात्राओं की चमक अब धूमिल होने लगी है. अब पहले की तरह चार्म नहीं रहा, क्योंकि मोदी की विदेश यात्राओं से वास्तविकता में ऐसा कुछ निकल कर नहीं आया, जो पहले की तुलना में मील का पत्थर साबित हो. कोई भी सरकार एक-दो समझौते ऐसे कर ही लेती है, जो पहले न हुए हों या उन समझौतों पर पहले से गतिरोध चला आ रहा हो. भारत की अंदरूनी छोटी-छोटी बातों से प्रधानमंत्री की विदेश यात्राएं हाशिये की ओर बढ़ रही हैं, उनका शोर कोने में दबता जा
रहा है.
रूस आर्थिक तंगी से गुज़र रहा है. इसलिए कारोबार और निवेश के लिहाज से वह भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह गया है. चीन भारत का मुख्य कारोबारी सहयोगी है. चीन के नए प्रधानमंत्री भी बहुत विदेश यात्राएं कर रहे हैं. अगर हम चीन से अपनी तुलना करें, तो उपलब्धियों के मामले में चीन का विदेश विभाग रिकॉर्ड तोड़ तैयारियां किए हुए होता है. वहीं हमारे प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं में भारतवंशियों का दिल जीतने और उससे ब्रांडिंग का मकसद जाहिर होता है. सच मायने में देखा जाए, तो सौदे पटाने के मामले में चीन को गजब की काबलियत हासिल है. दूसरी ओर चीन के मुद्दे पर हमें यह भी सोचना होगा कि आर्थिक व सैन्य दृष्टि से भारत कमजोर है और मोदी कितने ही बड़े राष्ट्रवादी क्यों न हों, लेकिन वह पेइचिंग से लड़ाई मोल लेना नहीं चाहेंगे. चीन अगर आज वैश्विक ताकत बनकर उभरा है, तोअपनी आर्थिक ताकत के कारण. इसलिए चीन के सामने खड़े होने के लिए मोदी को पहले भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करना होगा.
जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, मोदी ने पहल की और उन्होंने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया, लेकिन उसके बाद उनकी पाक-नीति अधर में लटक गई. जबकि मोदी के प्रति औसत पाकिस्तानी के मन में कटुता होने के बावजूद वहां के नीति निर्माता चाहते हैं कि भारत के साथ उनके संबंध सुधरें. लेकिन, मोदी की पाक-नीति हुर्रियत के कीचड़ में फिसल गई. सरहद पर गोलीबारी में अमन-चैन की कोशिशों के लिए उठ रही आवाज़ दबी सो अलग. दोनों देशों की फौजों, सत्ता प्रतिष्ठानों और सतही लोकमत से ऊपर उठकर बड़े ़फैसले करने की हिम्मत जब तक मोदी नहीं जुटाएंगे, उनकी नीतियां इसी तरह लंगड़ाती रहेंगी. यदि मोदी भारतीय विदेश नीति को पाकिस्तानी फांस से निकाल सकें, तो उन्हें भारत के सारे प्रधानमंत्रियों में सर्वोपरि स्थान मिल सकता है.
विभिन्न देशों के कॉरपोरेट सेक्टर की बात करें, तो कॉरपोरेट क्षेत्र से जुड़ा निवेशक उसी जगह पर निवेश करता है, जहां उसे सारी सुविधाएं मिलें, उसे लाभ हो. जब लाभ की स्थिति होती है, तो वह बना रहता है, लेकिन जैसे ही स्थिति विपरीत होती है, वह चला जाता है. जबकि विकास के लिए लॉन्ग टर्म तक कॉरपोरेट इंटरेस्ट को बनाए रखना ज़रूरी है. यह लंबे समय के लिए साझेदारी की दरकार है. फिलहाल सरकार की नीतियों में इसका कोई समाधान नहीं दिखता. भविष्य में भी मोदी ऐसा कर पाएंगे, यह देखने वाली बात होगी. एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि मोदी सरकार विकसित देशों या किसी भी ऐसे देश के व्यापारिक मापदंडों पर तभी खरी उतर सकती है, जब वह भारत के केंद्र निर्देशित और अतिशय संरक्षित अर्थव्यवस्था में खुलापन लाने के अपने वादे को पूरा कर सके और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके.